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हिंदी साहित्य का अमर योद्धा: डॉ. रामदरश मिश्र

कीर्ति शेष—

“बनाया है मैंने यह घर धीरे-धीरे! 
खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे। 
किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला, 
कटा ज़िंदगी का सफ़र धीरे-धीरे।”

इन पंक्तियों के अमर रचनाकार डॉ. रामरदश मिश्र 31अक्टूबर 2025 को दिल्ली में अपने 101 वर्ष के जीवन को पूर्ण कर अनंत की यात्रा पर निकल गये। गोरखपुर के डुमरी गाँव से निकलकर दिल्ली तक की यात्रा करने वाले डॉ. मिश्र ने अपनी क़लम से गाँव की मिट्टी को जीवंत किया, शहर की जटिलताओं को उकेरा और मानवीय संवेदनाओं को ऐसे शब्द दिए कि वे अमर हो गए। डॉ. मिश्र का जाने का मतलब है हिंदी साहित्य ने अपना एक अनमोल रत्न खो दिया। उनका जीवन एक साधारण किसान परिवार से शुरू होकर हिंदी के शीर्ष पर पहुँचा। 

15 अगस्त 1924 को श्रावण पूर्णिमा के दिन गोरखपुर ज़िले के कछार अंचल में डुमरी गाँव में रामदरश मिश्र का जन्म हुआ। पिता रामचंद्र मिश्र और माता कमलापति मिश्र के तीन पुत्रों में सबसे छोटे थे। उनका बचपन प्रकृति की गोद में बीता। गाँव में बाढ़ का आतंक, खेतों की हरियाली, नदियों की लहरें, ये सब उनकी रचनाओं में बार-बार लौटते हैं। बचपन अभावपूर्ण था, लेकिन भावनात्मक रूप से समृद्ध रहा। माँ ने सहजता से वर्णमाला सिखाई तो पिता की रसिकता ने कला की नींव रखी। 

प्रारंभिक शिक्षा गाँव के प्राइमरी-मिडिल स्कूल में हुई, हिंदी और उर्दू सीखी। फिर दस मील दूर ढरसी गाँव में पंडित रामगोपाल शुक्ल के पास अध्ययन किया। बरहज से विशारद और साहित्यरत्न प्राप्त किया। 1945 में वाराणसी आए, एक प्राइवेट स्कूल से मैट्रिक पास की। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में इंटरमीडिएट, हिंदी में स्नातक, स्नातकोत्तर और पीएचडी पूरी की। यहाँ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे गुरुओं का सान्निध्य मिला, जिन्होंने उनकी साहित्यिक चेतना को निखारा। द्विवेदी जी ने उनकी पहली कविता संग्रह ‘पथ के गीत’ की भूमिका लिखी। 

1940 के आसपास कविता लिखना शुरू किया। पहली प्रकाशित कविता ‘चाँद’ 1941 में ‘सरयू पारीण’ में छपी। 1942 में खंडकाव्य ‘चक्रव्यूह’ लिखा। बनारस में नई कविता के प्रभाव से रचना-दुनिया बदली। 1956 से 1990 तक कई जगह पर प्रोफ़ेसर रहे। सेवानिवृत्ति के बाद लेखन और तेज़ हुआ। उन्होंने भारतीय लेखक संगठन के अध्यक्ष (1984-1990), गुजरात हिंदी प्राध्यापक परिषद के अध्यक्ष (1960-64), मीमांसा के अध्यक्ष जैसे पद सँभाले। 

नेपाल, चीन, कोरिया, मॉस्को, इंग्लैंड की यात्राओं ने उनके दृष्टिकोण को विस्तृत किया। साहित्यिक यात्रा 1951 में ‘पथ के गीत’ से शुरू हुई, जो छायावादी प्रभाव वाली थी। प्रगतिवाद के दौर में ‘बैरंग-बेनाम चिट्ठियाँ’, ‘पक गई है धूप’ आईं। नई कविता में ‘कंधे पर सूरज’, ‘दिन एक नदी बन गया’ ने उन्हें स्थापित किया। वे किसी ‘वाद’ में नहीं बँधे, बल्कि गाँव-शहर के द्वंद्व, दलित-नारी यातना, सामाजिक परिवर्तन को केंद्र बनाया। मिश्र जी के 32 कविता संग्रह हिंदी कविता को नया मुहावरा देते हैं। गीत, मुक्तक, ग़ज़ल, लंबी कविता, सबमें सहजता। प्रमुख संग्रह: ‘जुलूस कहाँ जा रहा है?’, ‘आग की हँसी’ (साहित्य अकादमी 2015), ‘मैं तो यहाँ हूँ’ (सरस्वती सम्मान 2021), ‘आम के पत्ते’ (व्यास सम्मान 2011), ‘बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे‘। उनकी कविता में गँवई बोली की मिठास है। उनकी कविता आम आदमी की करुणा पर केंद्रित है। प्रेमचंद की परंपरा में वे सादगी की कला साधते हैं। उम्र के अंतिम दौर में कविताएँ सहज अनौपचारिक हुईं, जो जीवन की जिजीविषा दिखाती हैं। 

उनके 15 उपन्यासों में गाँव का जीवंत चित्रण है, ‘पानी के प्राचीर’ (1961) से शुरू, जो गाँव की कठिन ज़िन्दगी दिखाता। ‘जल टूटता हुआ’ गाँव का महाकाव्य, ‘सूखता हुआ तालाब’ जल संकट पर। ‘अपने लोग’ मामूली आदमी का देवत्व दिखाता है, ‘आदिम राग’, ‘बिना दरवाज़े का मकान’, ‘थकी हुई सुबह’, ‘बीस बरस’, ‘परिवार’ इनमें आंचलिकता, स्त्री-जीवन, दलित चेतना प्रमुख है। 30 कहानी संग्रह में ‘खाली घर’ (1968), ‘एक वह’, ‘दिनचर्या’, ‘सर्पदंश’, ‘फिर कब आएँगे?’, ‘विदूषक’, कहानियाँ अंधविश्वास, शहरी तनाव, नारी विमर्श पर है। 

डॉ. मिश्र की आलोचना में 15 पुस्तकें प्रकाशित हुई। ‘हिंदी आलोचना का इतिहास’, ‘हिंदी उपन्यास: एक अंतर्यात्रा’, ‘हिंदी कहानी: अंतरंग पहचान‘। निबंध: ‘कितने बजे हैं’, ‘छोटे-छोटे सुख’, ‘बबूल और कैक्टस‘। आत्मकथा ‘सहचर है समय’ उपन्यास जैसी बाँधती है। यात्रावृत्तांत: ‘घर से घर तक’, ‘तना हुआ इन्द्रधनुष‘। संस्मरण: ‘स्मृतियों के छन्द’, ‘पड़ोस की खुशबू‘। डायरी: ‘आते-जाते दिन‘। रचनावली 14 खंडों में। उनकी रचनाएँ गुजराती, मराठी, अंग्रेज़ी आदि में अनूदित। 300 से अधिक शोध, 60 आलोचना पुस्तकें उनके साहित्य पर। 

सम्मानों की लम्बी लिस्ट में डॉ. मिश्र को पद्मश्री (2025), साहित्य अकादमी (2015), सरस्वती सम्मान (2021), व्यास सम्मान (2011), भारत भारती (2005), शलाका सम्मान (2001), विश्व हिंदी सम्मान (2015), महापंडित राहुल सांकृत्यायन (2004) आदि 21 से अधिक पुरस्कार मिले। वे सम्मानों से सदैव दूर रहे और लेखन पर केंद्रित रहे। इसी कारण वे वर्तमान के महान रचनाकारों में शीर्ष पर माने जाते है। मिश्र जी जीवन पर्यंत गाँव की मिट्टी से जुड़े रहे, दिल्ली में भी सीधे-सादे, स्वाभिमानी, युवा लेखकों के लिए प्रेरक बने, सहृोगी रहे। उनकी क़लम की रोशनी हमेशा नये रचनाकारों का पथ प्रदर्शित करती रहेगी। विनम्र श्रद्धांजलि . . .

* (लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तम्भकार है)!

संदीप सृजन
संपादक-शाश्वत सृजन
उज्जैन 456006
मेल-sandipsrijan.ujjain@gmail.com

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