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ख़्वाब

पूरे ग्यारह साल बाद आनन्द अपने गृह नगर शाहजहाँपुर लौटा, तो उसे वहाँ की चौड़ी सड़कों, सड़कों के बीच घने पेड़ों के देखकर ख़ुशी मिश्रित आश्चर्य हुआ। ‘कितना बदल गया है मेरा शहर। अभी ज़्यादा वक़्त कहाँ गुज़रा है। मगर शहर ने रातों-रात कितनी तरक़्क़ी कर ली है।’ उस दौर में तो सोचा करते थे कि शहर में मेट्रो ट्रेन हो, तो भीड़-भाड़ और प्रदूषण भले माहौल से नजात मिले। मगर अब पूरे शहर में मेट्रो का जाल बिछा हुआ है। ‘कहीं इस भागमभाग मेट्रो की भीड़ में शहर की सांस्कृतिक धड़कन तो सुस्त नहीं हो गई. . .’ उसे शंका हुई। तभी अचानक उसे शहर की सांस्कृतिक स्थली रंग सभागार के बारे में याद आया, जो अब बिस्मिल्ला खां सभागार के नए नाम से अलंकृत हो चुका था। कॉलेज के दिनों में शहर में हर दूसरे दिन शास्त्रीय गायन-वादन-नृत्य या थिएटर का कोई न कोई बड़ा कलाकार होता था। आनन्द रंगमंच से लेकर शास्त्रीय विधा के हर कार्यक्रम में अपनी मौजूदगी दिखाता था। कभी मर्ज़ी से तो कभी मजबूरी से। इसी दौरान उसका कला और संगीत जगत से संपर्क हुआ। 

घूमते-घामते आनन्द अपने पुरानी यादों को ताज़ा करने के लिए बिस्मिल्लाह खां सभागार पहुँचा। उस दिन वहाँ बहुत गहमा-गहमी थी। शहर के युवाओं के लिए तो यह पसंदीदा जगह है। तीन दिन बाद उसे वापस लौटना था। इसलिए वह शहर को एक बार पूरा घूम लेना चाहता था। मगर यहाँ आकर लगा, थोड़ी देर ठहरा जाए। जैसे ही उसकी नज़र वहाँ लगे बड़े परदों पर गई तो, जैसे नज़रें ठहर सी गई। ‘अरे, आज अंतरराष्ट्रीय कत्थक समारोह है। एक दम सही वक़्त पर आया।’ बोर्ड पर लिखे अंतरराष्ट्रीय कत्थक समारोह को देख उसे 11 साल पुराने समारोह की याद ताज़ा हो आई। याद आया 11 साल पहले दिल्ली कत्थक केन्द्र ने भी यहाँ एक बड़ा कत्थक समारोह करवाया था। तीन दिवसीय उस समारोह में वह रोज़ जाया करता था। हालाँकि वह संगीत से ताल्लुक़ रखता था, इसके बावजूद वह कत्थक के कलाकारों से मिलने और उनके बात करने की फ़िराक़ में रहता था। उनकी सफलता और दुनियाभर में उनकी प्रस्तुतियों की बातें उसे बहुत प्रेरित किया करती थी। 

आनन्द ने सभागार के मुख्य दरवाज़े के दोनों ओर नज़र दौड़ाई। मोगरे की मालाओं से सजी दीवारें और उनके बीच विशाल होर्डिंग्स नज़र आए। सुंदर कैलीग्राफी में उन पर लिखा था-अंतरराष्ट्रीय कत्थक समारोह। नीचे देशी-विदेशी कई नामचीन कलाकारों के नाम और बीच-बीच में घुँघरुओं के चित्र बने थे। बीचों-बीच एक बड़े कैनवस पर कत्थक करती हुई युवती की तस्वीर बनी थी। लोगों की भीड़ देखकर यक़ीन नहीं हुआ कि शास्त्रीय नृत्य के लिए अभी भी लोग इतनी तादाद में आते हैं। शाम के साढ़े सात बजे कार्यक्रम शुरू होने वाला था। पाँच दिवसीय समारोह का यह दूसरा दिन था। अन्दर पहुँचा, तो पूरा सभागार लगभग भरा हुआ था। सभागार की तस्वीर भी काफ़ी बदल चुकी थी। मंच पहले से बहुत आकर्षित लगता था। सभागार की दीवारें और सीटों का रंग बदल चुका था। हालाँकि सभागार का नाम भी बिस्मिल्लाह खां हो चुका था। पहले इसे रंग सभागार के नाम से जाना जाता था। 

आनन्द मंच के बायीं तरफ़ सामने से पाँचवीं पंक्ति में पूरे इत्मिनान से बैठ गया। मंच पर शुरूआती औपचारिकता के बाद अनाउंसर ने उस दिन होने वाली प्रस्तुतियों के सभी कलाकारों से परिचय कराया।  “. . .इसके साथ ही आज देश की ख्यातनाम नृत्यांगना मालविका रागिनी अपनी टीम के साथ उनका प्रसिद्ध बैले बसंत गाथा प्रस्तुत करेंगी” सुनकर आनन्द बुदबुदाया “मालविका . . .मगर रागिनी . . .” स्मृतियाँ बहुत मज़बूत होती हैं। वह स्मृतियों के भँवर में डूबने लगा। उसे कुछ याद आ रहा था। 

अब तक आनन्द अपनी सीट पर पूरी तरह जम चुका था। मोबाइल फोन बंद करने की हिदायत का पालन करते हुए सभी ने अपने फोन को बंद कर दिए। पहली और दूसरी प्रस्तुति लखनऊ घराने की थी। दोनों प्रस्तुतियों का दर्शकों ने भरपूर तालियों से इस्तकबाल किया। परदा गिरा। आज का यह पहला डाँस बैले था-बसंत गाथा। जयपुर घराने की मालविका रागिनी का ख़ुद का बनाया बैले, जैसा कि ब्रोशर में लिखा था। और कई शहरों के साथ देश-विदेश में भी प्रस्तुत किया जा चुका था। बैले की प्रस्तुति से पहले आनन्द के पड़ौस में बैले और रागिनी को लेकर नृत्य के जानकार से लगने वाले लोगों के बीच खुसर-पुसर होने लगी। लेकिन उसे पड़ौसियों की चर्चाओं में कोई विशेष रुचि नहीं थी। पाँच मिनट के अंतराल के बाद परदा उठा। मंच के पार्श्व में तबला, पखावज, सारंगी और सितार पर साजिंदे मौजूद थे। सभागार की लाइटें एक एक जलने लगीं। मंद पीली लाइट की छाया से निकल कर दस नृत्यांगनाएँ मंच पर अवतरित हुईं। उन्होंने आकर्षक रूप में गणपत वंदना से बैले की शुरूआत की। उनकी अनुशासित और इस भापूर्ण वंदना पर दर्शकों ने सभागार को तालियों से गुँजा दिया। 

लगभग दो से ढाई मिनट के बाद छोटे क़द की साँवली लेकिन दमकते चेहरे वाली बैले की प्रमुख डाँसर मालविका रागिनी समूह से निकल कर अपनी उतरती चढ़ती श्वांसों पर नियंत्रण करते हुए माइक पर आकर बैले के भावों के बारे में बताने लगीं . . . “गुरुजी के आशीर्वाद से यह बैले मने पाँच साल पहले . . .” आनन्द को ख़ुद पर यक़ीन नहीं हो रहा था। “मालविका . . . मगर रागिनी . . .  ये तुम ही हो . . . मैं कहीं ख़्वाब तो नहीं देख रहा।” आनन्द ख़ुशी से जड़वत सा हो सोचने लगा। “तुम कत्थक को इतनी गंभीरता से लोगी और यहाँ तक मुक़ाम बनाओगी, मुझे कभी नहीं लगा। मुझे तो यही लगता था कि यूँ ही शौक़ के लिए . . .मगर तुम में इतना आत्मविश्वास . . . इस अंतरराष्ट्रीय समारोह में . . . अपने बैले समूह के साथ . . .” आनन्द शारीरिक आँखों से भले ही उस नृत्य प्रस्तुति को देख रहा था मगर वह अपनी स्मृतियों के समंदर में डूबने लगा। पंद्रह साल पुरानी बातें जैसे फिर से ताज़ा हो गई थीं। एक-एक बात, एक-एक शब्द। 

‘आनन्द, मुझे कुछ न कुछ सीखना है। नृत्य, गायन या चित्रकारी कुछ भी। तुम बताओ . . . क्या सीखना चाहिए।’ कॉलेज में फ़ाइनल ईयर के दिनों में उसकी जूनियर मालविका अक़्सर उससे बच्चों की तरह ज़िद किया करती थी। अक़्सर वे शास्त्रीय नृत्य और गायन के कार्यक्रमों में साथ साथ जाया करते थे। उन दिनों शहर में कत्थक नृत्य को लेकर युवाओं में काफ़ी उत्साह था। शहर की कई नृत्यांगनाएँ देश-विदेश में अच्छा ख़ासा नाम कमा चुकी थीं। उन्हीं दिनों उसे कत्थक नृत्य देखने के साथ करने का भी शौक़ लगा। जो आज यहाँ साकार हो रहा है। 

‘तुम चाहते ही नहीं हो, कि मैं कोई बड़ी आर्टिस्ट बनूँ’ अक़्सर मज़ाक में वह आनन्द को उलाहना देती थी। उसे लगता था कि आनन्द उसकी बातों को गंभीरता से नहीं ले रहा है। 

‘मैं कौन होता हूँ, चाहने और नहीं चाहने वाला।’ आनन्द अपनी तरफ़ से सफ़ाई देता। 

‘तुम चाहते तो, मुझे किसी अच्छे नृत्य गुरु के पास नहीं ले जा सकते। संगीत-नृत्य वालों के साथ उठते-बैठते हो।’

‘मुझे सीखना है . . . सीखना है . . .। और बस सीखना है . . .। कल तक नाम किसी अच्छे गुरु के बारे में बता देना’। उस दिन वह अपनी ज़िद पर आ गई। वह अपनी ज़िद की पक्की थी। उसकी ज़िद के आगे टिकना मुश्किल होता था। मगर उसका यह आत्मविश्वास देख अच्छा लगता था। 

 ‘आर्टिस्ट की डगर बहुत मुश्किल होती है। बहुत वक़्त माँगता है यह शौक़। क्या इतना वक़्त दे पाएगी तू।’ वह उसके धैर्य की टोह लेता। 

‘देख मालविका, अभी तुम्हारा जॉब शुरू होने वाली है। तुम्हारे सामने पूरा करियर पड़ा है। शौक़ तक तो ठीक है . . .’

‘और तुम ख़ुद जो नौकरी के बावजूद पश्चिमी शास्त्रीय संगीत सीखते हो, वह कुछ नहीं। तुमको लगता है कि सिर्फ़ तुम ही सब कुछ सीख सकते हो। तुमको बताना है, तो बताओ . . . नहीं तो मैं ही ढूँढ़ लूँगी।’ उस दिन उसकी सीखने के प्रति तड़प देख बहुत अच्छा लगा था। 

उसे याद आ रहा था कि किस तरह हाँ ना करते हुए पूरे तीन महीने बाद आख़िर उसे नृत्य गुरु पं. रागबिहारी दास के पास लेकर गया। 

पूरी प्रस्तुति के दौरान आनन्द बाहरी आँखों से मालविका के भाव-भंगिमा से युक्त नृत्य देख रहा था। लेकिन भीतर से यादों का पुराना तूफ़ान शांत नहीं हो रहा था। वह ख़ुद को यक़ीन दिला रहा था कि यह वही मालविका है जो कत्थक सीखने के लिए उससे ज़िद किया करती थी। 

कत्थक के रियाज़ के दिनों में लगभग हर दिन के रियाज़ के बारे में वह आनन्द से चर्चा करती थी। 

‘आनन्द, पैरों में बहुत दर्द हो रहा है। आज दफ़्तर जाने का मन नहीं कर रहा है। कभी-कभी तो लगता है नौकरी ही छोड़ दूँ।’ कत्थक के प्रति उसकी दीवानगी को देखकर आनन्द को ख़ुशी मिश्रित आश्चर्य होता था। 

रोज़ के रियाज़ के बारे में चर्चा करना उनकी ज़िन्दगी का हिस्सा बन चुका था। 

डाँस करियर के बारे में उसे जहाँ भी मौक़ा मिलता, पूछने से पीछे नहीं रहती। ‘आज एक ज्योतिषी से मैंने कत्थक के भविष्य के बारे में पूछा। बोल रहे थे . . . अच्छा भविष्य है। बस मेहनत करती रहो . . . पता नहीं मुझे उन लोगों पर क्यूँ यक़ीन हो जाता है।” उन दिनों वह ज्योतिषियों पर कुछ ज़्यादा ही यक़ीन करने लगी थी। 

उसे याद आ रहा था एक दिन जब आनन्द किसी काम से उसके गुरुजी के पास जाकर आया, तो पास आकर मालविका पूछने लगी, “क्या कह रहे थे गुरुजी। कह रहे होंगे, क्या नमूना लाया है?” मुँह बनाते हुए। 

“नहीं रे, कह रहे थे बहुत अच्छा कर रही है। बस यूँ ही चलती रह, तो बहुत आगे जाएगी।” दो चार बातें वह अपनी तरफ़ से जोड़ देता, ताकि उसका हौसला बढ़ता रहे। 

तालियों की गूँज में उसने देखा कि पूरे सभागार में अधेरा था। बैले के दौरान नृत्यांगनाओं के चेहरों पर मद्धिम रोशनी थी। जिसमें उनके दमकते हुए चेहरे नज़र आ रहे थे। मालविका बीचों-बीच भाव मुद्रा में थी। मगर आनन्द मालविका के इस मंच तक के जीवन सफ़र के बारे में सोच रहा था। इतने दिनों तक कोई संपर्क भी नहीं हो पाया कि कैसी है मालविका? क्या वह अभी तक कत्थक कर रही थी? कहाँ तक पहुँची। सब कैसे अपने काम में व्यस्त हो जाते हैं। न उसने कोई संपर्क किया, न ही कभी वह संपर्क कर पाई। मगर यात्रा चलती रहती है। अकेले। क्योंकि ख़्वाब देखने और मंज़िल पाने का सबका अपना हक़ होता है। 

आनन्द को याद आ रहा था कि उसके रियाज़ के दिनों में एक दो बार जब वह उसका रियाज़ देखने गया, तो वह सिर्फ़ उसके घुँघरुओं की तरफ़ देखता था। वह जानता था कि यदि उसने नज़र मिलाईं, उसका आत्मविश्वास डगमगा जाएगा। इसी वजह से उसके गुरुजी के कई बार कहने के बावजूद वह उसकी रियाज़ देखने नहीं जाया करता था। पं. रागबिहारी के अक़्सर कहा करते थे कि जिसे यहाँ लाए हो, वह कहाँ तक पहुँची देख तो लो। कई बार उलाहना भी देते थे। 

मगर आज हज़ारों दर्शकों के सामने उसकी आत्मविश्वास से लबरेज़ प्रस्तुति देखकर आनन्द अंदर ही अंदर ख़ुश हो रहा था। 

हर किसी की ज़िन्दगी में कई बार ऐसे पड़ाव आते हैं, जब वह ख़ुद को ज़िन्दगी के चौराहे पर खड़ा पाता है। निर्णय करना बहुत मुश्किल हो जाता है कि क्या छोड़े, क्या रखें। वह भी जब छोड़ने वाली और पाने वाली दोनों ही चीज़ों में बहुत आगे निकल चुके होते हैं। फिर से लौटना ख़ुद के हुनर की मौत जैसा होता है। मालविका भी उन दिनों कत्थक, दोस्ती और नौकरी के भँवर में फँसी थी। 

“आनन्द, आज मैं अपने मन को नहीं समझ पा रही हूँ। ख़ूब रोने का मन हो रहा है। अच्छी नौकरी का प्रस्ताव आया है। दोस्त लोग भी छोड़कर जा रहे हैं। समझ नहीं आ रहा क्या करूँ। मगर मैं कत्थक नहीं छोड़ना चाहती। अभी तो कत्थक को थोड़ा समझने लगी हूँ। मैं अकेली सी पड़ गई हूँ।” उसकी आवाज़ में अजीब सा डर और थोड़ी घबराहट नज़र आ रही थी। मगर बिना रोए अनिश्चय की उस गाँठ को उसने आँसुओं के रास्ते से बाहर निकाल दिया। फिर कई घंटों सुबकती रही। 

आनन्द ने उसे ख़ूब समझाने की कोशिश की। ‘देख मालविका ज़िन्दगी में मंज़िल हासिल करनी है, तो तुमको चलना तो अकेले ही पड़ेगा। मुझे पता है तुम अपने लिए कभी किसी से आगे से मदद के लिए नहीं कहती। मगर मैं तुम्हारी ज़रूरत समझता हूँ। मैं यक़ीन दिलाता हूँ, तुम्हें जब भी किसी तरह के सहारे की ज़रूरत पड़े . . . मैं हमेशा रहूँगा।’ आनन्द की हौसला अफ़ज़ाई से उसे ख़ुद पर विश्वास बढ़ता। आनन्द अक़्सर बातों के दौरान उसके इस विश्वास को महसूस भी करता था। 

इतने बड़े कलाकारों के बीच मंच पर उसकी प्रस्तुति से बिलकुल नहीं लग रहा था कि उसने पकी उम्र में कत्थक शुरू किया होगा। कॉलेज के आख़िरी साल मैं उसने नृत्य शुरू किया था। मगर इतनी लचक तो बड़ी कलाकारों में भी नज़र नहीं आती। और उस भावहीन चेहरे में मालविका ने इतने भाव कहाँ से पैदा कर लिए। उसके कई दोस्त भी उसे इस उम्र में कत्थक . . . कहकर हतोत्साहित करते थे। कभी-कभी इन बातों का उस पर असर भी हो जाया करता था। 

आनन्द उसे अक़्सर समझाता। ‘लोग तो कहेंगे। यह तुम्हारे ऊपर है उन्हें सुनकर तुम परेशान होती हो, या फिर चुनौती के रूप में लेती हो। हर चीज़ का एक वक़्त तय होता है। तुम सिर्फ़ कत्थक पर ध्यान दो।’ उसने अपने रियाज़ का वक़्त बढ़ा दिया। दिनों-दिन उसके नृत्य में परिपक्वता आने लगी। रियाज़ करते हुए हुए पूरे दो साल बीत चुके थे। इन दो सालों में उसने कत्थक में कोई पाँच साल का कोर्स पूरा कर लिया था। उसकी इस उपलब्धि के बारे में उसके गुरुजी अक़्सर चर्चा करते थे। 

उन्हीं दिनों एक फ़ैलोशिप के सिलसिले में आनन्द को बाहर जाने का प्रस्ताव आया। वह मौक़ा बहुत कम लोगों को मिलता है। वह दिन आनन्द के लिए मुश्किल भरा था। मालविका ने ज़ाहिर तो नहीं किया, लेकिन उसके चेहरे से लग रहा था, वह आनन्द को ख़ुद से दूर नहीं करना चाहती थी। मगर उसे आनन्द की इस उपलब्धि पर बहुत ख़ुशी थी। 

बातचीत के उस आख़िरी दिन आनन्द ने उससे ढेर सारी बातें कीं . . . और हौसला देते हुए कहा था ‘मालविका पिछले दो-ढाई साल से तुम जिस आत्मविश्वास से रियाज़ कर रही हो, और जैसा तुम्हारे गुरुजी विश्वास दिलाते हैं, उससे लगता है, तुम बहुत जल्द अच्छी फ़नकार बन जाओगी।’ अब उसे भी थोड़े से अनिश्चय के साथ अपने ऊपर यक़ीन होने लगा था। ‘पता नहीं ज़िन्दगी कब क्या मोड़ ले। मगर गुरुजी के और तुम्हारे यक़ीन से मुझे ख़ुद पर विश्वास होने लगा है।’ उसे आत्मविश्वास आने लगा था। 

आनन्द ने उसके विश्वास को पुख़्ता किया। ‘तुम इसी तरह रियाज़ करती रही और अपना आत्मविश्वास बनाए रखा, तो देखना एक दिन तुम हज़ारों दर्शकों के सामने मंच पर होगी और तुम्हारी प्रस्तुतियों पर लोग . . . ।’ इतने में पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाह से गूँज उठा। सभागार की बत्तियाँ जल चुकी थीं। आनन्द की तन्द्रा टूटी। वह यादों के भँवर से बाहर आया। तभी पसीने से तरबतर और आत्मविश्वास से भरी हुई मालविका ने झुककर दर्शकों का अभिवादन किया। एक बार फिर तालियाँ गूँजी। आनन्द ने इस बार ताली बजाई। और यादों के भँवर से निकले आँसू उसकी पलकों के किनारों से नीचे लुढ़क गए। उसके ख़्वाबों का बीज पक चुका था। आज आनन्द का एक ख़्वाब पूरा हुआ। 

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