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कँटीली गलियाँ

“ग़रीब मजबूर औरत को ये अमीर लोग . . . रास्ता में पड़ी धूल समझते हैं मगर क्या ये नहीं जानते की रास्ते में पड़ी धूल भी कभी तपती रेत बन कर पैर जला सकती है।” 

“बिच्छू ने डंक मार दिया और मेरी जिन्दगी का काँच का प्याला तिड़क गया। अब ये निसान कभी नहीं मिट सकता। मेरा आँचल मैला हो गया . . .”

मुनिया झाड़ू लगा कर पोचा लगाने लगी। वह सामने बैठा उसको देख रहा था। उसका झुका शरीर और सामने ब्लाउज के गले पर रामबाबू की बेशर्मी से टिकी हुई नज़र . . . अचानक दोनों की नज़रें टकरा गई। यंत्रवत . . . उसकी नज़र अपने ढलके हुए आँचल के ओर गयी। उसने झेंप कर आपनी ओढ़नी पल्ला जल्दी से ठीक किया। वह अच्छी तरह जानती है कि औरत की इज़्ज़त काँच के प्याले की तरह होती है . . . तड़क गया तो कभी निशान नहीं जा सकगा। उसने रामबाबू की ओर आँखें निकालीं तो वह बेशर्मी से खिलखिला कर हँसने लगा। 

तीस साल की साँवळी रंगत वाली, काले घुँघराले केसों के बीच सिन्दूर की लाल रेखा। भरे-भरे शरीर वाली मुनिया चार-पाँच घरों में चौका-बर्तन करती है। 

उसको सुबह जल्दी आने की आदत है। हाथों के साथ उसकी ज़ुबान भी ख़ूब चलाती। पूरे शहर के समाचार सबको सुनाती रहती है। 

“बाई जी, राम-राम . . . मेमसाब सलाम।”

जैसा रुख़ देखती वैसा करती। उसको हवा के रुख़ के हिसाब से चलना अच्छी तरह आता था। घर-घर काम कर के वह जान गई थी कि किसको कैसे ख़ुश रखना है। 

किस घर में क्या हुआ। कि घर की बेटी भाग गई। किस की बरात जायेगी। किस घर में बरात आने वाली है। किस घर में पति-पत्नी के बीच झगड़ा चल रहा है। सबको सड़क का आँखों देखा हाल बताना ज़रूरी समझती थी। 

कभी किसी का पति मुनिया से अपनेपन से बात कर लेता तो मकान मालकिन को नहीं सुहाता। मालकिन को नहीं सुहाता . . .। यह उनका सिर दर्द है . . .। वे भुनभुनाती रहती। परन्तु चुप रहना पड़ता। कहीं काम छोड़ दिया तो? पति घर नहीं हो तो वह भी रस ले कर उससे बात करती। घर में घुसते ही वह आवाज़ लगाती। 

“बाई जी, राम-राम . . . । मेमसाब सलाम।”

“कल कचरा बाहर क्यों नहीं फेंक कर गई . . . कल तो तूने बर्तन बहुत गंदे धोये।”

“अरे मुनिया तूने कल आँगन नहीं धोया।” 

“अेलो बाईजी अबार कर देऊँ।”

वह घर वालियों की बातों पर कान दिये बग़ैर अपनी कमर पर घाघरा लपेट कर काम करने लग जाती। घाघरा पिंडलियों तक ऊँचा आ जाता। छोटा . . . कसा हुआ़ ब्लाऊज, गले में रंग-बिरंगे मोतियों की नक़ली मालाऐं और काली चिढ्ढ़ों का सस्ता मंगलसूत्र चमकता रहता। 

घर-घर इतने साल लोगों के घरों में काम करने के बाद वह इस नतीजे पर पहुँची कि औरतें काम लेने में बहुत ही होशियार होती हैं। किट-किट करती रहती हैं और उनके पढ़े-लिखे पति सीधे-सादे . . .। घर की औरत से डरने वाले होते हैं। परन्तु अपनी पत्नी से आँख बचा कर काम वालियों पर सरस नज़रें डालते रहते हैं। वह चोर नज़रों का मतलब ख़ूब समझती है। 

कभी देखती है कि मालकिन अधिक ही हुक्म चला रही है, तो वह चौक में पसर कर बैठ जाती। 

“आज तो म्हैं घणी थाकगी हूँ। पौचौ तो काल ई लगावूँ . . .।” या मालकिन को नाक चढ़ाती देखती तो कहती “आज तो म्हनै ब्याव में जावणौ है . . . मेमसाब एक बढ़िया सी आपरी पूराणी साड़ी दे देवौ। सालभर हो गयौ अजै तक आप कीं नीं दियो है।” 

मीठी मार से वह उनकी बोलती बंद करना भी ख़ूब जानती है। फिर तो मालकिन एकदम सीधी हो कर ग़रज़ से काम कराती। वह डर जाती के अगर इसने काम छोड़ दिया तो क्या होगा? आजकाल काम वाली बाइयाँ . . . कहाँ मिलती हैं? 

चारों घरों में काम निपटाने के बाद रामबाबू का घर आख़री होता। लीला बाई तो ब्लड प्रेशर की मरीज़ है। दोनों बेटे परदेस में अपनी-अपनी पत्नियों के साथ रहते है। लीला बाई और रामबाबू की उमर देख मुनिया को उन पर तरस आता। इस लिए वह उन का सब काम कर देती। 

लीला बाई भी उसका बहुत ख़्याल रखती। कभी-कभी काम करने से पहले कड़क और मीठी चाय बना कर मुनिया को देती। वह लीला बाई के पास बैठी चाय पीती सोचती अब हाथ में पैसा आयेगा तो मैं मोहनिया (पति) को भी ऐसी चाय बना कर दूँगी। रोज़ तो कम दूध की चूरावाली पत्ती की चाय बनाती हूँ। यह चाय की पत्ती महँगी है। 

बीमार पति हाथ ठेले पर पूराने लोह-लकड़ का टूटा-फूटा सामान और रद्दी ख़रीद कर कबाड़ी को बेचता है। फिर सब पैसा शराब की भेंट चढ़ा कर घर आता है। अभी कल की ही बात है वह बहुत शराब पी कर आया। 

“राशन निठग्यौ हैं . . . घर में रासण-पाणीं नीं है अर थैं . . .। थोड़ो तौ सोचो . . .,” इतना सुनते ही मोहन उसको लात-घूँसों से मारने लगा। 

“म्हारी कमाई री पीवूँ हूँ . . . थारै बाप री कमाई री नीं पी है। थनैं चड़कौ क्यूँ लागै,” बोलता रहा और मारता रहा। 

लीला बाई ने उसके शरीर पर लाल-नीले निशान देखे तो कहा, “क्यों सहती है इतना . . . तुझे रोज़-रोज़ इतनी बुरी तरह मारता है . . .”

उसकी आँखें छलछला गयीं। केसों को खींच कर पीछे बाँधा जूड़ा। लाँग बाँधने से पिंडलियों तक ऊपर आया हुआ घाघरा, पैरों में स्टील की पायल और हाथों में रंग-बिरंगी चूड़ियाँ और कड़ा। पाँचों अंगुलियों में नक़ली अँगूठियाँ। गठे हुए शरीर वाली मुनिया . . . साँवले रंग की नाक-नक्श से सुन्दर। उसे गहने पहनने का शौक है। चाहे नक़ली ही हो। हर समय बनी-ठनी रहती। 

“तू अपनी कमाई का खाती है, बच्चों को भी तू ही पालती है . . . फिर ये रोज़-रोज़ की मार क्यों खाती है? अब छोड़ उसको . . .,” सहानुभूति जतलाती लीला बाई समझाती। 

“नहीं बाई सा म्हारै सूं औ इज़ तौ नीं हो सकै . . . आखिर तो म्हारौ धणीं है अर धणीं री मार सूं तौ सरग मिलैला . . . धणीं री सेवा करनो म्हारौ धरम है।” 

“लेकिन सिवाय मार ने के तुझे कुछ देता भी तो नहीं।”

“जैड़ौ-तैड़ौ ई है सा . . . है तौ म्हारौ सुहाग . . . औ तौ म्हारै करमा रौ फल है। औ सरीर तौ धणीं रौ ई है . . . मारै चाहे काटै . . .। म्हारा सुख-दुःख तौ उण रै ई साथै है।”

मुनिया मन ही मन में पति से नाराज़ थी लेकिन क्या कर सकती है? उस पर दया भी बहुत आती है। 

मुनिया रोटियाँ बना कर रसोई समेटने लगी। उसकी सामने नज़र गई। रामबाबू सामने खड़ा इशारे कर रहा था। उस की आँखों में बेहयाई थी। 

उसे पहले ही ज्ञात था रामबाबू इशारा करता रहता है। लेकिन वह देख कर अनदेखा करती, ध्यान नहीं देती। 

वह टाल देती। कभी अनजान बन कर तो कभी मुस्कुरा कर। 

वह जानती है कि कामवाली बाई का काम तो काँच के टूटे हुए टुकड़ों पर चलना है। अक़्सर ही घर के पुरुष . . . ये बड़े लोगों का, इस तरह औरतों को ताकना . . . नई बात नहीं है। मुनिया को फिर अपने शरीर पर रामबाबू की नज़रों महसूस हुई। उसने देखा वे पास ही खड़े हैं। 

“अलग हटो साब मुझे काम करने दो।” 

“बस ये ही तो बात है तेरी आदत ख़राब है। बात ही नहीं समझती ।”

“सब समझूँ साब . . .” वह मन ही मन बोली। उसने आँखें तरेरी। 

“जाओ अठै सूं . . . ”

रामबाबू को एक अजीब पराजय का बोध हुआ। इस असफलता से उसे अन्दर ही अन्दर आग लग गई। 

“दो टक्के की औरत . . . बड़ी सावित्री बनी फिरती है।”

सिगरेट का कश लगा कर राख झाड़ते हुए कुछ सोचा। ऊपर से शांत रहा, अन्दर उथल-पुथल मच गई। वह बैठा अपने दोस्तों की रंगीन मिज़ाजी की बातें याद करने लगा। 

तमाम दोस्त अलग-अलग ढंग से अपनी पत्नियों से जालसाज़ियाँ करते हैं। सबने अपने-अपने अलग ठिकाने बना रखे हैं। बड़े गर्व से क़िस्से सुनाते हैं। 

आज लीला देवी की तबियत अधिक ख़राब है। वह नींद की गोली ले कर सोई है। इस लिए आज रामबाबू मुनिया के आस-पास मँडरा रहा है। बर्तन माँजते अचानक उस की नज़रें रामबाबू से टकराईं। उसका कलेजा धक से रह गया। 

रामबाबू पास आ कर मनुहार भरे स्वर से फुसफुसाए, “लीला सो रही है . . . तू मेरे कमरे में आजा . . .”

उन की मुस्कान अश्लील थी। सुनते ही मुनिया के शरीर में जानें हज़ारों बिच्छुओं के डंक लग गए। मन हुआ रामबाबू का मुँह तोड़ दूँ। 

“शर्म आनी चाहिए आपको . . . आपको मैं बड़े भाई की तरह सम्मान करती हूँ। मैं यहाँ काम करने आती हूँ . . . इज्जत बेचने नहीं . . .,” वह ग़ुस्से से भरी काँपती बोली। 

“अरे तू नाराज़ क्यों होती है . . . ज़रा मेरे बारे में भी सोच।”

“अपनी उम्र का लिहाज़ करो। ऐसी बातें आपको शोभा नहीं देतीं,” उसने नाराज़गी से कहा। 

वह क्रोध और मजबूरी से ज़ोर-ज़ोर से बर्तन रगड़ने लगी। उसका शरीर क्रोध और मजबूरी के कारण पसीने से नहा गया। यह तो मेरे पीछे ही पड़ गया है। अब क्या करूँ? 

“अरी मुनिया . . . इतनी नाराज़ क्यों होती है? . . . तू राज़ी नहीं तो कोई बात नहीं . . . कोई दूसरा प्रबन्ध कर दे . . .। इनाम दूँगा।”

“ऐसी बात भूल कर भी मेरे सामने जुबान पर मत लाना। मुझे ऐसी-वैसी मत समझना,” वह बिफर गयी। 

“अरे . . . अरे इतनी नाराज़ क्यों होती है? तुझे अपना समझ कर कह दिया।”

“आप बड़ा लोगों की नीयत अेड़ी क्यों होवे? मजदूरी करने जाने वाली औरतों के साथ मोकळा गरीब मजदूर भी दिन भर काम करे है उणां री नीयत अेड़ी ख़राब नीं होवै। घरां में काम करण वाली लुगाइयाँ ने आप जेड़ा आदमियाँ रै कारण कितरी परेसानी रो सामनों करनो पड़े है,” अधिक क्रोध के कारण वह अपनी भाषा में बोलने लगी। 

“अब चुप हो जा . . . लीला ने सुन लिया तो . . .”

“थू है आप बड़े लोगां पर . . . मैं तो बाई जी रो सोच’र चुप हूँ। अबै आप कुछ भी बोल्या तो ठीक नीं . . .”

मुनिया पहले से अधिक कठोर हो गई। निष्ठुर बनी तीखी नज़रों से देखती रही। उसकी आँखों से आग बरस रही थी। रामबाबू वहाँ से खिसक गया। उसने काँपते हाथों से काम निपटाया और शीघ्रता से घर रवाना हो गई। 
उस दिन हल्की बूँदा-बाँदी हो रही थी। काले बादलों से आसमान ढका था। मौसम सुहावना था। उसकी अजीब हालत थी। काम करने जाना ज़रूरी था। अभी महीना पूरा होने में आठ दिन बाक़ी है। तीन सौ रुपये में घर में आटा-दाल, चावल, तेल . . . क्या-क्या आयेगा। चलते धंधे को लात भी तो नहीं मार सकती हूँ। 

दूसरे दिन उसको अपनी बेबसी और क्रोध के कारण पसीना आ रहा था। गैस के चूल्हे के पास खड़ी खौलते दूध में उफान आता देखने लगी। गैस धीमी की तो उसे आँच को देख कर लगा जैसे उस में भी ऐसी धीमी दिखने वाली लेकिन तेज़ आँच जल रही है। वह अपने घर रवाना हुई। रामबाबू दरवाज़ा बन्द करने आया। 

“याद रखना मेरा काम नहीं किया तो . . . तुझे . . .” उसके मुँह पर सिगरेट का धुआँ छोड़ते हुए कठोर स्वर में बोला और अपने हाथ से उसका कंधा दबाया। 

अचानक ऐसी अविश्वसनीय हरकत देख मुनिया चौंक गयी। उसके हाथ का स्पर्श महसूस होते ही वह उछल कर अलग हो गई। उस का ख़ून खौल गया। धड़कन बढ़ गई। ग़ुस्से से मन की हालत बिगड़ गयी। आज तो मेरे हाथ लगा दिया। अपमान व मजबूरी . . . क्रोध से पूरा शरीर काँपने लगा। वह उस पर बरसना चाहती थी। 

इस परिवार को लोग अच्छा परिवार गिनते है। आदर्श परिवार कहलाता है। पत्नी बीमार खाट पर पड़ी है फिर भी पति का पूरा ख़्याल रखती है। पत्नी के सामने उदार भाव रखने वाला ऐसा है। 

उसके घर से बाहर निकलते ही मुनिया का हौसला आँखों से बहने लगा। लेकिन घर पहुँचने के पहले सामान्य होना भी ज़रूरी है। 

सड़क सूनी पड़ी थी और उस पर पसरी पड़ी धूल हवा के साथ उड़ने लगती। असीम कड़वाहट से उसने फ़ैसला किया कि बस अब कोई हरकत की तो निपटना ही पड़ेगा। ग़रीब हूँ पर मेरी भी कोई इज़्ज़त है। ग़रीब मजबूर औरत को ये अमीर लोग . . . रास्ते में पड़ी धूल समझते हैं मगर क्या ये नहीं जानते की रास्ते में पड़ी धूल भी कभी तपती रेत बन कर पैर जला सकती है। 

वह बेहाल खोई-खोई सी पड़ी सोच रही थी। कभी उसके भद्दे इशारे याद आते ही उसके मुँह से गाली निकलती और कभी उसकी उम्र देखते ऐसे इशारों के कारण उसके होंठों पर बरबस मुस्कान आ जाती। 

खिड़की से हवा का झोंका आ कर मुनिया के शरीर को छू गया। उसकी नसें कसमसाने लगी। गहरी साँसें चलने लगी। 

“मुनिया तू मुझे बहुत प्यारी लगती है री। तने मेरा दिल चुरा लिया हैै।”

सिर पर पूरे सफ़ेद बाल . . . उमर साठ से ऊपर . . . और बुढ़ापे में इश्क़बाज़ी। दुनिया के सामने सज्जन कहलाने वाला पर मन इतना गंदा . . . ये नीच, लम्पट . . . ये तो कुत्ते की तरह है . . . मेरे पीछे ही पड़ गया है। मैं क्या अपनी जिस्म की आवाज़ सुनती तो ये मेहनत मजदूरी करती . . .? 

ना जाने कब मैंने अपनी जिम्मेदारियों के आगे अपनी इच्छाओं को दफ़न कर दिया। मजबूरी भरी रेत की परत के नीचे गहराई से गाढ़ दीं। अब तो केवल थोड़ी सी चिनगारियाँ बची हैं। 

एक युग बीत गया। कँटीला पथरीला मैदान व गलियाँ पार कर के इतनी कठिन ज़िन्दगी का सफ़र तय कर रही हूँ। इस की पत्नी को कहूँ तो वह भी क्या कर सकती है? 

आदमियों के साथ सचेत रह कर चतुराई और कौशल से ही रहना होता है। मैं अपने आप ही निपट लूँगी। अपने बलबूतों पर ही तो मैं इतने घरों में काम करती हूँ ख़ुद को बचाती आई हूँ। अब क्यों डरूँ? एक गहरा साँस ले कर शरीर को ढीला छोड़ दिया। बाहर कुत्ते भौंक रहे थे। 

कुछ काम वाली बाइयों को मरदों की जेब से खेलना अच्छा लगता है। परन्तु मैं तो अपने पति के लिए . . . अनमोल . . . मुझे मेरे स्त्री धर्म से लगाव है। 

उसको खोई-खोई व उदास देखा तो मोहन ने पूछा, “क्या बात है? परेशान क्यों है?”

वह चुप रही, भरी-भरी आँखों से पति की ओर देखा। 

“बताती क्यों नहीं . . . किसी ने कुछ कहा है क्या?”

बादल उमड़ने-घुमड़ने लागे। मन में आँधी और बादलों का घमसान मच गया। 

“बोल . . . जवाब दे . . . किसने . . . क्या कहा . . .” वह ज़ोर से चीखा। वह रोने लगी। पूरी बात बता दी। 

“उसने तुझे कुछ कहा और तू चुप रह गई? तूने पलट कर झापट क्यों नहीं मारा,” बताने पर उसका पति लाल पीला होते हुए बोला।

“मैं डर गई कि काम छूट जायेगा। चार दिन पहले काम छोड़ूँगी तो मेरे तीन सौ रुपये डूब जायेंगे . . . ” 

“तू झूठी है। तू तो ख़ुद ही रोती फिरती है। तू बहाना कर रही है . . .,” उसका पारा चढ़ गया। 

मुनिया ने क्रोध से तड़प से कर पति को देखा। कैसी ज़हर भरी बात करता है। उसका ख़ून खौल गया। चेहरा तमतमा गया। 

“विश्वास रखो चार दिनों से पैसा हाथ आते ही उसका काम छोड़ दूँगी,” वह ख़ुद को सयंत करती बोली। 

“तेरे दिल में क्यों नहीं आया कि उसे जूते मारूँ . . . तेरे दिल में बुराई नहीं है तो उसे जूता मारकर आ . . .”

“मेरे से तो आदमी को जूता नहीं मारा जाएगा। मुझे आदमी को मारते डर लगता है। तुम क्यों नहीं मारते हो . . . तुम मेरे पति हो। मेरी रक्षा करो,” पति को ज़िद करते देख कर उसने कहा। 

“तुझे छेड़ा है . . . तू ही जूता मार . . . सीता जी ने भी तो परीक्षा दी थी . . . तू भी जूता मार के दे,” वह शराब के नशे में ज़िद करने लगा। मुनिया अचंभे से देखने लगी। 

“परीक्षा? ये कैसी परीक्षा। किस बात की परीक्षा? . . . क्यों दूँ मैं परीक्षा?” 

“जा उसे ठोक कर आ . . . बिगड़ेल . . . कमीणी . . . जा,” मोहन नशे में धुत्त उसको गालियाँ बोलता गया और जूते से मारने लगा। 

“अरे क्यों मारते हो . . . पागल हो गए क्या? . . . मुझे ऐसा काम करना होता तो तुम्हें क्यों बताती,” रोती जाती और क्रोध से भरी बोलती जाती। 

“मैं कुछ नहीं जानता बस निकल मेरे घर से या उसे जूते मार कर आ . . . नहीं तो मेरे घर से निकल . . . ”

“पर ज़रा सोचो, मैं उसको मारूँगी तो लोग बातें बनायेंगे। मेरी इज्जत चली जायेगी। दूसरे घरों से भी काम छूट जायेगा।”

“मैं कुछ नहीं जानता बस जूता मार कर परीक्षा दे। जब सीता जी को परीक्षा देनी पड़ी तो तू क्या लाट साब है। ले मेरा जूता जा मार कर आ . . . जा . . . नहीं तो निकल मेरे घर से,” वह ज़िद चढ़ गया। “नहीं चाहिए मुझे आवारा लुगाई . . .”

मुनिया अपने अन्तस की पीड़ा और त्रासदी में गोता लगाने लगी। 

मुनिया की आँखों से सब आदमियों के प्रति आग बरसने लगी। “सब जानते हैं कि सीता जी बेकुसूर है . . . क्या ज़रूरत थी सीता को परीक्षा देने की? क्या कभी कोई पुरुष ने दी है ऐसी परीक्षा? क्यों नहीं देता पुरुष परीक्षा . . . गुनाह पुरुष करे और दोष थोप देते हैं औरत पर।” 

उसका अन्तःकरण कितनी पीड़ा से भर गया। वह उद्विगन हो गई। ग़ुस्से से भरी मुनिया रामबाबू के घर की ओर रवाना हुई। 

“सब मर्द एक से ही होते हैं। क्या आदमी और क्या भगवान?” वह सड़क पर बड़बड़ाती तेज़-तेज़ चल रही थी। 

रामबाबू घर के बाहर खड़ा दोस्त से बात कर रहा था। क्रोध से भरी मुनिया उनको देखते ही धड़ाधड़ मारने लगी। आस-पास के लोग इकट्ठे हो गए। 

“अरे . . . अरे क्या कर रही है . . . इस भले आदमी की इज़्ज़त क्यों बिगाड़ रही है?” रामबाबू के दोस्त ने उसका हाथ पकड़ कर रोका। 

जैसे वह नींद से जग गई। उसके हाथ से जूता छूट गया। उसको कुछ नहीं सूझा। सड़क पर खड़ी हाँफ रही थी। 

रामबाबू शर्म से पानी-पानी हो गए। उसका दिमाग़ तेज़ी से काम करने लगा। 

“एक तो मेरी जेब से सुबह इसने पाँच सौ रुपये का नोट चुराया . . . थोड़ा डाँट दिया कि चोरी क्यों की तो मेरी इज़्ज़त बिगाड़ दी।”

“देखो कैसा ज़माना आया है,” एक बोला।

“पुलिस में दो चोट्टी को . . .,” रामबाबू का दोस्त बोला। 

“ये काम वाली बाइयाँ ऐसी बदमाश ही होती हैं। इन को कोई लाज शर्म नहीं होती है,” दूसरा बोला। 

“पुलिस में दो . . . चोट्टी को . . .” उसका मित्र जानता था कि माज़रा क्या है। उसे सब बात का पता था। 

“शरीफ़ होती तो कोई कुछ कह भी दे तो सहन कर के घर में चुपचाप बैठ जाती यूँ सड़कों पर तमाशा नहीं करती,” रामबाबू खारी नज़र से उसे देखता बोला। 

“अरे यार ये घर-घर झाँकती फिरने वालियाँ ऐसी ही होती है। अपने को शरीफ़ बताती हैं। दो पुलिस में . . . ”

पुलिस का नाम सुनते ही वह भागती हुई अपने घर पहुँची। चटाई पर पड़ कर रोने लगी। बड़े लोग झूठ बोलें तो भी सच गिने जाते हैं। समन्दर में तूफ़ान उठते हैं आवेग होता है। लहरें किनारों पर आ कर पसर जाती हैं, लगता है जैसे आवेग से धरती में समा जाना चाहती है। वैसे ही वह भी धरती में समा जाना चाहती थी। 

“ये लोग हम ग़रीबों के दुश्मन होते हैं। मेहनत-मजूरी करने वाली औरतों को बुरी नज़र से देखते हैं। उनके घर की औरतों को हम इज़्ज़त देते हैं। उनके घरों में रहने वाली शरीफ़ज़ादियाँ . . . गली-गली घूमती हैं। मुझ से कुछ नहीं छिपा है . . .। हम ग़रीब लोग, मजबूर लोग कितने लाचार और बेबस हैं।” 

मुनिया की हालत देख कर और पुलिस का नाम सुनकर उसका नशा उड़ चुका था। बैठा बड़बड़ा रहा था। अपनी औरत की बेबसी पर पछता रहा था। उसके दुःख से दुःखी हो कर रोने लगा। 

अचानक कोठड़ी का दरवाज़ा खुला। उसने पदचाप सुनी तो सिर उठा कर देखा। वह चौंक गई। 

“ये रही चोट्टी . . . इसने चोरी की है।”

“निकाल मेरे रुपये . . . चोट्टी . . .,” रामबाबू दहाड़ा। वह अवाक्‌ बैठी देखती रह गई। 

“देख अब नाटक करने की ज़रूरत नहीं है . . . इनके रुपये निकाल दे नहीं तो तुझे थाना ले जाऊँगा,” सिपाही के चेहरे पर कुटिल मुस्कान थी। 

उसको सब ज्ञात था कि माज़रा क्या है। पचास रुपए लेकर जेब गरम की है। मोहन हाथां-जोड़ी करने लगा। पैर पकड़ने लगा। मुनिया पत्थर बन गई। अचानक मानों उस पर आसमान टूट कर आ गिरा। 

“चोट्टी . . . ”

“चोट्टी . . . ध्यान रखना मुझे रुपये वसूल करना आता है। रात तक रामबाबू के पाँच सौ रुपये दे देना नहीं तो कल थाने ले जाऊँगा,” सिपाही ने दरवाज़े पर डंडा बजाया और बाहर निकल गया। 

मुनिया की कोठरी के सामने भीड़ होने लगी। सिपाही और रामबाबू के कहे गए पत्थर जैसे शब्द मुनिया के कानों में गूँजने लगे। 

“ओह . . .?”

बिच्छू ने डंक मार दिया और मेरी जिन्दगी का काँच का प्याला तिड़क गया। अब ये निसान कभी नहीं मिट सकता। मेरा आँचल मैला हो गया . . .

सामने रोशदान में एक कबूतर बैठा पंख फड़फड़ा रहा था। 

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