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निर्मला: एक विवेचन

 

(31 जुलाई, प्रेमचंद जयंती पर विशेष)


प्रेमचंद की उपन्यास यात्रा ‘असरारे मआबिद उर्फ़ देवस्थान रहस्य’ नामक उपन्यास से प्रारंभ होती है। प्रेमचंद का यह उपन्यास प्रथम बार वर्ष 1903 से वर्ष 1905 तक बनारस के साप्ताहिक उर्दू पत्र ‘आवाज़-ए-ख़ल्क़’ में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ था। यह उपन्यास उनके चार प्रारंभिक उपन्यासों के संकलन ‘मंगलाचरण’ में संकलित है। ‘असरारे मआबिद उर्फ़ देवस्थान रहस्य’ उपन्यास मूलतः उर्दू में लिखा गया है। इस उपन्यास के अलावा उनके मंगलाचरण में संकलित तीन अन्य उपन्यासों हमखुर्मा व हमसवाब, प्रेमा और रूठी रानी में से हमखुर्मा व हमसवाब तथा रूठी रानी भी मूलतः उर्दू में ही लिखे गए थे। ‘प्रेमा’ उपन्यास तो वस्तुतः हमखुर्मा व हमसवाब का ही हिंदी रूपांतर है। 

‘असरारे मआबिद’ और ‘हमखुर्मा व हमसवाब’ उपन्यासों के बाद प्रेमचंद के क्रमशः किशना (1907 ई.), रूठी रानी (1907 ई.), वरदान (1912 ई.), सेवासदन (1918 ई.), प्रेमाश्रम (1921 ई.), रंगभूमि (1925 ई.), कायाकल्प (1926 ई.), निर्मला (1925-1926 ई.), प्रतिज्ञा (1927 ई.), गबन (1931 ई.), कर्मभूमि (1932 ई.), गोदान (1936 ई.), और मंगलसूत्र (1948 ई.) उपन्यास प्रकाशित हुए। इस प्रकार प्रेमचंद ने कुल 15 उपन्यास लिखे। इन उपन्यासों में ‘किशना’ एक ऐसा उपन्यास है, जो अभी तक अनुपलब्ध है। ‘मंगलसूत्र’ प्रेमचंद का अपूर्ण उपन्यास है, जो उनकी मृत्यु के ग्यारह वर्षों के पश्चात् 1948 में प्रकाशित हुआ। 

प्रेमचंद के ’निर्मला’ उपन्यास का सर्वप्रथम प्रकाशन ‘चाँद’ पत्रिका में नवंबर 1925 से नवंबर 1926 तक1 धारावाहिक रूप में हुआ था। उर्दू में यह उपन्यास ‘निर्मला’ नाम से ही सन् 1929 में लाहौर से प्रकाशित2 हुआ था। 

वस्तुतः ‘निर्मला’ उपन्यास ‘निर्मला’ नामक नारी पात्र की मार्मिक गाथा है। परिवार की आर्थिक स्थिति अत्यधिक दुर्बल और दयनीय होने के कारण निर्मला की माता कल्याणी उसका विवाह एक अधेड़ पुरुष मुंशी तोताराम से कर देती है। मुंशी तोताराम के पूर्व पत्नी से तीन पुत्र होते हैं—मंसाराम, जियाराम और सियाराम। तोताराम को निर्मला और अपने ही बड़े पुत्र मंसाराम के बीच अनुचित सम्बन्ध होने की शंका होने लगती है। इसी शंका के कारण वे मंसाराम को छात्रावास में भर्ती कर देते हैं। मंसाराम बीमार हो जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। वस्तुतः मंसाराम अपने पिता की संदेह-जनित उपेक्षा और घोर निराशा के कारण मृत्यु का शिकार बनता है। तब दूसरा पुत्र जियाराम भी आत्महत्या कर लेता है और सबसे छोटा सियाराम बाबाओं के झाँसे में आकर घर से भाग जाता है। अंततः निर्मला बीमारी, चिंता और वेदना से घुल-मिलकर प्राण त्याग देती है। इस प्रकार निर्मला उपन्यास ‘निर्मला’ के जीवन संघर्ष की मार्मिक, कारुणिक और वेदनापूर्ण दास्तान है। 

कथाकार प्रेमचंद ने अपने इस उपन्यास में निर्मला के चरित्र के माध्यम से दहेज़ प्रथा और अनमेल विवाह की समस्याओं को उजागर किया है। इस उपन्यास में निर्मला भारतीय समाज की उन पीड़ित युवतियों का प्रतिनिधित्व करती है, जो दहेज़ प्रथा और अनमेल विवाह की शिकार होकर तड़प-तड़पकर मर जाती हैं।3 ‘निर्मला’ की हृदयस्पर्शी और मार्मिक कथा को ध्यान में रखकर ही अपनी ‘कलम का सिपाही’ पुस्तक में अमृतराय लिखते हैंः “इतनी सच्ची, मार्मिक ख़ासकर औरतों के दिल को भाने वाली कहानी मुंशी जी ने दूसरी नहीं लिखी। पढ़ने वाले दहल उठे, रो पड़े। कैसा डरावना आईना उन्होंने समाज के सामने रख दिया था। हर रोज़ तो इतने अनमेल ब्याह होते हैं, पैसे की मजबूरी से जवान लड़की बुड्ढे के गले बाँध दी जाती है, देखो उसका क्या हश्र होता है देखते सब हैं, कहता कोई नहीं। मुंशी जी ने कह दिया, और बहुत डूबकर कहा।”4

निर्मला ही नहीं अपितु कल्याणी, सुधा और रुक्मिणी नारी पात्रों के ज़रिए भी विधवा जीवन की विडंबनाओं का मार्मिक चित्रण इस उपन्यास में हुआ है। इसीलिए तो अमृतराय कहते हैंः “और इसमें शक नहीं कि औरत की ज़िन्दगी का दर्द जिस तरह इस किताब में निचुड़कर आ गया है, वैसा मुंशी जी की और किसी किताब में मुमकिन न हुआ, न आगे न पीछे।”5 इसके अलावा प्रेमचंद के आलोचकों को इस उपन्यास में यथार्थवाद की संपूर्णता दिखाई देती है, तभी तो डॉ. गंगाप्रसाद विमल ‘निर्मला’ को ‘प्रथम पूर्ण यथार्थवादी कृति’6 घोषित करते हैं। 

‘निर्मला’ के पात्रों के चरित्र में भी मानसिक कुंठा, हताशा, दमन, अतृप्त इच्छाओं और कमनाओं का पुंज दिखाई देता है। विशेषकर निर्मला, तोताराम और मंसाराम के चरित्रों में। निर्मला और तोताराम के व्यक्तित्व में मानसिक नपुंसकत्व और यौन-कुंठा के दर्शन होते हैं, जो प्रेमचंद के पूर्व के उपन्यासों में दुर्लभ हैं। मध्यमवर्गीय पात्रों के मनोविज्ञान के साथ-साथ, बाल चरित्रों का बालसुलभ मनोविज्ञान भी इस उपन्यास में दर्शनीय है। शायद इसीलिए आलोचक डॉ. सुरेश सिन्हा ने इसे ‘हिंदी का प्रथम मनोवैज्ञानिक उपन्यास’7 कहा है। कथा शिल्प की दृष्टि से भी डॉ कमलकिशोर गोयनका ने इसे एक श्रेष्ठ उपन्यास8 और डॉ. मोहनलाल रत्नाकर ने प्रेमचंद के सफलतम उपन्यासों में स्थान9 दिया है। निर्मला की एक विशेषता यह भी है कि यह प्रेमचंद का ऐसा पहला उपन्यास है, जिसका अंत दुखांत है। कुल मिलाकर ‘निर्मला’ के सम्बन्ध में डॉ. रामविलास शर्मा का कथन कि ‘निर्मला’ प्रेमचंद के कथा साहित्य के विकास में एक मार्ग-चिह्न है,10 बिल्कुल सटीक बैठता है। 

संदर्भ सूची:

  1. प्रेमचंद के उपन्यासों का शिल्प-विधान, पृ. 67

  2. वही

  3. प्रेमचंद युग का हिंदी उपन्यास, पृ. 46

  4. कलम का सिपाही, पृ. 394

  5. वही, पृ. 94

  6. प्रेमचंद के उपन्यासों का शिल्प-विधान, पृ. 343

  7. वही

  8. वही

  9. प्रेमचंद युग का हिंदी उपन्यास, पृ. 46

  10. प्रेमचंद और उनका युग, पृ. 62

डॉ. पवनेश ठकुराठी, 
लोअर माल रोड, अल्मोड़ा, उत्तराखंड-263601
मो०-9528557051

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