अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

इंटरनेट का मासूमियत पर डाका रोक सकता है संवेदनशील साहित्य

इक्कीसवीं सदी ने देश-दुनिया और समाज को बड़ी तेज़ी से बदला है। रहन-सहन, खान-पान यहाँ तक कि सम्पूर्ण जीवन शैली ही बदल गयी है। आज का बच्चा वह नहीं रहा, जो हम समझ रहे हैं। वस्तुतः समय हमेशा बदलता रहा है और बदलना भी चाहिए, परन्तु पिछले दो-तीन दशकों में समय का बदलाव इतना तेज़ी से हुआ है कि बहुत सी चीज़ें हमारी नज़रों में आए बिना, अनचाहे ही हमारी ज़िन्दगी का एक हिस्सा बन गई हैं और जब तक हम सतर्क हो पाते, उन्होंने जीवन की बहुत सारी चीज़ें निगल लीं। समय का बदलना बुरा नहीं है, उसका विपथन घातक है। 

आज के आविष्कारों और नव-तकनीकी युग ने सुख-सुविधाओं के नए आयाम स्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसे हम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में देख सकते हैं। कदाचित ही इसने अनजाने में बहुत से जीवन-मूल्यों से हमें अलग-थलग और इतना दूर कर दिया है कि जब हम नज़रें उठाते हैं तो अपने को भूत-प्रेत, दादा-दादी और परी आदि की कथाओं से घिरे पाते हैं, और अपने बच्चों को पूर्ण मैच्योर, जो इंटरनेट और इलेक्ट्रॉनिक दुनिया के उस अन्तहीन गलियारे में बहुत दूर तक निकल चुके होते हैं। जहाँ मोबाइल फ़ोन, कंम्पयूटर, वीडियो गेम व इंटरनेट से भरा-पूरा उनका अपना एक अलग ही संसार बस चुका है। जहाँ आपसी सम्बन्ध, मेल-मोहब्बत, रहन-सहन, खान पान, जीवन-दर्शन ही नहीं बल्कि संपूर्ण संस्कृति ही बदल गयी है। 

आज अन्योन्याश्रयता का दौर भी बिल्कुल ख़त्म हो गया है। कम से कम वह हमें एक-दूसरे से बाँधता तो था। इकाॅनामिक्स का ’बाटर्र सिस्टम’ टकसाली मुद्रा का चलन आज भले ही हाशिए पर चला गया हो, पर वह था एकदम दुरुस्त। इस नाते हम लोग एक दूसरे से जुड़े तो थे। समय आने पर एक दूसरे के लिए खड़े तो रहते थे। आज वह बात नहीं रही, हर चीज़ को मुद्रा में आँका जाता है, यहाँ तक की रिश्तों को भी। 

इन सब का कारण चाहें जिसे भी हम ठहरायें। परन्तु इसके पीछे आज के माता-पिता की भी ग़लती को नज़र अंदाज़ नहींं किया जा सकता है। बच्चों में आज इस स्थिति के ज़िम्मेदार जहाँ एक ओर हाइटेक मोबाइल व इंटरनेट युक्त कम्प्यूटर रहे हैं, उससे कहीं ज़्यादा उन बच्चों के माता-पिता ज़िम्मेदार हैं, जिन्होंने जाने-अनजाने में अपने बच्चों को वो सारी सुविधाएँ उन्हें घर पर ही उपलब्ध करा दी हैं। 

माँ-बाप के शौक़ का नतीजा ही है कि सारी इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएँ घर पर उपलब्ध होती हैं। इस सन्दर्भ में यूँ कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज के बच्चे तकनीकी के ग़ुलाम हो गये हैं। आज से 25 वर्ष पूर्व टीवी पर सिर्फ़ एक चैनल हुआ करता था दूरदर्शन। परन्तु समय के बदलाव ने ऐसी करवट ली कि आज 300 से भी अधिक चैनलों से भी लोगों की पिपासा शांत नहींं हो रही है . . . और इन चैनलों को बड़ों के साथ बच्चे बे-रोक टोक देख रहे हैं। बच्चे अपनी मर्ज़ी के मालिक बन बैठे हैं। जब इच्छा किया घूमने चल दिये। बड़ों को इसके बारे में बताना आज कल के बच्चेे अपनी तौहीन समझते हैं। 

आख़िर अपने बच्चों में इस भटकाव को देखकर भी आजकल के माता पिता क्यों चुप्पी साधे हुए हैं? बच्चों का प्यारा-सा बचपन आज कहीं खो गया है। भूत-प्रेत, दादा-दादी और राजकुमारी की कहानियाँ ग़ायब हो गयी हैं और रह गया है मोबाइल फ़ोन कम्पयूटर, वीडियों गेम एवं कार्टून शो इत्यादि। 

इन सबसे बड़ा नुक़्सान यह हुआ है कि बच्चे समय से पूर्व परिपक्व हो रहे हैं। देखने में यह बच्चे भले ही छोटे लगते हो परन्तु दिमाग़ और दृष्टि से वे अत्याधिक शार्प, अत्याधिक कुटिल व षडयंत्रकारी बनते जा रहे हैं। आजकल के बच्चे जो भी टीवी और सिनेमा में देखते हैं, उसी को अपने वास्तविक जीवन में उतारने की कोशिश करते हैं। टेक्नॉलोजी ने बच्चों के कोमल मन की संवेदनाओं को समाप्त कर दिया है। टेक्नॉलोजी आज एक ऐसा चोर साबित हो रही है जो बच्चों की मासूमियत पल भर में चुरा ले रही है। इनकी ज़िन्दगी अब पूर्ण रूपेण मशीन बन गयी है। ’टीन एज’ में ही बच्चे क्रूरतम से भी क्रूर अपराध को अंजाम देने से नहीं हिचकिचा रहे है। सेक्स की ओर उनकी इच्छाएँ उम्र से पहले हावी होने लगी हैं जिसकी पूर्ति आज कई चैनल्स एवं इंटरनेट पर पोर्नोग्राफी के माध्यम से बच्चों तक अपनी पहुँच बना रही है जो एक ख़तरनाक संकेत है। 

पहले पीढ़ियों का बदलाव चालीस-पचास साल में दिखता था। बाद में वह दौर भी आया जब यह बदलाव पन्द्रह-बीस वर्षों तक सिमट गया। परन्तु आज तो अत्याधुनिक अविष्कारों और तकनीकी ने सम्पूर्ण जन मानस को बदल दिया है। स्थिति यह हो गयी है कि आज पीढ़ियों का बदलाव दो पीढ़ियों में नहीं बल्कि एक छत के नीचे रह रहे सदस्यों के बीच देखा जा रहा है। मानसिक समझ और चेतना के बदलावों ने सोच को बदल दिया है। हम यदि अपने ही इर्द-गिर्द नज़र दौड़ाएँ तो देखेंगे कि बहुत से परिवार ऐसे मिलेंगे जिनमें पिता अपने सबसे बड़े पुत्र के लिए आउटडेटेड है और छोटे भाई के लिए बड़ा भाई है। 

निःसंदेह आज समाज बदला है तो बच्चों का साहित्य भी बदला है। यही वजह है कि आज बदले हुए साहित्य की चकाचौंध है पर पूरी तरह नहीं। आज पुरानी धारा को छोड़कर समाज को सापेक्ष लीक पर चलने की ज़रूरत है। यदि देश-दुनिया, रहन-सहन, खान-पान बदल सकती है तो साहित्य को उसी रफ़्तार से बदलते रहना चाहिए था। परन्तु साहित्य के साथ ऐसा पूर्ण-रूपेण नहीं हुआ। वह न आगे बढ़ सका न ही पीछे। इसका प्रमाण हमें ऐसी अनकों रचनाओं को देखने से मिलता है जो 25-30 साल पूर्व की लिखी हुई हैं। इन रचनाओं में कोई ताज़गी नहीं। आख़िर आज का बच्चा वह सब क्यों पढ़ेगा जिसमें उसकी दुनिया नहीं, उसके समय की बात नहीं या उसकी दुनिया को स्पर्श करने की क्षमता तक नहीं। आज के बच्चे पूर्व की भाँति बाल साहित्य के द्वारा उपदेश लेना पसंद नहीं करते। इन्हेंं आज के संघर्ष का ज्ञान है। 
इन्हेंं अपने जीवन में आई मुसीबतों का लेखा-जोखा करना आता है। ऐसी तमाम समस्याओं से वह प्रतिदिन जूझ रहा है। घर परिवार, समाज, विद्यालय उसे बहुत कुछ स्वतः सिखा रहा है। ऐसे में इन्हें ऐसा साहित्य देना चाहिए जो बच्चों के कोमल मन में शीतल बयार की तरह उसे सहानुभूति दे सके साथ ही उसका हमसफ़र बन सके। उसे कुछ क्षण के लिए विश्राम, प्रेरणा और मनोरंजन दे सके। ऐसा साहित्य रचा जाना चाहिए। भले हम समाज को बदल नहीं सकते, परन्तु अपने नज़रिये को तो बदल सकते हैं। 
 
आज समाज में जो सबसे बड़ी कमी आयी है वह है संवेदना की। अगर सुन्दर, ज्ञान परक और स्वस्थ बाल साहित्य के माध्यम से इस कमी को दूर किया जा सका तो अनैतिकताएँ, भ्रष्टाचार, चारित्रिक पतन, विलगाव एवं भटकाव इत्यादि समस्याओं को बड़ी ही आसानी से दूर किया जा सकता है। स्वस्थ बाल-साहित्य से बच्चों में जो संवेदनशीलता पैदा होगी वह मानवीय जीवन के सुख-दुःख के क्षणों को समझने में अहम भूमिका अदा करेगी। जिस प्रकार की पढ़ाई बच्चों को आज पढ़ाई जा रही है वह अब बंद होनी चाहिए। स्वस्थ साहित्य अर्थात्‌ व्यवहारिक बातों से लैस एक अनुशासनात्मक पढ़ाई जिसमें आज कल के जिज्ञासु बच्चों के हर अनसुने एवं अनसुलझे सवाल का जवाब बड़ी ही सुगमता से दिया जाना चाहिए जो अब तक किसी ने नहीं दिये। अगर ऐसा हो सका तो हम एक अच्छे समाज की परिकल्पना को साकार कर सकते हैं। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सामाजिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं