अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

काग़ज़ का इलाज

 

सुबह होते ही सरकारी अस्पताल के गेट पर भीड़ उमड़ पड़ी थी। 

हर कोई अपनी फ़ाइल और पुरानी रिपोर्ट ऐसे भींचे था, मानो वही उनकी ज़िंदगी की आख़िरी डोर हो। 

भीतर रजिस्ट्रेशन खिड़की पर बाबू आराम से चाय सुड़कते हुए मरीज़ों को ऐसे देख रहा था, मानो यह भी इलाज की कोई गुप्त विधि हो। 

“अगला!” उसने ऊँची आवाज़ लगाई। 

क़तार में खड़े रामलाल का बुख़ार तीन दिन से उतर नहीं रहा था, मगर उनकी बारी आने में अभी दस लोग बाक़ी थे। 

उसी समय एक औरत भीड़ चीरते हुए आगे बढ़ी। उसकी गोद में दुबला-पतला बच्चा हाँफ रहा था, सीना ऊपर-नीचे हो रहा था, आँखें आधी खुली, होंठ नीले पड़ गये थे, वह रोते-रोते बोली, “भैया, बच्चा साँस नहीं ले पा रहा . . . बस पहले डॉक्टर को दिखा दो, भगवान के लिए . . .” 

बाबू ने बिना नज़र उठाए चाय का कप रखा और रटी-रटाई आवाज़ में कहा, “नियम सबके लिए बराबर हैं . . . लाइन में लगो।” 

भीतर डॉक्टर का केबिन मरीज़ों से ठसाठस भरा था। 

डॉक्टर, नर्स, वार्ड बॉय—सब मशीन की तरह एक सुर में बोल रहे थे—“अगला . . . अगला . . .” 

मरीज़ यहाँ इंसान नहीं, बस फ़ाइलों पर दर्ज नंबर थे। 

रामलाल की बारी आई तो डॉक्टर ने स्टेथोस्कोप बस औपचारिक-सा लगाया, फिर झट से पर्ची पर दवा लिख दी। 

“इतना ही?” रामलाल ने धीमे से पूछा। 

डॉक्टर ने हल्की मुस्कान के साथ धीमे स्वर में कहा, “और अच्छा इलाज चाहिए तो . . . मेरे क्लिनिक पर आना होगा।” 

बाहर निकलते हुए रामलाल ने देखा—वह औरत अब भी लाइन में थी, बच्चा उसकी गोद में निढाल पड़ा था। 
क़तार पहले से लंबी हो चुकी थी, हर चेहरा थकान और उम्मीद के बीच लटका हुआ था। 

रामलाल मन ही मन बुदबुदाया, “यहाँ बीमारी का नहीं . . . बस काग़ज़ का इलाज होता है। बाक़ी ज़िंदगी . . . और मौत . . . ख़ुद ही लड़नी पड़ती है।” 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

सामाजिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं