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मानवता

रमेश जी ने अपनी मेहनत और लगन से वो मुक़ाम हासिल कर लिया जिसके बहुत सारे लोग कल्पना भी नहीं करते। भौतिक सुख के साथ-साथ शोहरत और नाम भी कमाया। इसी के कारण कुछ समय में उनमें थोड़े अहम् का विकास भी होने लगा। उनके देखा देखी उनके बच्चे भी वैसे ही संस्कार प्राप्त कर रहे थे। रमेश जी की पत्नी इस दिखावे से दूर थी। वो रमेश जी की शून्य से शिखर तक की मेहनत की सहयात्री भी रही थी। फिर भी उसमे अहम् भाव नहीं विकसित हुआ। उल्टा वो रमेश जी और बच्चों को भी वैसे ही सरल स्वभाव में रहने को कहती थी जैसे अभी तक रहते आये हैं। उनकी बढ़ती फ़ुज़ूलख़र्चे को देखकर उन्हें पैसे को संकट के समय पर बचत करने के लिए कहती। उनकी इस सीख से बच्चे झुँझला पड़ते और माँ को आज के ज़माने की ’आउटफिट’ क़रार देते। रमेश जी भी बच्चों की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहते कल का क्या सोचना आज तो मौज में रहो। 

अब एक घर में रहते हुए भी घर के सदस्य दो भिन्न विचारधारा में बँट गए। रमेश जी और बच्चों ने अपना उठना-बैठना सिर्फ़ ऊँचे लोगों तक ही सीमित कर लिया। ग़रीब, कम पढ़े-लिखे लोगों को अब वो सिर्फ़ हिकारत की नज़र से देखते थे। उनकी पत्नी को ये देखकर बहुत दुःख होता। किन्तु वो जानती थी उनका समझाना अब व्यर्थ है। अब इनकी आँखों पर दौलत की पट्टी लग गयी थी। जिसके परे इन्हें और कुछ दिखाई ही नहीं देता। 

पत्नी का व्यवहार वैसे ही रहा जैसे पहले था। वो अब भी ग़रीब और बेसहारा लोगों से मिलती-जुलती, उन्हेंं हर संभव मदद की कोशिश करती। उन्हीं के घर के सामने एक ग़रीब अपनी पत्नी और एक बच्चे के साथ एक झोपड़ी में रहता था। रमेश जी पत्नी उन्हें बहुत आदर-भाव और स्नेह से भोजन और कुछ न कुछ मदद करती रहती थी। बदले में वो उनके घर का काम कर जाते और उनके घर की देखभाल करते। रमेश जी को पसंद नहीं आता था उनकी पत्नी का ऐसे ग़रीबों में उठना-बैठना। वो कहते ऐसे ग़रीब लोग चोर-उच्चके होते हैं उनको ऐसे घर में मत घुसने दिया करो। घर का भेद जान कर चोरी कर लेते हैं। लेकिन उनकी पत्नी उन्हेंं बताती आदमी ग़रीब होने से चोर नहीं हो जाता। ग़रीब या अमीर होना सबकी क़िस्मत का खेल है। 

समय का फेर बदला। 

देश में कोरोना महामारी का प्रकोप फैला। रमेश जी को ये संक्रमण उनके विदेश से आये एक मित्र से मिला। उसी के चपेट में उनकी पत्नी के साथ-साथ उनके दोनों बच्चे भी आ गए। लाख कोशिश की लेकिन रमेश जी और उनकी पत्नी को बचाया नहीं जा सका। उनके बच्चे फिर भी थोड़े दिन में ठीक हो गए। लेकिन अब उनकी दुनिया बदल चुकी थी। माता-पिता का साया उठ चुका था। पिता ने जो कमाया था वो कुछ दिन उनके शौक़ पूरा करने में ख़र्च हो चुके थे। अब उनके सामने वही यथार्थ मुँह खोले खड़ा था। अमीर से ग़रीब होते ही मित्र-सगे-सम्बन्धियों ने नाता तोड़ दिया। कुछ दिनों में घर में खाने के लाले पड़ने लगे। लेकिन शर्म में वो किसी से कुछ कह नहीं पा रहे थे। ऊपर से देशबंदी ने और हाथ बाँध दिये। कुछ एक दो मित्रों से मदद के लिए कहा भी तो देशबंदी की मजबूरी का हवाला देकर मना कर दिया। 

एक बार आधी रात को उनके घर में कुछ चोरों ने धावा बोल दिया। चोरों को पता था माँ-बाप के जाने के बाद सिर्फ़ बच्चे अकेले ही हैं। माँ-बाप ने तो धन छोड़ कर गए होंगे। चोरों ने दोनों बच्चों को बाँध दिया और धन देने की धमकी देने लगे। अगर धन नहीं दिया तो जान से मार देंगे। बच्चे घबरा गए। समझ नहीं आ रहा था क्या करें? 

तभी उनके पड़ोस के उसी झोपड़ी वाले घर के अंदर से आती हुई हल्की आवाज़ों से पहचान गए; कुछ तो गड़बड़ है। वह बिना अपनी जान की परवाह किये घर में आये, और चोरों से भिड़ गए। चोरों को सिर्फ़ घर में बच्चों के होने की ख़बर थी। इस तरह और लोगों के आने का आभास नहीं था। वो डर कर भाग गए। उनके जाने के बाद उन लोगों ने घर की स्थिति देखी, बिना कुछ कहे चले गए। 

दूसरे दिन झोपड़ी से खाना बनाकर वो लोग उनके घर की डोर बेल बजा कर खाना दहलीज़ पर रख आये। अब उनका यही क्रम बन गया। रोज़ रात को उनके घर के गेट के सामने चारपाई डाल कर सोते। और सुबह शाम का खाना बना कर उनकी दहलीज़ पर रख आते। 

आज बच्चों को आभास हुआ पिता की कमाई क्षणिक थी। वहीं उनकी माँ के जाने के बाद भी उसके कर्मों से कमा कर जमा की कमाई आज 
बच्चों के जीवन की रक्षा कर रही थी। धन्य है वो माँ! दौलत से आज फिर मानवता जीत रही थी। 

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