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खुल्ली हवा 

(गुजराती साहित्य परिषद द्वारा- गुजराती नवलिका - 2015 के रूप में चयनित कहानी) 
मूल लेखिका: नीता जोशी; गुजराती कहानी: खुल्ली हवा
अनुवादिका: डॉ. लता सुमंत

 

उन्हें देखकर ऐसा लगा कि यह स्त्री 80 साल में भी इतनी सुंदर लगती है तो जवानी में उसका मिज़ाज कैसा होगा! लंबे समय तक उनका व्यक्तित्व रुआबदार रहा होगा। उनका देह वृक्ष आज उतना घना नहीं, लेकिन सूखकर काँटा भी नहीं। उनके व्यवहार में हर तरह से स्पष्टता झलकती है। उनका हँसना, बोलना, चलना सब कुछ बिलकुल स्वस्थ है। वे आज भी ढीली चोटी बनाती हैं। उनके बाल अब लंबे घने भी नहीं रहे लेकिन फिर भी वे बालों को काले रिबिन से बाँधकर फूल बनाती हैं और उसको आकर्षक बनाती हैं। वे लंबे समय से सफ़ेद साड़ी पहनने की शौक़ीन रही हैं जिसके पल्लू में आसमानी और हल्का गुलाबी रंग सुशोभित हों, क्योंकि उन्हें पल्लू से हाथ पोंछने की आदत है। बगुले के पंख समान सफ़ेद साड़ी सभी को अच्छी नहीं दिखती, परन्तु मेरी नानी माँ सफ़ेद साड़ी में सचमुच बहुत सुंदर लगती हैं। नाना जी की मृत्यु के पश्चात वे बिंदी नहीं करती। हाथ में सोने की एक–एक चूड़ी पहनती हैं और गले में पतली सोने की चेन पहनती हैं। उनके सफ़ेद ब्लाउज के नीचे ब्रा की चौड़ी पट्टी वे बिलकुल सलीक़े से रखती है। मम्मी ने इसके अलावा उनके बारे में बहुत कुछ कहा है जिसमें वे अपना काम ख़ुद करना पसंद करती हैं। सुबह चाय और रात में वे कॉफ़ी पीने की शौक़ीन रही हैं। खाने–पीने के बारे में उनका मानना है कि हर एक का पेट और जीभ क्या और कितना चाहते हैं ये कोई और कैसे निश्चित कर सकता है? 

ऐसी अपनी नानी से मिलने मैं लंबे समय के बाद आई हूँ क्योंकि नानी का आज़ाद स्वभाव पापा को बिलकुल पसंद नहीं और पापा की नापसंद की मम्मी कभी अवमानना नहीं करती। तीन दिन की वर्कशॉप में इस शहर में आना हुआ तब मम्मी ने थोड़ा अचकचाकर कहा था, “तुम्हें ठीक लगे तो नानी माँ को थोड़ी देर के लिए मिल लेना।” मुझे लगा जैसे वह अपने किसी पुराने प्रेमी से मिलने के लिए कह रही हों। इस तरह पापा से नज़रें बचाकर क्यों कह रही हैं? नानी कोई आवारा बदमाश स्त्री थोड़ी है या बाघ या चीता भी नहीं तो क्यों मम्मी पापा के स्वभाव को इस तरह सँभालने में लगी हैं? यूँ तो नानी के बारे में कुछ ज़्यादा जानती नहीं और नज़दीक से जानने का मैंने कभी प्रयत्न भी नहीं किया अतः पापा की नापसंद का मैं अंदाज़ा भी नहीं लगा सकती थी। यूँ तो दादी-माँ का स्वभाव कहाँ इतना अच्छा है? फिर भी मम्मी, पापा जैसा व्यवहार नहीं करती। ख़ैर मुझे इस झमेले में नहीं पड़ना। पापा को पसंद नहीं फिर भी नानी माँ को मिलना ही है, इस निश्चय से मैं नानी माँ के पास जाने के लिए निकलती हूँ। छोटी-सी लकड़ी की देहरी की भारी और मज़बूत कुंडी मैं खटखटाती हूँ। मन में सोच रखा था कि अभी एक हिलती–डुलती डगमगाती-सी एक स्त्री आएगी। आँखें छोटी करके देखेगी। पहचानने पर भाव-विभोर होकर आँखें और नाक पोंछेगी। परन्तु मैंने सोचा वैसा कुछ हुआ नहीं; उन्होंने दरवाज़ा खोला तब वे बिल्कुल सीधी खड़ी थीं। उनके चेहरे पर गिनती की तीन या चार ही सिलवटें थीं। उनके गोरे रंग और तीखे नैन-नक़्श पर हल्के जामुनी रंग की फ़्रेम का चश्मा सुंदर लग रहा था। मुझे देखकर वे ख़ुश हुईं। पहले प्यार से सहलाया फिर इतनी बड़ी हो जाने का आनंद व्यक्त किया। न तो उन्होंने आँखों के कोर पोंछे और न ही नाक। मैं नानी के घर को अपनी युवा आँखों से तौलती हूँ। घर बरसों पहले देखा, उतना ही छोटा और ज़रूरी सामानवाला था। छोटा-सा आँगन, बरामदे और बड़ी–बड़ी खिड़कियों वाले दो कमरे। तीन लोग खड़े रह सकें ऐसी छोटी-सी रसोई में ज़रूरी चीज़ें थीं। मेरी माँ बिल्कुल ऐसे छोटे-से घर में रही होगी! कैसे रह पाई होगी? अभी तो इतने बड़े मकान में रहती है कि कभी तो माँ ही भूल जाती है कि घर में कहाँ और कितनी चीज़ें हैं। नानी माँ के घर में तो दो ही कमरे हैं। एक झूलेवाला कमरा, दूसरा उनके सोने का कमरा। नानी माँ के पास दो टेपरिकॉर्डर हैं। एक तो वे अपने पलंग के पास टिका के रखती हैं और दूसरा आँगन में शहतूत के नीचे पड़ी हुई पड़ी हुई आराम कुर्सी के पास लकड़ी के टेबल पर रखती हैं। थोड़ी देर में चाय के दो कप भरकर ले आती हैं। वे कुर्सी पर बैठती हैं मैं सीढ़ी पर। 

“नानी, मैं तीन दिन सुबह-शाम और रात आपके साथ रहनेवाली हूँ। इसलिए आप ऐसा कुछ अपने आप न बनाना, मैं आपको बनाकर दूँगी।”

“मुझे तो तुम्हारे हाथ का कुछ भी पीना बहुत अच्छा लगेगा, कल तुम बनाना। ये तो मैं अपने हाथ की चाय पिलाकर आनंद व्यक्त कर रही हूँ। कितने समय के बाद तुम्हें देख रही हूँ न इसलिए।”

“नानी अकेली–अकेली क्या करती रहती हैं पूरा दिन?” 

“ये फूल–पौधों में मेरे ध्यान न देने पर क्या उग आता है और क्या झर जाता है वही देखती हूँ। गीत सुनती हूँ।”

“वाह! गीत सुनना तो मुझे भी बहुत अच्छा लगता है। चलो हम दोनों में एक शौक़ तो समान है।”

“तुम्हें पढ़ने का शौक़ है।”

“बहुत कम, मुझमें उतना धीरज नहीं है। गीत तो मैं चलते–फिरते या फिर नेट पर कम करते भी सुन सकती हूँ।” 

“व्यायाम करती हो या उसमें भी धीरज नहीं है?” 

“हाँ वो तो रोज़ करती हूँ। रोज़ एक घंटा जिम में जाती हूँ।” 

मैं देख रही हूँ नानी माँ इस उम्र में भी बिल्कुल सीधी तनकर बैठती हैं। पापा को नानी माँ का ये अक्कड़पन बिल्कुल पसंद नहीं था। मम्मी मुझे नानी माँ से ज़्यादा डरपोक लगती है। वे अँधेरे में नहीं डरती ना ही छोटी–मोटी मुश्किलों से डरती है इतनी, पापा से डरती है। पापा की अनुपस्थिति में वे नानी के हालचाल पूछकर थोड़ा हल्का महसूस करती हैं। ख़ुद नानी के लिए कुछ ज़िम्मेदारी नहीं निभा सकती इस बात का अपराध भाव उसके चेहरे पर झलकता है। बातों के अंत ‘अपनी तबीयत सम्भालना’ कहकर फ़ोन रख देती फिर कितनी ही देर तक दरवाज़े के पास खड़ी रहती हैं। पापा के स्वभाव के आगे तो वह कुछ कर नहीं पाती। हमेशा अपने ही विचारों में उलझी रहती है। 

मैं नानी को चाय पीते–पीते पूछती हूँ, “नानी, मम्मी क्यों आपकी तरह सीधी तनकर नहीं चलती?” 

“यहाँ थी तब तो दौड़ती थी।” 

मुझे लगता है यूँ तो वो अभी भी कभी दौड़ती है। स्टोव पर कुछ रखा हो तब। पापा के आने का समय हो गया हो और कुछ बनाना बाक़ी रह गया हो तब, ख़ुद रखी हुई कोई चीज़ भूल जाए फिर ढूँढ़ने के लिए दौड़ती ही है। नानी भी कभी मम्मी की तरह दौड़ी होगी न? 

नहीं, शायद इस घर में नाना जी ज़्यादा दौड़े होंगे। जो व्यक्ति ज़्यादा ताक़तवर होता है वह चलता है और कमज़ोर है वह उसके साथ चलने के लिए दौड़ता है। कभी कोई बात निकलेगी तब नानी को पूछ लूँगी, नानी आप जीवन में कभी दौड़ी हैं? 

अभी तो नानी माँ पसंद केसेट सुनने में व्यस्त हैं। 

“नानी, आप नियमित रेडियो और टेप सुनती हैं?” 

“बिल्कुल नियमित।”

“अभी क्या सुन रही हैं?” 

“पंकज मालिक को।”

“बहुत बड़े गायक थे वे?” 

“छोटा या बड़ा यह तो इंसान अपनी पसंद के अनुसार बनाता है। हर किसी को अपना स्वजन साधारण होने पर भी विशिष्ट लगता है। ऐसा।”

‘नाना जी विशिष्ट थे?’ मैं मन में ही बड़बड़ाती हूँ। मुझे मम्मी से भी पूछना है, ‘पापा विशिष्ट हैं?’ 

नानी तो जो होगा उसका उत्तर तुरंत दे ही देंगी, परन्तु मम्मी तो ताकती रहेगी छत को, खिड़की को फिर नज़र नीचे करके मेरी ओर देखेगी तब भी अनुत्तरित ही होगी . . . कई बार ऐसा हुआ है कि उसे पूछे गए प्रश्न के उत्तर होंठों तक आते–आते रुक जाता है। नानी की तरह वह तुरंत बोल नहीं देती। नानी के पास उसके अपने उत्तर हैं जबकि मम्मी पापा के सामने ताकने पर ही उत्तर देती है। 

नानी के कमरे में दो तस्वीरें हैं। एक नाना जी का फोटो जिसे चन्दन का हार पहनाया है और एक मम्मी का पेंट–शर्ट में छोटे बालों वाला। मम्मी फ़्लावरपॉट के पास हाथ टिकाकर खड़ी है। दिखने में वह नानी जैसी लग रही है। अच्छा है वह नाना जैसी नहीं लगती। नाना तो दिखने में बिल्कुल साधारण थे। दुबला शरीर, सिर के आगे का हिस्सा गंजा, लंबा नाक, कान में से बाहर निकले हुए सफ़ेद बाल। नानी ने कैसे उनके साथ सालों बिताए होंगे। पापा तो एकदम स्मार्ट हैं। मम्मी इसीलिए उन पर मोहित हुई होगी। मुझे नानी के भूतकाल में गहन उतरने की इच्छा है। नानी बहुत ही बातूनी हैं। वे सारी बातों का हँसकर जवाब देंगी। मैं पूछूँगी वह सब कुछ सही-सही बताएँगी। उसे किसी के इशारे पर जीने की आदत नहीं। वे ‘ना’ भी बड़ी दृढ़ता से कहती हैं। पापा ठीक ही कहते हैं—‘तुम्हारी नानी तो हेकड़ीवाली हैं।’

कल ही उसका अनुभव हो गया था। मैंने कहा, “नानी, मैं आपके कमरे में आपके पास बिस्तर लगा लूँ। वह बोली, “नहीं, बेटा। तुम झूलेवाले कमरे में सो जाओ। मुझे अकेले सोने की आदत है।” फिर बोली, “प्रशांत, सुलोचना, शारदा, जया जो कोई आता है उन सबको मैं वहीं सोने के लिए कहती हूँ।” 

“क्यों तुम्हें कोई पास आए अच्छा नहीं लगता?”

“बिल्कुल नहीं।”

रात को क्या वे नाना जी के फोटो के साथ बात करती होगी या फिर रवीद्र संगीत और पंकज मलिक उन सबको सुनकर सोती होगी? मुझे बोली, “मुझे थोड़ा फैलकर सोने की आदत है। कोई साथ हो तो मज़ा नहीं आता। नींद में किसी तरह की अड़चन मुझे पसंद नहीं आती।”

मम्मी का तो सब चुपचाप होता है। उसके सोने उठने के समय से तो पापा भी बेख़बर होते हैं। जबकि मम्मी को ऐसी आदत नहीं कि शाम को यमन और सुबह में भैरव . . . नानी के पास तो केसेट्स का कितना अच्छा कलेक्शन है! कोई सनत नाम का शख़्स उसके जीवन में आ चुका होगा इसलिए प्रिय मामी को . . . तो कहीं पूज्य मामी को सप्रेम . . . आपका सनत . . .

“नानी, ये सनत अंकल क्या हैं?” मैं सीधा ही पूछती हूँ। 

“क्यों? सारी केसेट्स देखली न?” 

“हाँ, मम्मी के पुराने फोटो देखने के लिए ढूँढ़ रही थी। तभी यह देख लिया। तुम्हारे पास तो बहुत सारी गिफ़्ट हैं। पुस्तकें देख रही थी उसमें भी स्नेहांकित भाभी को . . . स्मरणीय चन्दन। भाभी को सप्रेम . . . आपका जयंत। ये सनत, जयंत आप सब मित्र थे?” 

“उस समय मित्र शब्द का ज़माना नहीं था। आज के दौर के अनुसार तो वे सारे दोस्त ही थे। सनत तो तुम्हारे नाना का दूर का भाँजा था। मेरे से दो साल बड़ा पर मुझे मामी ही कहता। वो गाने–बजाने का शौक़ीन और सुनने की शौक़ीन मैं। तुम्हारे नाना को तो उनकी पाठशाला भली और वे भले। सनत आता तब पाठशाला में भी हारमोनियम पर श्लोक का गान होता। यों तो साल में वो एक से दो बार आता पर तब हमारा देर रात तक सुनना-सुनाना चलता। तुम्हारे नाना तो नौ बजे सो जाते यानी कि गहरी नींद में। मैं और सनत देर रात तक जागते रहते। सनत आता तब तुम्हारे नाना को उसकी ख़बर होती कि ये दोनों देर रात तक जागे होंगे, तो मुझे उठाते नहीं थे।” 

मम्मी का एक दिन ऐसा नहीं जिसमें वह सो रही हों और पापा जागकर कुछ कर रहे हों। पापा को ऐसे ही कोई इमोशनल बना दे ऐसा कुछ पसंद न था। पहले तो मम्मी कहानी, कविता पढ़ती दिखतीं अब तो अख़बार की पूर्ति और पत्रिकाएँ ही देख लेती है। बस इतना ही। ‘तुम्हारे पापा को ये ठीक नहीं लगेगा। वो अच्छा नहीं लगेगा।’ ये वाक्य कपड़े पर की गई कढ़ाई की तरह उसके होंठों पर सिल गए है। पापा को मम्मी ने ख़ुद पसंद किया है तो फिर ऐसा क्यों? और नानी की तो अरेंज्ड मैरिज थी। रात बातें करते-करते दोनों बहुत ही आनंद का अनुभव कर रही थीं! 

“सच कहूँ पारु तुम्हारे नाना दिखने में मुझे बिलकुल पसंद नहीं थे, उस समय हम अम्मा के सामने तो भी कुछ बोल सकते थे पर बाबूजी के सामने नहीं बोल पाते थे। ऊँची आवाज़ में तो बोल ही नहीं सकते थे। वे बहुत ही गरम मिज़ाज के थे। तुम्हारे नाना तब बिल्कुल दुबले और लड़के जैसे दिखते थे। शाम को वे संस्कृत सीखने आते थे। बाबूजी उनकी स्मरण शक्ति और कंठस्थ करने की कला पर तो फ़िदा थे और एलान कर दिया चंदन के लिए यही लड़का योग्य है। आगे चलकर विद्वान होगा; ऐसा वे कहते। मैं तो ये सारी बातें सुनकर बहुत रोई और अम्मा से कहा, ‘देखो तो कैसी लंबी नाक है उसकी और शरीर भी सूखी लकड़ी जैसा। मुझे नहीं पसंद। नहीं करनी शादी मुझे।’ अम्मा मेरी तरफ़ एक टक देखती रही फिर बोली, ‘चंदन तुम्हारे बापू की ‘ना’ की ‘हाँ’ कभी नहीं हुई उसी तरह ‘हाँ’ की ‘ना’ भी कभी नहीं होगी। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। चेहरे पर टिकी नाक नहीं देखते, समाज में उसकी नाक कितनी ऊँची है, वही देखना होता है। और शरीर तो तुम्हारे हाथ का गरमा-गरम खाने लगेगा तब अपने आप भर जाएगा’। इस तरह वाद–विवाद के बग़ैर, पहले हाथ पीले हुए फिर मेहँदी से लाल।”

मैं नानी की गुलाबी और नरम हथेली देखती हूँ और सोचती हूँ इन हथेलियों को ज़्यादा कुछ सहना पड़ा हो ऐसा लगता नहीं। अब भी वे अपना मनपसंद पढ़ती हैं। मैं उनकी कुछ पुस्तकें अधिकार से देखती हूँ। कुछ पुस्तकें जयंत नामक व्यक्ति ने सप्रेम दी हैं। इस बार मैं कुछ पूछती नहीं। नानी सामने से बताती है, “ये जयंत तुम्हारे नाना का दोस्त था। भारी पढ़ाकू था। कंधे पर हमेशा थैला लटका रहता और उनमें एक–दो किताबें, कुछ छोटी पुस्तकें और कुछ ताज़ा लिखा रहता। रोज़ शाम साढ़े पाँच बजे जयंत न आए ऐसा नहीं होता था। आँगन में कुर्सियाँ पड़ी रहतीं। तुम्हारे नाना थोड़ी देर साथ बैठते फिर संस्कृत सीखने आए बच्चों के साथ चले जाते। जयंत मुझे कविता सुनाता, नए प्रकाशित लेखों की चर्चा करता। वो मेरे लिए चलता–फिरता पुस्तकालय था। ये बातें और दलीलें करने की आदत डालनेवाला वही था। नसीब फूटा था जो उसे नकचढ़ी पत्नी मिली और रोज़ के झगड़ों से परेशान होकर एक दिन निकल गया घर से बाहर और फिर कभी वापस नहीं आया। अब तो शायद इस धरा पर भी न हो! बहुत मज़ेदार था वह।” 

“आप उनके दोस्तों के साथ समय व्यतीत करती तो नानाजी आप पर नाराज़ नहीं होते थे?” 

“कभी भी नहीं, उनका मन बहुत विशाल था। और कई नाराज़गियाँ हो सकती थीं परन्तु इस बात पर कभी नाराज़ हुए हों मुझे याद नहीं। और सुन जिस तरह स्वतन्त्रता मख़मली होती है उसी तरह उसका उपभोग करने की भी ज़िम्मेदारी होती है। ख़ैर, ये सब तुम अभी नहीं समझोगी।”

“ये सारी अटपटी बातें छोड़िए और सच कहना आपको नानाजी की लंबी नाक बाद में पसंद आने लगी थी?” 

नानी खिलखिलाकर हँसते हुए कहने लगी, “पागल, कैसे सवाल करती हो?” 

“नानाजी के अंदर से कुछ अच्छा लगे ऐसा बाहर आता यानी बाहर का नापसंद अंदर चला जाता।”

मुझे ये अंदर–बाहर के खेल के बहुत सारे प्रश्न होते हैं। 

नानी कहती हैं, ‘नाना की नाक अच्छी तो लगती ही नहीं थी परन्तु जब-जब आँखें बंद करती तब अन्य कुछ उभर आता और नाक भुला दी जाती। ये सारे जीवन के अंदर–बाहर के खेल होते हैं। कुछ नापसंद दबाने के लिए पसंद को उभारना पड़ता है।’

मम्मी को अंदर–बाहर के खेल की जानकारी होगी? वो तो है ही सबसे अलग। पापा कहेंगे रात तो रात और दिन तो दिन। वह तो कभी अपने मूड के अनुसार जीती ही नहीं। और ये नानी माँ बिलकुल अपने मूड और मिज़ाज से जीती है, अब समझ में आ रहा है कि पापा को नानी माँ क्यों पसंद नहीं? पापा का तो स्वभाव ही तारसप्तक था ख़ुद कि मर्ज़ी का न होने पर ग़ुस्सा सातवें आसमान पर होता है। उसमें भी मम्मी पर ‘तुम्हें तो कुछ समझ में ही नहीं आता’ वहीं से शुरू होता और ‘ना समझी की भी कोई हद होती है’ वहाँ पर पूरा होता। बल्कि आख़री तान इस तरह होती ‘मैं विश्वनाथ पंडित नहीं हूँ जो पूछकर पानी पीऊँ!’ 

मम्मी का चेहरा तब ज़मीन के ऊपरी पपड़ी की तरह सख़्त हो जाता है उसके चेहरे के नीचे की खलबलियाँ महसूस कर पाना मुश्किल था जबकि नानी का चेहरा तो पत्ते पर उभर आए अक्षरों जैसा है। सभी सहजता से पढ़ लो इतना सरल। और आश्चर्य की बात ये है कि हर बात में वे नाना का स्मरण करना नहीं चूकती नहीं थी। दोपहर को बोली, “तुम्हारे नानाजी तो सादा भोजन भी पकवान की तरह जीमते।” मेरी नानाजी की तुलना पापा के साथ हो जाती है। पापा फूली हुई रोटी भी दोनों ओर से देखकर खाते हैं और टेबल पर कुछ चीज़ें तो होनी ही चाहिएँ ऐसा उनका हठाग्रह था। मुझे छोटी–छोटी बातों में सहमी हुई मम्मी याद आती है। चाय कड़क बन जाए, शर्ट पर दाग़ लग जाए या उनकी कोई चीज़ इधर–उधर हो जाए, पापा तुरंत ग़ुस्सा हो जाते। कुछ भी चला लेना जैसे उनके स्वभाव के विरुद्ध था। मम्मी हमेशा पापा के स्वभाव को संतुलित रखने की कोशिश करती रहती। 

यहाँ नानी बिलकुल अकेली हैं और मज़े में हैं। मैं उनकी नानाजी के साथ की कुछ तस्वीरें देखती हूँ। हर तस्वीर में सवाल उठता है कहाँ निस्तेज चेहरे वाले नानाजी और कहाँ स्वरूपवान नानी! वास्तव में नानी ने उनसे प्रेम किया होगा? या परिवार की मर्यादा के लिए प्रेम का नाटक किया होगा? यों तो वे नाना को याद करना कभी चूकती नहीं। 

आज मेरा नानी के यहाँ रुकने का अंतिम दिन है। सहज सुंदर शाम की बेला ढलकर रात्रि का आगमन कर रही है। अमलतास के फूलों के साए में, नीचे कुर्सी पर बैठकर छोटी टेप में उलझी केसेट की पट्टी धीरे से निकलती है फिर ध्यान से कहीं उलझ न जाए लपेटती है। मैं कॉफ़ी लेकर आती हूँ घड़ी में साढ़े नौ बजे हैं। नानी पूछती है, “तुम्हारी मम्मी अभी क्या कर रही होगी?” 

“वह तो दरवाज़े खिड़कियाँ बंद कर ए.सी. चलाकर सोने की तैयारी कर रही होगी। उसे तुम्हारी तरह पंकज मलिक की आवाज़ सुनकर ही सोने की आदत नहीं है।”

“तुम्हें कोई ख़ास आदत है?” 

“है न बहुत सारी। मुझे भी आपकी तरह मेरी जानकारी के बग़ैर क्या-क्या हुआ और क्या विस्मृत कर दिया गया, देखना अच्छा लगता है।”

“तुम लव मैरिज करोगी या अरेंज्ड मैरिज?” 

“कुछ ख़ास सोचा नहीं। अभी तो पापा और नानाजी के स्वभाव को ठीक से जानने की कोशिश में हूँ।”

“तुम यहाँ रुकी हो ये जानकर तुम्हारे पापा को अच्छा नहीं लगेगा। कहेंगे इतनी गर्मी में वहाँ रुकी थी?” 

“मैं कोई मम्मी की तरह संकोचवश या घबराकर जवाब नहीं दूँगी। मैं तो कहूँगी हाँ, मैं नानी के यहाँ रुकी थी और रात को आँगन में खटिया डालकर सोई थी। मम्मी की तरह दरवाज़े खिड़कियाँ बंदकर ए.सी. वाले कमरे में नहीं। चमकते आसमान के नीचे और खुली हवा में।” 

नानी ने केसेट ठीक करके चालू कर दी। उसी के साथ गीत शुरू हुआ, “ये कौन आज आया सवेरे-सवेरे।” 

नानी हल्के से स्मित के साथ इशारे में मुझे पूछती हैं, “कौन?” 

मैं कहती हूँ, “खुल्ली हवा।”

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टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2022/08/16 09:20 PM

दो अलग-अलग व्यक्तित्व और परिवेश पर लिखी गई सुंदर कहानी

कृपया टिप्पणी दें

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