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जीवित मुर्दा 

सुधाकर जी जब अपने बचपन के बीमार मित्र श्यामलाल जी से मिलने उनके घर पहुँचे, तो उन्होंने देखा उनके बेटा-बहू उनकी सेवा में लगे हुए थे। 

यह देखकर सुधाकर जी ने उनके बेटा-बहू के कमरे से बाहर जाने के बाद उनसे कहा , “यार तुम बहुत भाग्यशाली हो, जो तुम्हारे बेटा-बहू तुम्हारी सेवा में लगे हुए हैं।”

वह मुँह लटकाकर बोले , “वो तो ठीक है, लेकिन . . .”

“लेकिन क्या . . .?” सुधाकर जी ने पूछा। 

“यार! मेरे इस शारीरिक स्वास्थ्य का तो वे दोनों बहुत ध्यान रखते हैं, लेकिन मानसिक स्वास्थ्य का ज़रा भी नहीं . . .” इतना कहते-कहते उनकी आँखें नम हो गईं। 

“मानसिक स्वास्थ्य का . . . मैं समझा नहीं यार! साफ़-साफ़ बता, पहेलियाँ मत बुझा?” 

श्यामलाल जी ने लगभग रोते हुए बताया, “यार! मैं चाहता हूँ कि मेरे पास कोई थोड़ी देर बैठे। मुझसे बातें करे, ताकि मेरा मन बहले, मेरा मानसिक स्वास्थ्य भी ठीक रहे,” वे थोड़ा रुककर, आँसू पोंछते हुए पुनः बोले, “मैं बातें करने के लिए तरस जाता हूँ, क्योंकि बेटा-बहू, पोता-पोती सब अपनी दुनिया में व्यस्त रहते हैं। तेरी भाभी के जाने के बाद से मैं एकदम अकेला हो गया हूँ। अपने कमरे में एक मुर्दे की तरह पड़ा रहता हूँ . . .”

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