खिड़की को देखूँ
काव्य साहित्य | कविता-मुक्तक अभिषेक कुमार 'अम्बर'4 Mar 2017
"कुण्डलिया छंद"
खिड़की को देखूँ कभी, कभी घड़ी की ओर,
नींद हमें आती नही, कब होगी अब भोर।
कब होगी अब भोर, खेलने हमको जाना,
मारें चौक्के छक्के, हवा में गेंद उड़ाना।
कह "अम्बर" कविराय, पड़ोसन हम पर भड़की।
ज़ोर ज़ोर चिल्लाये, देखकर टूटी खिड़की।
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