मैं क्या बनूँ...
बाल साहित्य | किशोर साहित्य कविता देऊ जांगिड़1 Jul 2020 (अंक: 159, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
मैं क्या बनूँ....
हर पल यही करूँ विचार
धूप देखूँ तो छाँव बनूँ
प्यासा देखूँ तो पानी
लू देख ठंडी हवा बन जाऊँ
महात्माओं को देख ज्ञानी
मैं क्या बनना चाहती हूँ
है मेरी छोटी सी ज़िंदगानी...!!
बिना भेदभाव जो सबको बचाए,
वो डॉक्टर बनूँ या नर्स बनूँ।
ग़रीबों की आँखों में अश्रु जो देखूँ ,
तो मसीहा के पैसों का पर्स बनूँ।
बेघर लोगों के बच्चे जो देखूँ,
उनकी ख़ुशियों का बन जाऊँ संसार।
मैं क्या बनना चाहती हूँ?
हर पल यही करूँ विचार।
जो वतन के लिए शहीद हो जाए,
बॉर्डर पर खड़ा वो फ़ौजी बनूँ।
जो नादानियों से सबका दिल जीते,
उन बच्चों सा मनमौजी बनूँ।
अपाहिज की रोज़ी-रोटी न बनें जो,
कहते हैं ख़ुद को पढ़े लिखे ज्ञानी।
मैं क्या बनना चाहती हूँ,
क्या होगी मेरी कहानी।
कवि, लेखक, उपन्यासकार बनूँ या,
शब्दों की शोभा बढ़ाये वो अलंकार बनूँ।
जो कठिन से कठिन लक्ष्य भेद लें,
वह अर्जुन का धनुषटंकार बनूँ।
मैं राम, कृष्ण या भीम बनूँ,
या अंजनी पुत्र हनुमान वीर बनूँ।
जो देश के भविष्य का निर्माण करें,
वह सम्मानित गुरुवर बनूँ।
मैं क्या बनूँ.....
मैं क्या बनूँ.....
हर पल यही करूँ विचार।
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