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खिड़की


लेखिका: रत्नप्रभा शहाणे (मराठी कहानी) 
अनुवाद: डॉ. लता सुमंत 

 

उस छोटी सी खोली में इतनी बड़ी खिड़की क्यों बनवाई थी? कौन जाने? बड़ी यानी छह फुट चौड़ी और पाँच फुट लंबी इतनी बड़ी। उस हिसाब से तो खोली छोटी थी, तीन बेडरूम और ड्राइंगरूम के अलावा यह खोली ज़्यादा उपयोग में न थी। परन्तु यशोमती रोज़ वहाँ आकर बैठती। आज भी वह वहाँ आकर बैठी थी। बच्चे बाहर गए थे। टिनेजर बेटा संकेत और उससे छोटी दो लड़कियाँ प्राची और रुचि। शाम को हर किसी की अलग-अलग एक्टिविटीस थीं। संकेत को खेलने का शौक़ था, प्राची का योगासन क्लास और रुचि का भरतनाट्यम। यशोमती घर आने पर रसोई से निपट जाती फिर भी विलास नहीं आता था। वह अनुसंधान के कार्य में ही व्यस्त रहता, जिससे समय का उसे विशेष ध्यान न रहता। यों देखा जाए तो यशोमती ही बच्चों के भविष्य के लिए चिंतित थी। बच्चों को प्रेम तो देना ही पड़ता है इसके अलावा उनमें सुषुप्त गुणों को उभारने के लिए कभी सख़्ती तो कभी प्रेम से भी बरतना पड़ता है। यशोमती वह सब करती। पर आज सुबह से ही वह कुछ बेचैन थी। सुबह से ही नहीं वह तो अगली शाम से ही बेचैन थी। सुबह विलास ने उससे पूछा, “आज छुट्टी लेने वाली हो? अगर लेनेवाली हो तो मैं भी लेता हूँ और तुम्हारे साथ ही रुकता हूँ।” 

“नहीं . . . नहीं। तुम जाओ। मैं भी जानेवाली हूँ काम पर,” उसने हँसते हुए कहा। 

शाम को घर आने पर अपना काम निबटा कर वह इस बड़ी-सी खिड़की पर आकर बैठती। बच्चे बाहर गए थे। खिड़की से दिखनेवाला वह इतने बड़े आकाश का टुकड़ा उसका मन शांत करता! बहुत कुछ सिखाता। साँझ के बदलते रंग केवल उसे मोहित ही नहीं करते थे जबकि वे उसे जीवन की विविध अवस्थाओं के प्रतीक लगते। उड़ते पंछी, वृक्षों की झूलती डालियाँ और सूर्यास्त के समय आकाश में होनेवाली रंगों की बौछार . . .। उसे दरवाज़ा खुलने की आवाज़ सुनाई दी। रुचि दौड़ती हुए आई और उसकी गोद में समा गई। प्राची ने उसे अपने गले से लिपटा लिया। संकेत उसके पास बैठते हुए बोला, “माँ, कैसी हो?” वो हँसी। उसकी हँसी बहुत सुंदर थी। देखते हुए संकेत बोला, “आज बहुत मज़ा आया माँ। प्रवीण की टीम इतनी स्ट्राँग है फिर भी उसकी टीम के कितने ही लोग जल्दी-जल्दी रन आऊट हो गए। उसके स्ट्रोक्स इतने अच्छे होते हैं फिर भी आज मैंने उसका कैच लिया।” उसके चेहरे पर अभिमान की छटा थी।

“और माँ आज हमारे योगा क्लास में दो नए आसन सिखाए। योग टीचर बोले इस योग से मन पर नियंत्रण किया जा सकता है।” प्राची मंद-मंद मुस्काई। 

“माँ, मैं हमारी भारतनाट्यम की मिश्रा मैडम, तुम जानती हो न—वे मुझे कह रही थी, “रुचि तुम्हारे मुव्स बहुत ग्रेसफ़ुल हैं।” 

यशोमती फिर हँसी। शाबासी की हँसी। तीनों बच्चे पास थे। पसीने से भीगे उनके अंगों का गीला स्पर्श और पसीने की उग्रता उसने अपने मन में भर ली और बोली, “बच्चों मुझे तुम्हें कुछ कहना है . . .” 

“क्या माँ?” रुचि यशोमती के सामने पलथी मारकर बैठ गई। प्राची स्टूल पर और संकेत कोने के टेबल पर बैठा गया। 

यशोमती ने खिड़की से बाहर देखा। अंधकार बढ़ता जा रहा था। खिड़की की जाली से चाँद की चाँदनी बिखरी हुई नज़र आ रही थी। यशोमती एक मिनिट रुकी। लेकिन वह एक मिनिट उसके लिए एक अनंत आकाश के समान थी। न ख़त्म होनेवाला। उस आकाश के गर्भ में क्या है? ये जैसे हमें मालूम नहीं होता वैसे ही इस क्षण के अवकाश में क्या होनेवाला है हम समझ नहीं पाते। 

“ मैंने और तुम्हारे पापा ने पिछले कई वर्षों से अपने मन में छुपा रखी एक बात मैं तुम्हें बतानेवाली हूँ . . .” उसे अचानक थकान सी महसूस हुई। 

“माँ . . .” प्राची ने बुलाते हुए प्रश्नार्थक रूप से देखा। 

“हम सारे हिन्दू त्योहार मनाते हैं। भगवान की पूजा, रोज़ की आरती, सत्यनारायण की पूजा सब करते हैं . . . पर मैं हिन्दू नहीं हूँ।” 

“फिर . . . फिर तुम कौन हो?” अचानक से दोनों ने प्रश्न किया। 

“मैं जन्म से मुसलमान हूँ। पर तुम्हारे पापा से मेरा विवाह हुआ और तब से हिन्दू धर्म ही मेरा धर्म है ऐसा मैंने माना।”

“यानी? तुम हिन्दू नहीं हो? और इतने सालों तक तुमने और पापा ने हमसे छुपाकर रखा?” प्राची आगबबूला हुए जा रही थी। 

“तुम पापा के घर में कैसे आई? तुम्हारी शादी कैसे हुई? और ऐसा करके तुम्हें क्या मिला?” संकेत की आवाज़ में तीखापन था। 

“क्या मिला? मुझे समाज में स्थान मिला। तुम्हारे पापा का बड़प्पन। नहीं तो मैं कहाँ और कैसे जीती? इस बात की मैं कल्पना भी नहीं कर सकती।” यशोमती के गले में साँस रुँध रही थी। वह ज़्यादा कुछ बोल नहीं पा रही थी और उसे कुछ बोलना भी न था। उसके मन में विलास के प्रति उसकी भावनाएँ इतनी रम्य, पूज्य और कृतार्थपूर्ण थीं जिनका शब्दों में वर्णन करना शायद सम्भव न होता। अब आगे क्या होगा इस डर ने उसे घेर लिया था। ये गीले अंगों का स्पर्श, ये पसीने की उग्रता, क्या अंतिम होगी? 

दरवाज़ा खोलने की आवाज़ आई। विलास ऑफ़िस से आया था। उसने जूते उतारे, कपड़े बदले और वह ड्राइंग रूम में आकर बैठा। यशोमती को वह दिखाई नहीं दे रहा था मगर आँखों के सामने उसका चेहरा था चिंताग्रस्त। वो इस तरह चिंता करने लगता है तब उसकी दोनों भौंहों के बीच एक खड़ी रेखा पड़ जाती है वह भी उसे दिखाई दी। अठारह साल पहले दिखाई दी थी वैसी। बिल्कुल वैसी ही . . .  

♦    ♦    ♦

वह डर कर घर के खुले दरवाज़े से दौड़ते हुए बाहर आई। सामने ही गेट खोलकर बिलकुल रास्ते पर घबराई हुई, आँखों के आँसू गाल पर ढुले हुए, मार के निशान, काँपता हुआ शरीर। विलास शाम के क्लासेस ख़त्म करके घर लौट रहा था, उसी समय वह उसके घर के सामने आया और दौड़ कर आनेवाली उस लड़की को सहारा दिया। उसके पिता और चाचा तुरंत बाहर आए . . . उसे खींचकर ले जाने के लिए। 

“ये सब क्या है?” उसने पूछा। बीस-बाईस साल का जवान दो मावलियों को देखकर भी घबराया नहीं। 

वह लड़की अपनी क़मीज़ की बाँह पर नाक पोंछते हुए बोली, “ये लोग मुझे मारते हैं। मेरी सौतेली माँ और चाची मुझे चोट पहुँचाते हैं, मुझे बचाइए। मुझे इस घर में नहीं रहना।”

“चल,” विलास एक क्षण में ही बोला और वह उसकी ओर मुड़ गई। 

“कहाँ ले जा रहे हो हमारी बेटी को? हम पुलिस में लिखवा देंगे, चल घर में,” पिता ने बेटी पर हाथ उठाया। 

“आपके पहले मैं ही पुलिस में ख़बर करता हूँ। आप लोग बेटी को मारते हैं, उसे चोट पहुँचाते हैं, चलो,” उस लड़की की ओर देखते हुए वो बोला। 

“हमारे भाई-बंधु आकर तुम्हें मारेंगे और ये लड़की एक बार तुम्हारे घर में रहने पर हम उसको स्वीकार नहीं करेंगे। फिर ये कहाँ जाएगी?”

“उसकी चिंता आप ना करें,” उसने उसका हाथ पकड़ा और अपनी खोली की ओर मुड़ा। उसके घर से उसका चौथा घर था। ये सारे सरकारी आवास थे। उसके मालिक ने अंदर की एक खोली उसे किराये पर दे रखी थी। 

खोली में घुसते वक़्त उसने पूछा, “तुम्हारी उम्र क्या है?” 

“अठारह। “

“तुम्हारी क्या इच्छा है?” उसने कुछ कहे बग़ैर ही उसके गले में बाँहें डाल दीं। उसकी खोली में कुछ ज़्यादा समान न था। उसने उसे बिस्तर बिछा दिया और पीने के लिए पानी रख दिया और वह एक चद्दर पर लेट गया। आगे क्या करना है? उस अनजान लड़की और अपना भविष्य क्या है? हमारे माता-पिता नहीं पर पिता समान बुज़ुर्ग चाचा को दुखी करना क्या ठीक रहेगा? या इस घबराई-सी निष्पाप लड़की को आश्रय देना? 

“तुम्हारा नाम?” 

“यास्मिन।”

“क्या पढ़ती हो?” 

“मैट्रिक कर रही हूँ। मुझे छोड़कर मत जाना . . . वरना ये सारे मुझे मारेंगे।” 

समग्र दुनिया विलास के आसपास घूमने लगी और स्थिर हो गई एक सोच पर। यास्मिन की ज़िम्मेदारी लेनी है चाहे सारी दुनिया बैरी हो। 

“मेरे साथ आओगी?” उसने गर्दन हिला दी। 

“कहीं भी?” उसने उसका हाथ पकड़ा। 

दूसरे दिन मकान मालिक से बात करके उसने खोली छोड़ी। कॉलेज में जाकर उसने अन्य शहर में कॉलेज की उसी शाखा में प्रवेश लिया। नौकरी पर जाकर कहा वह किसी विकट परिस्थिति में उलझा हुआ है अतः इस्तीफ़ा दे रहा है और बैंक से बची-खुची रक़म निकालकर अन्य शहर में फिर से जीवन शुरू किया। नए शहर जाकर विलास ने उससे कहा, “ देखो मैं तुम्हारा नाम, ‘यशोमती’ रखूँगा और तुमसे विवाह करूँगा।”

वह शरमाई। 

“मेरी भाषा, मेरे रीति-रिवाज़ तुम सीखोगी?” 

उसने गर्दन हिलाकर हामी भर दी और उस पराए शहर में रजिस्ट्रार ऑफ़िस में उसने यशोमती संग विवाह किया। उसे एडमिशन मिला, छोटी-सी नौकरी मिली और उस नए शहर में उसका जीवन नए ढंग से शुरू हुआ। उनके सारे रिश्ते-नाते टूटे। उसे आसरा मिला, नाम मिला। घर और सुरक्षा मिली। सबसे महत्त्वपूर्ण यानी विलास का प्रेम मिला . . .।

♦    ♦    ♦

. . . गहन अंधकार ग्रस्त आकाश की ओर यशोमती बीच-बीच में देख रही थी। चाँदनी झिलमिला रही थी। वह खिड़की उसे अतिशय प्रिय थी बाहरी और आंतरिक दुनिया को जोड़नेवाली, बहुत कुछ सिखानेवाली, मन को अंतर्मुखी बनाकर सोचने पर मजबूर करनेवाली। तीनों बच्चे अवाक्‌ होकर उसके सामने बैठे थे। उन्हें ये सब कैसे कहे? और कहे तो क्या कहे? और पता चलने पर क्या कहेंगे? 

वह उठी और विलास से कहा, “चाय पीओगे?” 

“नहीं, अब खाना ही खाएँगे,” उसने हाथ के इशारे से ही पूछा, “कैसे हैं बच्चे?” 

उसने दोनों हाथों के इशारे से कहा, “सब ठीक है।” कुछ भी ठीक नहीं ये उसे मालूम था फिर भी! 

उसने खाने की तैयारी की। प्लेट्स रखीं। रोज़ का ये बच्चों का ही काम था मगर आज केवल रुचि उसकी मदद के लिए आई थी। 

संकेत और प्राची को नहीं खाना था, उसने कहा।

ये सुनते ही विलास बड़ी खिड़कीवाले कमरे में गया। बच्चों के चेहरे पर आश्चर्य, डर, दुख दिखाई दे रहा था। उसने दोनों के कांधे पर हाथ रखते हुए कहा, “अपने घर में अन्न पर कभी नाराज़गी नहीं की जाती। ये तो तुम्हें मालूम है न?” उसके मधुर शब्दों से बच्चों के मन का मीलों तक का अंतर कम हो गया था मगर ख़त्म नहीं हुआ था। बच्चे हाथ धोकर खाने के टेबल पर आए मगर एक-एक रोटी खाकर ही उठ गए। प्राची कपड़े बदलकर संकेत के कमरे में आई और उससे कहने लगी, “अपने ही ममी-पापा सीखाते आए हैं न हमेशा सच बोलना चाहिए। उसका भय न रखना और कभी किसी को फँसाना नहीं चाहिए और वही हमारे ममी-पापा ने . . .” 

उसकी हिचकियाँ रुकने का नाम नहीं ले रही थी। जो सत्य है वह पचा न पाने की हिम्मत और अपने को फँसाने का दुख ये दोनों ही उन हिचकियों से निकलकर बाहर आ रहा था। कुछ ठीक से न समझ पाने के कारण रुचि उसकी पीठ पर हाथ फेरती रही। 

“प्राची रो मत। इस सत्य को स्वीकार करने में हमें समय लगेगा। मुझे ऐसा लगता है . . .”

“मुझे तो अब बाहर निकलने में भी डर लगेगा। लोगों का तीक्ष्ण शब्दों से वार करना, उनका देखने का ढंग . . . कैसे सह पाएँगे हम लोग? इतनी-सी बात भी हम अपने ममी-पापा को बताते हैं और इन्होंने मात्र . . .”

“प्राची रोने से कुछ होगा नहीं। हमें ही हिम्मत रखनी होगी। जाओ सो जाओ।” 

प्राची और रुचि उनके कमरे में आईं और बिस्तर पर लेट गई। विलास और यशोमती को एक बात का सन्तोष था कि तीनों बच्चे साथ थे। थोड़ी देर से यशोमती हमेशा कि तरह उनके कमरे में आई। प्रत्येक को ठीक से ओढ़ाकर उनके मस्तक पर हाथ फेरकर वह अपने कमरे में आई। नींद तो कोसों दूर थी। मन भूतकाल में फेरे लगा रहा था। ये सब बच्चे कैसे समझ पाएँगे? 

♦    ♦    ♦

उनके विवाह के बाद गुड़ीपड़वा आया। विलास बोला, “यशोमती, चलो आज तुम्हारे लिए एक अच्छी-सी साड़ी ले आते हैं।”

“नहीं-नहीं मुझे कहाँ बाहर जाना होता है। आप के लिए ही दो पैंट ले आते हैं,” आख़िर दोनों बाहर निकले और उसके लिए एक सिल्क कि लेमन कलर की साड़ी ले आए। साथ में घर की कुछ उपयोगी चीज़ें भी ले आए। 

“देखो यशोमती, अब जून में स्कूल शुरू होंगे। तुम्हें स्कूल जाना है और अगले साल कॉलेज में समझी? ख़ूब मेहनत करके पढ़ाई करना। शिक्षा से जीवन को देखने का नज़रिया विस्तृत होता है।” 

उसने गर्दन हिला दी। 

गुड़ीपड़वा के दिन उसने नई साड़ी पहनी। नींबू का वह हल्का पीलापन उसकी गोरी त्वचा पर निखर रहा था। उसके पास आते हुए उसने कहा, “थैंक्यू।” 

वह हँसी। उसकी हथेली में जुही की कलियाँ थीं। चेहरे पर संतोष की मुस्कान। 

उसने उन कलियों सहित उसके हाथ पकड़े। पिछले पाँच महीने में कभी न दिखाई दिये ऐसे भाव उसके चेहरे पर दिखाई दिये और उस शाम वह समग्रता से सुखी हुई। पाँच महीने! पिछले पाँच महीनों से वे एक ही घर में रहते थे। परन्तु आज सही अर्थों में वे पति-पत्नी हुए थे। वह समर्पित साँझ उसे ख़ूब याद थी। थोड़ी देर बाद उसने पूछा, “थैंक्यू किसलिए? साड़ी के लिए?” 

“साड़ी के लिए तो कहा ही और सब बातों के लिए भी। तुमने मुझे जीवनदान दिया। मेरे जीवन को एक नया अर्थ मिला।” 

“तुम्हें इतना मधुर बोलना किसने सिखाया?” उसके बोलने में खुलापन था। उसके बोलने में पराएपन का भाव न था। वो बोला, “देखो अब पीछे मुड़ के देखना नहीं है। आगे देखना है। हमें अपना जीवन सँवारना है। कल मेरे बॉस कह रहे थे अगर मैंने ऑफ़िस की विभागीय परीक्षाएँ पास कीं तो मुझे प्रमोशन मिलेगा।”

“और ये बात आप मुझे आज बता रहे हैं?” 

“क्योंकि कल तक हमारे सम्बन्धों में हल्की-सी पराएपन की रेखा थी, वो आज दूर हुई है,”वो अर्थपूर्ण रूप से हँसा। 

वो भी हँसी। लजाती, सकुचाती-सी बादलों की ओट में छिपे दूज के चाँद-सी। अठारह वर्ष की बाली उम्र। बालपन खोया-सा, परिवार में प्रेम के लिए तरसती। विलास के कोमल शब्दों ने, प्रेम भरे व्यवहार ने और संरक्षण ने उसे स्वनिर्भर बना दिया था। और फिर उसने निश्चय किया आगे पढ़ेगी। स्कूल के बाद वह कॉलेज गई, ग्रेजुएट हुई, अंग्रेज़ी और इकोनॉमिक्स जैसे विषय में डिग्री प्राप्त की। ये सब करने में उसे समय लगा क्योंकि इसी समय में प्राची और संकेत का जन्म हुआ और घर की ज़िम्मेदारियाँ बढ़ीं। स्कूल की नौकरी भी सँभालनी पड़ रही थी मगर फिर भी वो ये सब बड़ी तन्मयता से कर रही थी। हम कहाँ थे और कहाँ पहुँचे इस बात को सोचकर आनंद से . . . 

♦    ♦    ♦

पर ये सारी बातें बच्चे कैसे समझेंगे? और मैं भी उन्हें ये सारी बातें कहूँ तो भी किन शब्दों में? मेरे जीवन के ये नाज़ुक धागे समग्र रूप से मेरे हैं और मेरे लिए ही हैं। ये मैं उन्हें कैसे खोलकर दिखाऊँ? 

दूसरे दिन भी संकेत और प्राची अगले दिन की परिस्थितियों से जूझ रहे थे। किसीसे भी बात किए बग़ैर सामने जो रखा था वही खाकर वे स्कूल चले गए। रुचि को विलास ने गाड़ी में छोड़ दिया। यशोमती का भी स्कूल में ध्यान नहीं लग रहा था। मन बेचैन यूँ ही यहाँ से वहाँ दौड़ रहा था ज़िद्दी बच्चे की तरह। आख़िर उसकी सहेली ने उससे पूछा, “क्यों री क्या हो रहा है आज तुझे?”

“कुछ नहीं रे। बच्चों की मर्ज़ी सँभालते कभी-कभी थक जाती हूँ। तुम आज जो सेंडविच लेकर आई थी वह बहुत अच्छा लगा। देखूँ तो सही उसमें क्या-क्या डाला है। उसने हाथ में सेंडविच का टुकड़ा लेते हुए विषय बदला।”

दोपहर में विलास का फोन आया, “यशु कैसी हो तुम?” 

“मैं ठीक हूँ तुम?”

“मैं ठीक हूँ रे मुझे तुम्हारी ही चिंता है।”

काम ख़त्म करके यशोमती घर आई पर मन में, ‘तुम्हारी ही चिंता लगी रहती है’ ये बात बार-बार उसके मन में घेराव डाल रही थी। पिछले अठारह वर्षों से विलास ने उसकी चिंता ही की थी। उसकी शिक्षा की ओर ध्यान दिया, रीति-रिवाज़ परम्पराओं से अवगत कराया, दोस्त बनाए, दोस्तों की पत्नियाँ उसकी सहेलियाँ बनी। उसने बी.एड. की परीक्षा दी। स्कूल में नौकरी मिली। विलास को प्रमोशन मिला। तीन बच्चों के योग से जीवन की बग़िया खिली। इससे बड़ा सुख और क्या हो सकता है? शुरू-शुरू में विलास के प्रति उसकी भावना कृतिज्ञा की थी। उसे बचानेवाला और अपने घर में आसरा देनेवाला एक देवदूत लगता था। पर वो गुड़ीपड़वा! वो समर्पण की शाम! उस दिन से उसके प्रति उसकी भावना बदल गई थी। वह उसका सहचर बन गया था। उस बात को कितने ही वर्ष गुज़र चुके थे मगर फिर भी वे सुखद यादें अभी भी मन में ताज़ा थीं। चित्रपट की तरह वे आँखों के सामने से सरकती रहती हैं। विलास के चाचा अति धर्मनिष्ठ थे जिससे उसे धर्म, रीति-रिवाज़, त्योहारों संबंधी सारी जानकारी थी। उसने उसे अहिल्या की कहानी सुनाई उससे उसे अपनी परिस्थिति ज्ञात हुई। जिस घर में वह अठारह साल रही थी उस घर में उसे कितनी ही बार पैरों से रौंदा गया था परन्तु उन पैरों में और रोंदनेवाले दिलों में क्रूरता थी। उसके शरीर ने चुभन महसूस की। मगर मन में घुलने वाली मीठी यादों ने उस कटुता को हावी न होने दिया। 

बच्चे घर आए। यशोमती ने हमेशा की तरह तीनों के दूध के ग्लास और नाश्ता टेबल पर रख दिया। तीनों ने हाथ-पैर धोकर बिना कुछ बात किए खा लिया। रोज़ घर आने पर ममी को बताने के लिए उनके पास बहुत कुछ होता मगर आज कुछ बोले बग़ैर खाकर तीनों बड़ीवाली खिड़की के कमरे में आ गए। पहले होमवर्क ख़त्म करके बाद में खेलना ये उस घर का नियम था। होमवर्क ख़त्म हुआ पर तीनों वहीं बैठे रहे। उस खिड़की से बाहर देखते हुए पास के खेल के मैदान में बच्चे खेल रहे थे। प्रवीण ने खिड़की के पास आकर पूछा, “आ रहे हो न खेलने? उसने नकार में गर्दन हिला दी। थोड़ी ही देर में प्राची की सहेली आई। 

“क्लास का समय हो गया है। आ रही हो न?” 

प्राची ने गर्दन हिलाकर मना कर दिया और संकेत, प्राची, रुचि वहीं बैठे रहे उस बड़ी-सी खिड़की से बाहर की दुनिया निहारते। यशोमती उनसे बोल रही थी मगर जवाब मामूली मिल रहा था। बच्चों को ये बात बताने पर उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी इस बात की उसे कल्पना थी। उसे उनपर क्रोध नहीं आया। बल्कि वह उनकी मर्ज़ी अनुसार ही सोच रही थी। 

“सबका होमवर्क हो गया हो तो थोड़ी देर खेल कर आओ,” उसने कहा और रसोई में निकल गई। तीनों चुपचाप बैठे थे। प्राची की आँखों से आँसू बहते ही जा रहे थे। उसके कंधे पर हाथ रखते हुए संकेत ने कहा, “प्राची, इस तरह रोते रहने से क्या होने वाला है?” 

“मुझे कुछ सूझ नहीं रहा है रे,” हिचकियों को रोकते हुए वह बोली। 

विलास उनके कमरे में आया लाइट जलाई और वहाँ एक कुर्सी पर आ कर बैठा। एक बार उसने बच्चों की ओर देखा ओर वो बोला, “मैं समझ सकता हूँ तुम्हें ये जो चोट पहुँची है उससे उबरना तुम्हारे लिए आसान नहीं है पर एक बात ध्यान रखो अलग-अलग देशों में कई ज्ञानी, त्यागी, युगपुरुष हुए हैं। सहानुभूतिपूर्ण रूप से उन्होंने धर्म की स्थापना की परन्तु हर धर्म का संदेश एक ही था प्रेम, इंसानियत, परोपकार। संसार में एक ही धर्म है और वो है इंसानियत का। तुम्हारी माँ को अनेक कठिनाइयों से गुज़रना पड़ा है। उस पर नाराज़ न होना। मुझ पर भी नाराज़गी न रखना क्योंकि माँ-बाप जितना प्यार करनेवाला बच्चों के लिए अन्य कोई नहीं होता।”

संकेत ने विलास की ओर देखा। प्राची ने आँखें पोंछी। रुचि बैठी थी। 

विलास उठा और सबकी पीठ थपथपाते हुए बोला, “ये देखो, माँ ने भगवान के आगे दीया जलाया है चलो, तुम्हारी रोज़ की प्रार्थना गाओ।”

संकेत और रुचि फट से उठे। पर हाथ में पेंसिल घुमाते हुए प्राची वहीं बैठी रही। संकेत ने उसे हाथ पकड़ के उठाया। 

बिना बातचीत के ही रात का खाना हो चुका था। बच्चे अपने-अपने कमरे में चले गए थे। अगली रात की तरह प्राची संकेत के कमरे में गई। 

“संकेत, मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है,” प्राची ने कहा। संकेत उससे दो साल ही बड़ा था मगर उसका वह मार्गदर्शक था। 
“देखो, पापा ने क्या कहा, ‘सच्चा धर्म तो प्रेम का और इंसानियत का होता है’। हमें ये समझ लेना चाहिए। मम्मी ने हमारे लिए क्या कुछ नहीं किया? हमारी पसंद का खाना-पीना, हमारे कपड़े अच्छी स्कूलों में शिक्षा, अच्छे संस्कार, हमारी बीमारी के समय की उसकी रातों की नींदें। वो याद करो। हमें हर तरह से प्रगतिशील बनाने के लिए ही उन्होंने इतनी मेहनत और श्रम किए हैं। याद करो। हमें इतने सालों तक नहीं बताया तो क्या फ़र्क़ पड़ गया?” 

उसका सोलह वर्ष का भाई उसका मार्गदर्शक था। 

“देखो, कुछ तो ऐसे संकटपूर्ण हालात, परिस्थितियाँ रही होंगी जिससे माँ-बाबा को गुज़रना पड़ा हो; सम्भव है। लेकिन फिर भी उन्होंने विश्वास में लेकर हमें सब कुछ बताया। यही ख़बर हमें बाहर से मिली होती तो? माँ-बाबा पर हमें नाराज़ नहीं होना चाहिए। पिछले दो दिनों से मैं यही सोच रहा हूँ और अब मैंने निर्णय ले लिया है।” 

प्राची की आँखों में प्रश्न चिह्न था और रुचि वहीं उसे लिपटकर बैठी थी। 

“इस तरह के व्यवहार के लिए हमें माँ-बाबा से क्षमा माँगनी चाहिए। उन्हें हमने बहुत दुःखी किया। मुझे बहुत बुरा लग रहा है।”

प्राची को अब ये बात समझ में आ रही थी। तीनों उठे और विलास और यशोमती जहाँ सोफ़े पर बैठे थे वहाँ उनके क़दमों में जा बैठे। संकेत बोला, “पापा-मम्मी पिछले दो दिनों के हमारे व्यवहार की आपसे क्षमा माँगते हैं। हमारी भूल हुई है। हमें क्षमा करें। कुछ भी हो, हमारा आपके प्रति प्यार और सम्मान कभी कम नहीं होगा।” संकेत और प्राची यशोमती के पैरों से लिपट गए वहीं उनके बीच घुसते हुए रुचि बोली, “पपा-मम्मी आज मैं आपके साथ सोऊँगी।” 

तीनों बच्चे वहाँ से निकल गए। यशोमती का ध्यान अचानक से उस बड़ी-सी खिड़की की ओर गया। बाह्यजगत का दर्शन करते हुए उसे अंतर्मुखी होना सीखाने वाली वह खिड़की! उसमें से सौम्य चन्द्रप्रकाश अंदर आ रहा था परन्तु उससे भी तेजस्वी प्रकाश उन पाँच हृदयाकाशों में फैला था। बादल शांत हो चुका था। विलास ने यशोमती का हाथ पकड़ा और उठते हुए कहा, “यशु चलो, रुचि हमारा इंतज़ार कर रही है।” 

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