कुछ सदा में रही कसर शायद
शायरी | ग़ज़ल नीरज गोस्वामी15 Jul 2007
कुछ सदा में रही कसर शायद
वरना जाते यहीं ठहर शायद
दर्द तन्हाई का ना पूछ मुझे
उससे बदतर नहीं क़हर शायद
तेज़ थी धूप छा गई बदली
तेरे आने का है असर शायद
बोलती बंद आजकल उसकी
आईना आ गया नज़र शायद
गीत पत्थर भी हैं लगे गाने
तेरे छूने की है ख़बर शायद
फिर जलाईं हथेलियाँ उसने
शमा आँधी से बचाकर शायद
सिल गये होंठ दुश्मनों के तभी
जबसे उसने कसी कमर शायद
लो घटा याद की है गहराई
अब करेगी ये आँख तर शायद
सच अकेला है भीड़ में नीरज
कल ज़माना करे क़दर शायद
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
ग़ज़ल
- आए मुश्किल
- आप जब टकटकी लगाते हैं
- इंसानियत के वाक़ये दुशवार हो गये
- कह दिया वो साफ़ जो भाया नहीं
- कुछ सदा में रही कसर शायद
- कौन करता याद
- खार राहों के फूलों में ढलने लगे
- गुफ़्तगू इससे भी करा कीजे
- जहाँ उम्मीद हो ना मरहम की
- जान उन बातों का मतलब
- जैसा बोएँ वैसा प्यारे पाएँगे
- झूट जब बोला तो ताली हो गई
- झूठ को सच बनाइए साहब
- दिल का मेरे
- दूध पी के भी नाग डसते हैं
- प्यार की तान जब लगाई है
- फूल उनके हाथ में जँचते नहीं
- बस फ़क़त अटकलें लगाते हैं
- बारिशों में भीग जाना सीखिये
- बे सबब जो सफ़ाई देता है
- मान लूँ मैं ये करिश्मा प्यार का कैसे नहीं
- मैं तन्हा हूँ ये दरिया में
- याद आये तो
- याद की बरसातों में
- याद भी आते क्यूँ हो
- लोग हसरत से हाथ मलते हैं
- वो ना महलों की ऊँची शान में है
- वक़्त उड़ता सा चला जाता है
- सीधी बातें सच्ची बातें
- हसरतों की इमलियाँ
- फ़ैसले की घड़ी जो आयी हो
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं