काग़ज़ का इलाज
कथा साहित्य | लघुकथा कैलाश केशरी1 Sep 2025 (अंक: 283, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
सुबह होते ही सरकारी अस्पताल के गेट पर भीड़ उमड़ पड़ी थी।
हर कोई अपनी फ़ाइल और पुरानी रिपोर्ट ऐसे भींचे था, मानो वही उनकी ज़िंदगी की आख़िरी डोर हो।
भीतर रजिस्ट्रेशन खिड़की पर बाबू आराम से चाय सुड़कते हुए मरीज़ों को ऐसे देख रहा था, मानो यह भी इलाज की कोई गुप्त विधि हो।
“अगला!” उसने ऊँची आवाज़ लगाई।
क़तार में खड़े रामलाल का बुख़ार तीन दिन से उतर नहीं रहा था, मगर उनकी बारी आने में अभी दस लोग बाक़ी थे।
उसी समय एक औरत भीड़ चीरते हुए आगे बढ़ी। उसकी गोद में दुबला-पतला बच्चा हाँफ रहा था, सीना ऊपर-नीचे हो रहा था, आँखें आधी खुली, होंठ नीले पड़ गये थे, वह रोते-रोते बोली, “भैया, बच्चा साँस नहीं ले पा रहा . . . बस पहले डॉक्टर को दिखा दो, भगवान के लिए . . .”
बाबू ने बिना नज़र उठाए चाय का कप रखा और रटी-रटाई आवाज़ में कहा, “नियम सबके लिए बराबर हैं . . . लाइन में लगो।”
भीतर डॉक्टर का केबिन मरीज़ों से ठसाठस भरा था।
डॉक्टर, नर्स, वार्ड बॉय—सब मशीन की तरह एक सुर में बोल रहे थे—“अगला . . . अगला . . .”
मरीज़ यहाँ इंसान नहीं, बस फ़ाइलों पर दर्ज नंबर थे।
रामलाल की बारी आई तो डॉक्टर ने स्टेथोस्कोप बस औपचारिक-सा लगाया, फिर झट से पर्ची पर दवा लिख दी।
“इतना ही?” रामलाल ने धीमे से पूछा।
डॉक्टर ने हल्की मुस्कान के साथ धीमे स्वर में कहा, “और अच्छा इलाज चाहिए तो . . . मेरे क्लिनिक पर आना होगा।”
बाहर निकलते हुए रामलाल ने देखा—वह औरत अब भी लाइन में थी, बच्चा उसकी गोद में निढाल पड़ा था।
क़तार पहले से लंबी हो चुकी थी, हर चेहरा थकान और उम्मीद के बीच लटका हुआ था।
रामलाल मन ही मन बुदबुदाया, “यहाँ बीमारी का नहीं . . . बस काग़ज़ का इलाज होता है। बाक़ी ज़िंदगी . . . और मौत . . . ख़ुद ही लड़नी पड़ती है।”
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