मैला आँचल में प्रयुक्त होली गीत
आलेख | शोध निबन्ध डॉ. पवनेश ठकुराठी1 Mar 2024 (अंक: 248, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु ने अपने उपन्यासों और कहानियों में अपने भावों को व्यक्त करने के लिए यत्र-तत्र गीत, भजन, लोकगीत, लोकगाथा, दोहे, शेर-ओ-शायरी, श्लोक व कविताओं का भरपूर मात्रा में प्रयोग किया है। रेणु के उपन्यास मैला आँचल में गीतों, लोकगीतों, भजनों, कविताओं आदि का जितना अधिक प्रयोग हुआ है, उतना शायद ही किसी अन्य उपन्यास में हुआ हो।
‘मैला आँचल’ उपन्यास की कथाभूमि बिहार के पूर्णिया जनपद का ’मेरीगंज’ नामक ग्राम है। उपन्यास की समस्त घटनाएँ इसी गाँव के भीतर या इसी गाँव के इर्द-गिर्द घटित होती हैं। आलोचक डॉ. उपेंद्र नारायण सिन्हा के अनुसार, वर्तमान में मेरीगंज गाँव को ’रानीगंज’1 के नाम से जाना जाता है, जो कोशिका की फरियानी और कमताहा नदी के मध्य अवस्थित है।
‘मैला आँचल’ में आंचलिक वातावरण को दर्शाने के लिए भी रेणु जी ने कई स्थानों पर लोकगीतों की रचना की है। इस उपन्यास में फगुआ (फागुन गीत) के गीतों के माध्यम से ग्रामीण वातावरण, ग्रामीण संस्कृति व शृंगार रस की सुंदर सर्जना हुई है:
1. हाँ रे अब ना जीयब रे सैयां
छतिया पर लोटल केश।
अब ना जीयब रे सैयां . . .। 2
2. नयना मिलानी करी ले रे सैयां,
नयना मिलानी करि ले!
अबकी बेर हम नैहर रहबौ,
जे दिल चाहय से करी ले। 3
वस्तुतः फागुन के महीने में होली का त्योहार पूरे भारत में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। मैला आँचल में रेणु जी ने अपने फगुआ गीतों (होली गीतों) के माध्यम से बिहार के उत्तर दिशा में स्थित अंचल विशेष की संस्कृति का निरूपण किया है। दो उदाहरण दृष्टव्य हैं:
1. अरे बंहियां पकड़ि झकझोरे श्याम रे
फूटल रेसम जोड़ी चूड़ी
मसकि गई चोली, भींगावल साड़ी
आँचल उड़ि जाए हो
ऐसो होरी मचायो श्याम रे . . .! 4
2. आज ब्रज में चहुंदिश उड़त गुलाल . . .। 5
इस उपन्यास का चरित्र कालीचरन जोगीरा गाने में दक्ष है। इसीलिए तो गाँव के छोटे-मोटे दल कालीचरन के दल में शामिल होकर जोगीरा गीत गाते चित्रित हुए हैं:
“जोगीड़ा सर रर . . . जोगीड़ा सर रर . . .
जोगी जी ताल न टूटे
तीन ताल पर ढोलक बाजे॥
ताक धिना धिन, धिन्नक तिन्नक
जोगी जी!
होली है! कोई बुरा न माने होली है!
बरसा में गड्ढे जब जाते हैं भर
बेंग हज़ारों उसमें करते हैं टर्र
वैसे ही राज आज कांग्रेस का है
लीडर बने हैं सभी कल के गीदड़ . . . जोगी जी सर रर . . .
चरखा कातो, खध्धड़ पहनो, रहे हाथ में झोली
दिन दहाड़े करो डकैती, बोल सुराजी बोली
जोगी जी सर रर . . . ”6
वस्तुतः इस उपन्यास में फगुआ (होली) गीतों के माध्यम से तत्कालीन राजनीति का भी यथार्थ चित्रण हुआ है:
“आई रे होरिया आई फिर से! आई रे!
गावत गाँधी राग मनोहर
चरखा चलावे बाबू राजेन्दर
गूंजल भारत अमहाई रे! होरिया आई फिर से!
वीर जमाहिर शान हमारो
बल्लभ है अभिमान हमारो
जयप्रकाश जैसो भाई रे! होरिया आई फिर से!”7
इन्हीं फागुन के गीतों में एक भड़ौवा लोकगीत भी है। इस उपन्यास का चरित्र कामरेड वासुदेव कालीचरन की टोली से भड़ौवा गाने के लिए कहता है, तो टोली उसे भड़ौवा गीत सुनाती है, जो ग्रामीण समाज में व्याप्त जातिवाद का उद्घाटन करता है:
“ढाक ढिन्ना, ताक ढिन्ना . . .
अरे हो बुड़बक बभना, अरे हो बुड़बक बभना,
चुम्मा लेवे में जात नहीं रे जाए।
सुपति-मउनियां लाए डोमनियां, माँगे पियास से पनियां।
कुआँ के पानी न पाए बेचारी, दौड़ल कमला के किनरियां।
सोही डोमनियां जब बनली नटिनियां, आंखी के मारे पिपनियां।
तेकरे ख़ातिर दौड़ले बौड़हवा, छोड़के घर में बभनिया।
जोलहा धुनिया तेली तेलनिया के पीये न छुअल पनियां
नटिनी के जोबना के गंगा-जमुनुवां में डुबकी लगाके नहनियां।
दिन भर पूजा पर आसन लगाके पोथी-पुरान बंचनियां।
रात के ततमाटोली के गलियन में जोतखी जी पतरा गननियां।
भकुआ बभना, चुम्मा लेने में जात नहीं रे जाए!”8
अतः स्पष्ट है कि कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु ने मैला आँचल उपन्यास में प्रयुक्त होली गीतों यानी फगुआ (फागुन गीत) के माध्यम से बिहार की आंचलिक संस्कृति तो उजागर हुई ही है साथ ही इन गीतों के माध्यम से तत्कालीन राजनीति का भी उद्घाटन हुआ है। इन फगुआ (फागुन गीत) के गीतों के माध्यम से ग्रामीण वातावरण, ग्रामीण समाज, संस्कृति व राजनीति का प्रकृत चित्रण रेणु ने किया है।
संदर्भ सूची:
-
मैला आँचल का महत्त्व, संपादक मधुरेश, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण, 2008, पृ. 167
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मैला आँचल, फणीश्वरनाथ रेणु, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 27वां संस्करण, 2017, पृ. 90
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वही, पृ. 91
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वही, पृ. 91
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वही, पृ. 91
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वही, पृ. 92
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वही, पृ. 93
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वही, पृ. 93
— डॉ. पवनेश ठकुराठी,
अल्मोड़ा, उत्तराखंड-263601
मो० 9528557051
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