अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मैं साक्षी इस धरती की

सम्भवतः मेरा जन्म तब हुआ था, जब इस भू-मंडल की रचना की गयी थी। तब से लेकर आज तक मैं बालुका बनकर सागर की गोद में लहराती आई हूँ। समय के साथ-साथ हर आती-जाती लहरें मुझे भीगाती आई हैं। इन लहरों से मेरा एक अटूट रिश्ता क़ायम है। मैंने इस अटल अनंत सृष्टि की हर संरचना को ध्यान पूर्वक अपने अंतर्मन में क़ैदकर उसकी चाबी कहीं दूर शून्य के गहरे अंधकार में फेंक दी है। तब से लेकर आज तक युग-युग की हर उस पल का साक्षी बनकर नीरव निश्चल टटोलती आई हूँ। 
 
धरती पर जब-जब एक नया दिन खिला, नया सूरज ने जन्म लिया है तब तब एक नयी अनुभूति, नया ज्ञान, नया संयोग, एक नयापन तथा नए जीवन की रचना होती रही है। बदलते लम्हों के साथ-साथ बदलते हुए नएपन को महसूस किया है मैंने। 
 
सप्तशृंगी गिरिराज हिमालय का जन्म से लेकर मानसरोवर की अगाध गहराई तक, शिवजी के प्रथम सोपान से लेकर आज तक हर सूक्ष्म से सूक्ष्म पहलू मुझसे छुपा नहीं है। जब चाँद अपनी सखियों के संग आकाश में उभर आता है उन सितारों में मैं अपनी पृष्ठभूमि के सौंदर्य को निहारती आई हूँ। उन सितारों में एक सपनों का महल खड़ा देखा है मैंने। शायद उसी को त्रिशंकु कहा जाता है। विश्वामित्र और मेनका के प्यार की नगरी। उस नगर की रचना भी मैंने ही लाखों साल पहले की थी। उनके प्यार की दास्ताँ आज भी मेरे मन के किसी कोने में दफ़न हो कर रह गयी है। 
 
रावण ने जब सीता का अपहरण किया था, तब पंखीराज जटायु ने उनके बचाव में मेरी गोद में शेष साँस छोड़ी थी। सीता मैया को बचाते-बचाते कितने ही दीये मेरे आँखों के सामने बुझ गए, यह मेरे अलावा कौन जान सकता है? हज़ारों बानरों की सहायता से बने उस सेतु के निर्माण की साक्षी भी मैं ही हूँ। निर्माण में मेरा भी योगदान है। उस वक़्त बानरों के उत्साह में मैं भी शामिल थी। पहली बार जब राम जी के पग ने मेरे शरीर को स्पर्श किया था तब समुन्दर में एक कम्पन उठा था, शायद उसी कम्पन से आज तक सागर में विशाल-विशाल लहरें उठती आयीं हैं। 

मैं उस दिन की भी साक्षी हूँ, जब राम जी ने सीता मैया का उद्धार किया था। रावण की क़ैद से मुक्त कर उनकी अग्नि परीक्षा ली गयी थी। मेरा कण-कण चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था कि यह अन्याय है। सीता मैया पर यह शंका . . .? मगर मैं सिर्फ़ देखती रह गयी, क्योंकि सीतामैया ने मुझे कुछ ना बोलने कि क़सम जो दे रखी थी। धिक्कार है मुझे। चुपचाप देखने के अलावा कुछ न कर पाई थी मैं। 

तब से लेकर आज तक हर पल हर क्षण स्त्री, अग्नि परीक्षा देती आई है। मेरी ही आँखों के सामने न जाने कितनी अबला नारियाँ देखते-देखते सागर में एक हो चुकी हैं और कितनी ही मेरी बालुका पर इज़्ज़त गवां चुकी हैं। यह सिर्फ़ मैं ही जानती हूँ, फिर भी मैं चुप हूँ। कभी मुझे दुःख होता है कि काश मैं, मैं नहीं होती और इन सबका ज्ञान मुझे न होता। मैं सिर्फ़ पाषाण बन कर रह गई होती। मगर मैं बालुका हूँ, युगों-युगों से मैंने हज़ारों दुःख देखे हैं। उन्हें देखते हुए मेरे मन ने कभी एक सच्चे युग की कामना की थी। 
 
स्त्री, दुर्गा है और काली भी, धरती जैसी सहनशील भी। जन्म से लेकर मृत्यु तक हर पल कभी बेटी बनकर कभी बहन, कभी बीवी और कभी माँ बनकर सिर्फ़ सेवा करती आई है। फिर भी उस की हर पल अपमान हुआ है। बेबस यह भू-माता ज्वालामुखी को अपने अंदर समेटकर सहती आई है। भूमि के तल तक पहुँचकर मैंने जब देखा उस गहराई में आँसू और ख़ून के अलावा मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दिया। 
 
इस तरह धरती माता बार बार चोट खाकर मूक बन खड़ी है। अगर दिल से उसकी आह निकलती है तो ज़िम्मेदार कौन है? बर्फ़ की चट्टान पिघल कर बूँद-बूँद कर जल राशि का रूप धारण कर सागर की गहराई बढ़ाने लगे तो किस कारण? अनादि से चलती आ रही संस्कृति, परंपरा सब किसके लिए है? इसीलिए न कि मानव जाति का कल्याण हो। आधुनिक परिकरण के विस्तार से लोग साज-सज्जा के शौक़ीन हो कर पेड़-पौधे काटते जा रहे है। रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में ज़रूरत की चीज़ें लोगों के ज़रूरत के साथ बढ़ती जा रही हैं। कहाँ है इसका अंत? कहीं तो रोकना है। मगर कहाँ और रोकेगा कौन? 
 
समग्र जीव-जंतुओं की ज़िन्दगी आज ख़तरे में है। जन जीवन के साथ-साथ मैं भी बेहाल ज़िन्दगी गुजार रही हूँ। आग सुलग रही है बुझाएगा कौन? न जाने कितनी ज़िन्दगी इस आग के लपेटे में आ जाएँगे। 

सहज, सरल जीवन कठिन से बदतर होता जा रहा है। पेड़, पौधे, जानवर, जन जीवन भी ख़तरे में है। रोग नए, पुराने न जाने कितने ही लोगों की जान ले रहे हैं। सँभालना है, मानव को सँभलना है। काश, मानव पहले ही समझ पाता। अब बहुत देर हो चुकी है। समुद्र की लहरें भूमि को निगलती जा रही हैं। मौसम हर साल नया रूप दिखा रहा है। सूरज की रश्मि पर भी काली घटाएँ छा रही है। एक दिन था, जब हवा में सुगंध थी, एक दिन था जब पानी की मिठास से ज़िन्दगी जी उठती थी। एक दिन था, सूरज की पहली किरण जीवन में नए आशाएँ भर ले आती थी। 
 मगर आज डर . . . 
 
डर हर दिल पर छा रहा है न जाने क्यों, कब, क्या हो जाए। भारतवर्ष के इतिहास को सुनहरे अक्षरों में लिखने वाली क़लम की स्याही का रंग आज बदल गया है। आज सिर्फ़ वह ख़ून का रंग लिखता है। रोज़ अख़बार में कुछ नयापन देने की जगह धर्षण, ख़ूनी खेल, दुर्घटना, विध्वंस की ख़बर काले अक्षरों में लिखी जाती है। 
 
यह सब किसके लिए है? 
 
दुर्घटना हत्या, नारी-धर्षण, बच्चों के प्रति राक्षसत्व साथ-साथ प्रकृति के विपरीत प्रतिक्रिया, जन्म ले रहा रोज़ एक वैपरित्य। सादगी, मासूमियत, मुहब्बत, ईमानदारी यह सब मतलब की दुनिया में खोये जा रहे हैं, गाँधीजी के वाक्य बन कर दीवार पर लटक रहे हैं। राजनीति के तख़्त को सँभालने वाले लोग तो कम नहीं हैं मगर लोगों की देश की दुनिया की परवाह करने का समय किसके पास है? 

बाढ़ सूखा कोहराम—

प्रकृति के प्रभाव से बचते कितने हैं? 

एक ज़िन्दगी की एक लाख भरपाई भरते ज़रूर हैं। मगर जान, माल हानि की क्या यही है भरपाई? इन दुविधाओं से उभर आने कि कोशिशें कितनी की गयी हैं? 

सागर जैसी ज़िन्दगी को सँभालते-सँभालते लोग यदि अचानक ग़ायब हो जाते हैं तो ज़िम्मेदार कौन? समाज सरकार प्रकृति या लोग? इस भीषण समस्या का समाधान करेगा कौन? 

क्या एक ख़ुशहाल ज़िन्दगी देख पाएगी धरती? सच्चाई, न्याय और धर्म इन शब्दों का अर्थ दे पाएगा? हवा में ख़ुश्बू, सूरज की किरणों में आशा और विश्वास, चाँद की शीतल छाया फिर से नसीब हो पाएगी? 

आज घृणा, स्वार्थ, ताक़त और पैसों के बल पर चलने वाली यह धरती क्या दे पाएगी एक सौजन्य भरी ज़िन्दगी? नदी नालों में ख़ून की दुर्गंध को उमड़ते बादल दूर ले जाकर फेंक ने में क़ामयाब हो पाएँगे? क्या धूल मिट्टी में फिर वह सुगंध लौट आएगी जो श्याम की गोधूली में रहा करती थी? 

क्या मैं फिर उस धरती को देख पाऊँगी, जो सालों पहले मेरी गोद में खेला करती थी? आज भी में वही बालुका हूँ। विस्तीर्ण समुद्र की गोद में लहराते-लहराते प्रशस्त और सुविशाल ज़रूर बन गयी हूँ न जाने कब तक यह धरती की हर साँस की साक्षी बनी रहूँगी . . . न जाने कब तक . . . वैसे ही चिर, अटल और सीमाहीन, जैसे आज तक सँभालती आई हूँ। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अथ केश अध्यायम्
|

  हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार…

अथ मम व्रत कथा
|

  प्रिय पाठक, आप इस शीर्षक को पढ़कर…

अथ विधुर कथा
|

इस संसार में नारी और नर के बीच पति पत्नी…

अथ-गंधपर्व
|

सनातन हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार इस…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

ललित निबन्ध

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं