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इस बार हो आती हूँ 

 

खाना खाने के कुछ देर बाद माँ जी अपने कमरे में जाकर लेट गईं। श्यामा रसोई में व्यस्त थी। खाने के पश्चात कुछ चीज़ें निकालकर रखने तथा बरतन ख़ाली करने में लगी थी। वहीं माँ जी की आवाज़ सुनाई दी, “श्यामा!” 

“जी, माँ जी आई,” श्यामा उनके कमरे की ओर चल दी। 

“बेटी, इस बार मेरी पूना जाने की इच्छा नहीं है।”

अपने आप को अस्वस्थ महसूस करती माँ जी की ओर देखते हुए श्यामा ने कहा, “कोई बात नहीं माँ जी, अगर आप जाना नहीं चाहती तो मत जाइये। हम जीजाजी को फोन करके बता देंगे कि आप नहीं आना चाहती। शिवांग आप से कुछ नहीं कहेंगे।” 

माँ जी को चिंता थी कि कहीं शिवांग ऐसा न कह दे कि अब कुछ नहीं होगा और अब मना करना भी उचित नहीं है। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। कुछ ही देर में माँ जी आश्वस्त हो गईं और कब उनकी आँख लग गई ख़ुद उन्हें भी पता नहीं चला। पंद्रह मिनिट के बाद जब उनकी आँख खुली तो इतनी तरोताज़ा लग रही थीं जैसे कुछ हुआ ही न हो। कहने लगीं, “श्यामा, मैं सोच रही थी इस बार हो आती हूँ। दामाद जी ने रिज़र्वेशन करवाया है तो उन्हें मना भी कैसे करूँ? एक तो वे मुझे लेने आए हैं और मैं ही मना कर दूँ। ठीक नहीं लगता।” 

माँ जी ने जाने की तैयारी तो पहले ही कर ली थी। बेटी के घर जो जाना था। अपने बैग में उन्होंने सब कुछ रख लिया था। पूरे महीने की दवाइयाँ, घर में पहनने की दो साड़ियों के साथ एक साड़ी और ख़रीद ली थी। सफ़ेद साड़ी पर मरून फूल जैसे खिल उठे थे। 

“रख लेती हूँ बहू कब ज़रूरत पड़ जाए, कह नहीं सकते। लेकिन इस बार तुम मुझे लेने ज़रूर आओगी। तुम लेने आओगी तो ही मैं जाऊँगी। आओगी न?” 

“ज़रूर माँ जी कॉलेज की परीक्षाएँ ख़त्म होते ही मैं आपको लेने आ जाऊँगी। तब तक आप वहाँ आराम से रहना। मैं ज़रूर आऊँगी।”

बहू की बातों से आश्वस्त हो माँ जी ख़ुशी-ख़ुशी अपनी बेटी के घर चली गईं; जैसे बेटी के घर नहीं बहू के घर जा रही हों। वहाँ पहुँचने के कुछ दिनों पश्चात ही माँ जी के अस्वस्थ होने की ख़बर आई। फिर शुरू हुई डॉक्टरी जाँच, टेस्ट और अस्पताल के चक्कर। रोगी के शरीर की थोड़ी सी भी विषम प्रक्रिया डॉक्टरों को जैसे जागृत बना देती है और उसके अपनों को परेशान। माँ जी की वृद्धावस्था तथा कुछ तकलीफ़ों ने उन्हें जीवन की अंतिम घड़ियाँ गिनने के लिए मजबूर कर दिया था। बेटों से दूर चले जाने के बावजूद उनके भाग्य ने अंतिम घड़ी में भी बेटों-बहुओं और नाती-पोतों से मिला दिया था। अम्मा के जीवन की तरह उनकी मृत्यु भी शांत और संतुष्ट थी। एक तरह से वे बिल्कुल संतुष्ट जीव थीं। न ख़ुद के मन में किसी प्रकार की हाय–हाय थी और न ही इस वजह से उन्होंने कभी किसी को दुःखी और परेशान किया था। अम्मा के पार्थिव शरीर को स्नान कराते समय श्यामा के आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। यादों का तूफ़ान भी शांत नहीं हो रहा था। 

अम्मा के कहे एक–एक शब्द जैसे उसके स्मृतिपटल से सरकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। उनके अंतिम समय में उन्हें वही साड़ी पहनाई जो उन्होंने अतिरिक्त ख़रीदी थी। अपने अंतिम सफ़र का जैसे सारा इंतज़ाम उन्होंने कर लिया था, जिससे कभी किसी को किसी भी प्रकार की दौड़ धूप न करनी पड़े। इस तरह वे अपने आगामी सफ़र के लिए निकल गई थीं। जाते वक़्त कह गई थीं, “इस बार हो आती हूँ।”

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