अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मर्यादावाद बनाम फक्कड़पन

 

कार्तिक मोहन डोगरा और पूजा (लेखक द्वय)

भारत में राजनीति से लेकर संस्कृति, सभ्यता, समाज पर जितने गहन चिंतन होते हैं वह सब ज़्यादातर चाय की टपरी के ऊपर किए जाते हैं। यह वहीं का वाक्य है कि एक सज्जन आए और उन्होंने चार पाँच विद्वानों के बीच एक सवाल छोड़ दिया कि आर्य भारत के मूल निवासी हैं या कहीं बाहर से आए? मेरी दो कप चाय इस बहस के किसी निष्कर्ष तक पहुँचने में समाप्त हो गई। एक सज्जन इस बहस को हिंदी आलोचना तक लड़खड़ाते घसीट ही ले आए और बात इतनी गर्म हो गई कि वहाँँ दो गुट बन गए एक आचार्य रामचंद्र शुक्ल का और दूजा हजारी प्रसाद द्विवेदी का परन्तु चाय ख़त्म होते ही सब अपने रास्ते निकल गए पर तीसरी चाय ख़त्म होते-होते मुझे इस लेख के लिखने का विचार आ गया है। इस लेख में हम दोनों ऊपर उद्धृत आलोचक में तुलनात्मक अध्ययन करने का प्रयास करेंगे और मर्यादावाद बनाम फक्कड़पन, (जो वहाँ बैठे सज्जन ने वार्तालाप में इस्तेमाल किया था) की गुत्थी सुलझाने का प्रयास भी करते नज़र आएँगे।

लेख आरंभ होने से पूर्व कुछ बातें कहना उचित समझता हूँ।

इस लेख कि शुरूआत पढ़कर किसी को पूर्वाग्रह बन सकता है कि यह आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की तरफ़ झुका हुआ है। परन्तु मैं पूर्ण प्रयास करूँगा कि संतुलन क़ायम करने में अवश्य सफल हो जाऊँ।

दूसरा, सिद्धांतों और उनके निरूपण के कारणों पर चर्चा अधिक होगी और इन दोनों आलोचकों की तुलना करने का प्रयास होगा।

तीसरा, मैंने जिन पुस्तकों का चयन किया है उसमें दो बातों का ध्यान रखा है इनकी आलोचना के विभिन्न पक्ष समझे जा सकें। दूसरा जो लेखक है वह लोगों के मध्य सामाजिक और स्वीकृत हो और दोनों आलोचकों के मूल रचनाओं को भी देखने का प्रयास अवश्य किया है। और इन आलोचकों के बारे में पढ़ने के लिए सागर में से मटका भर पानी ही लिया गया है।

चौथी, इस लेख के सम्बन्ध में यह है कि इस लेख में जिस पद्धति का प्रयोग किया गया है वह इस प्रकार है—आचार्य शुक्ल के आलोचना सिद्धांत फिर हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना सिद्धांत अंत में तुलना परन्तु यह कोई स्थायी व्यवस्था नहीं है, लेखन प्रक्रिया के वक़्त शायद कई बार साथ के साथ तुलना भी की जा सकती हैं परन्तु उस बात को निष्कर्ष में दोहराया जाएगा अगर वह कोई मुख्य बिंदु होगा तो।

अंतिम बात कि इस लेख में जगह-जगह हजारी प्रसाद द्विवेदी के लेखन शैली की छाप मिल सकती है परन्तु मुझे उनकी लेखन शैली में उनकी तरफ़ एक प्रतिशत भी आकर्षित नहीं किया है। मैं दोनों आलोचकों से समान दूरी पर खड़ा हूँ। हम लोग लेख की तरफ़ प्रस्थान कर सकते हैं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का नाम आते ही मुझे तो एक वाक्य याद आ जाता है कि हमारे गुरुजी रस सिद्धांत पढ़ा रहे थे और उन्होंने आचार्य रामचंद्र शुक्ल की एक पंक्ति हमको देकर उसकी व्याख्या पूछी तो हम सब लड़खड़ाते हुए किसी गड्ढे में गिर गए थे। अपने स्नातक के दिनों में तो किस को मालूम था कि आज उस पंक्ति का इस्तेमाल करके शुक्ल जी के आलोचना सिद्धांतों तक पहुँचने की यात्रा तय होगी।

“साधारणीकरण आलंबन धर्म का होता है।”

ऊपर उद्धृत पंक्ति का अर्थ है कि जो मुख्य किरदार होता है राम आदि उनके गुणों का साधारणीकरण होता है। जो व्यक्ति इस विषय से अपरिचित हैं उनके लिए इस बात को संक्षेप में समझा दूँ कि भरतमुनि के रस सूत्र की व्याख्या करते हुए अभिनव गुप्त के द्वारा साधारणीकरण का सिद्धांत निरूपित हुआ तो उसकी व्याख्या शुक्ल जी ने रस मीमांसा पुस्तक में की है जिसमें इस बात को स्पष्ट किया है कि दर्शक, अभिनेता में रस का साधारणीकरण नहीं होता बल्कि जो आलंबन धर्म होता है उस धर्म का होता है।1

परन्तु सवाल यह है कि यह बात उनके सिद्धांतों के बारे में बताती क्या है?

इसका जवाब शायद उनके ‘कैनन20 (canon)’ निर्माण की प्रक्रिया में समझ में आता है। जायसी, सूर और तुलसी में से तुलसी का चयन करते हैं और करुणा के आधार पर तुलसी को बड़ा कवि स्थापित करते हैं। जिसके चलते यह बात समझ में आती है कि तुलसी के राम मर्यादा के बंधन में बँधे हुए तो उनके मर्यादा गुण का साधारणीकरण होता है। इस बात को जगह जगह रेखांकित किया गया है। आचार्य शुक्ल मर्यादा वाले पक्ष को अपनी पुस्तक गोस्वामी तुलसीदास के अध्याय लोक नीति और मर्यादावाद में भी कहते नज़र आते हैं।

“यदि उच्च वर्ग का कोई मनुष्य अपने धर्म से च्युत है, तो उसकी विगर्हणा , उसके शासन और उसके सुधार का भार राज्य के या उसके वर्ग के ऊपर है, निम्न वर्ग के लोगों पर नहीं। अतः लोक मर्यादा की दृष्टि से निम्न वर्ग के लोगों का धर्म यही है कि उस पर श्रद्धा का भाव रखें, न रख सकें तो कम से कम प्रकट करते रहें।”2

“जब तक उच्च श्रेणियों के कर्त्तव्य की कठिनता प्रत्यक्ष रहेगी कठिनता के साक्षात्कार के अवसर आते रहेंगे, तब तक नीची श्रेणियों में ईर्ष्या-द्वेष का भाव नहीं जागृत हो सकता जब तक वे क्षत्रियों को अपने चारों ओर धन-जन की रक्षा में तत्पर देखेंगे, ब्राह्मणों को ज्ञान की रक्षा और वृद्धि में सब कुछ त्यागकर लगे हुए पायेंगे, तब तक वे अपना सब कुछ उन्हीं की बदौलत समझेंगे और उनके प्रति उनमें कृतज्ञता, श्रद्धा और मान का भाव बना रहेगा। जब कर्त्तव्य भाग शिथिल पड़ेगा और अधिकार-भाग ज्यों का त्यों रहेगा, तब स्थिति विधातिनी विषमता उत्पन्न होगी। ऊँची श्रेणियों के अधिकार प्रयोग में ही प्रवृत्त होने से नीची श्रेणियों को क्रमशः जीवन निर्वाह में कठिनता दिखाई देगी। वर्ण-व्यवस्था की छोटाई, बढ़ाई का यह अभिप्राय नहीं था कि छोटी श्रेणी के लोग दुःख में हीं समय काटें और जीवन के सारें सुभीत बड़ी श्रेणी के लोगों को ही रहें।”3

इन दो उद्धरणों से एक बात तो स्पष्ट होती है कि आचार्य शुक्ल को वह पुरानी वर्णाश्रम सामंती सभ्यता पसंद थी। इसी के चलते उनको कई बार ब्राह्मणवाद सामंतवाद के समर्थक में भी देखा जाता है। परन्तु उसकी चर्चा बाद में करेंगे। फ़िलहाल डॉ. मृत्युंजय की पुस्तक से तुलसी उनकी ‘कैनन’ के मुख्य बिंदु हैं। ऐसा क्यों देख लेते हैं: “तुलसीदास आचार्य शुक्ल के प्रिय कवि हैं। जिन कारणों से तुलसी को आचार्य शुक्ल बड़ा कवि मानते हैं, उनमें पहला है लोकरक्षण की भावना अपने रचनाकर्म में शुक्ल जी इस बात पर सदैव दृढ़ रहे कि श्रेष्ठ कविता जीवन के प्रयत्न पक्ष से पाठक को जोड़ती है। अपने प्रसिद्ध निबंध कविता क्या है, जिसको वे 1909 से लेकर 1929 तक लगातार परिवर्तित व परिवर्धित करते रहे, इसमें वे कविता को मनुष्य के हृदय को स्वार्थ संबंधों के संकुचित दायरे से बाहर कर लोक सामान्य की भावभूमि पर ले जाने वाली बताते हैं। उनके मुताबिक़ इसी भावप्रसार द्वारा कविता कर्मण्यता के क्षेत्र का विस्तार करती है। ऐसे में वह लोक के दुखों में दुख मानता है और लोक के सुख में सुख। पर इसमें भी शुक्ल जी कविता द्वारा जगाए गए कर्मण्यता के में उस क्षेत्र को वरेण्य मानते हैं जो अन्याय के दमन और प्रतिरोध के लिए उठ खड़ा होता है, भले ही वह सफल हो, न हो। वे अपने दोनों महत्त्वपूर्ण निबंधों ‘काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था’ और ‘आनंद को सिद्धावस्था’ में काव्य के उत्कर्ष के विषय में टॉल्सटॉय और रवींद्रनाथ टैगोर से बहस करते हैं और उनकी करुणा को कलावाद, रहस्यवाद और ईसाइयत से जोड़ते हैं। वे लिखते हैं, “काव्य का उत्कर्ष केवल प्रेमभाव को कोमल व्यंजना में ही नहीं माना जा सकता जैसा कि टॉल्सटॉय के अनुयायी या कुछ कलावादी कहते हैं। क्रोध आदि उम्र और प्रचंड भावों के विधान में भी, यदि उनकी तह में करुण भाव अव्यक्त रूप से स्थित हो पूर्ण सौंदर्य का साक्षात्कार होता है। और रवींद्रनाथ को उद्धृत करते हुए यह भी कि “श्रीयुत रवींद्र के उपर्युक्त दोनों कथनों को मिलाकर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका लक्ष्य आनंद की सिद्धावस्था या उपभोग पक्ष को परिभाषित करने वाली काव्यभूमि की ओर है। यह कहा जा चुका है कि इस भूमि में शोभा, दीपित, प्रार्य, प्रफुल्लता, कोमलता इत्यादि द्वारा रंजन की योजना की जाती है . . . विभाव पक्ष में मैं शोभन और दीप्ति को चुनकर उनको असामान्य योजना द्वारा अद्भुत रंजन की सामग्री तैयार करना तथा भाव पक्ष में अनुभूति और व्यंजना का वैचित्र्य प्रदर्शित करना काव्य में कलावाद के नए और पुराने अनुयायियों का लक्ष्य रहा है।4

आचार्य शुक्ल मुस्लिम लेखकों में से सिर्फ़ जायसी को पसंद करते हैं क्योंकि वह नागमती का विरह कहते-कहते उसको लोक नारी बना देते हैं। इस बात के शुक्ल जी क़ायल है। साथ ही जायसी हिंदू कहानी को सूफी ढंग से कह रहे हैं और उनका सपना आदर्श है। परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि जायसी और सूर का आदर्श तुलसी की मर्यादा या आदर्श के आगे घुटने टेक देता है। आचार्य शुक्ल के प्रिय कवि तुलसी और उनकी मर्यादा बनती है।

ऊपर की गई बातचीत के आधार पर दो प्रश्न उठते हैं। सर्वप्रथम तुलसीदास ही क्यों? और भक्ति काल ही क्यों? दूसरा आचार्य शुक्ल मर्यादाओं को इतना महत्त्व क्यों देते हैं?

तो इन 2 प्रश्नों का उत्तर उनके समय में छुपा है तो इसका जवाब एक एक करके तलाशते हैं।

रीतिकाल और आदिकाल नहीं बल्कि भक्ति काल ही क्यों?

इसका जवाब है कि आचार्य एक स्वर्ण युग की तलाश की खोज में थे या यूँ कहें कि उनके वक़्त में हर कोई नवजागरण में ब्रिटिश को यह स्थापित करने की ज़रूरत में थे कि हम इतिहास में महान थे और आज भी हो सकते हैं। उसके लिए आपको एक सुदूर अतीत के अँधेरे का युग स्थापित करना होगा तो इसीलिए रीतिकाल को ख़ारिज करके भक्ति काल को चुना गया क्योंकि रीतिकाल निकट अतीत है, जो ख़राब है। यह कहना बेहतर होगा कि हम यूरोप के चश्मे से भारत को देख रहे थे और आदिकाल इन दो आधारों पर ख़ारिज हुआ कि आप यहाँ विचारों से लड़ रहे हैं। आपको तलवारों या वीरता की ज़रूरत नहीं है विचारों की ज़रूरत है जो कि भक्ति काल में अधिक उपलब्ध था। वह बिलास जो रीतिकाल में है वह आदिकाल में भी मौजूद है इसीलिए जनता का साहित्य या लोक का साहित्य ही आवश्यक है।

इसी प्रश्न का दूसरा हिस्सा की तुलसी ही क्यूँ? तो उसके कुछ कारण ऊपर उद्धृत हो चुके हैं। अन्य कारण जो मुझको समझ आता है वह यह है कि आचार्य अपने से पूर्व तुलसी पर लिखी आलोचनाओं का उत्तर दे रहे हैं क्योंकि वह परंपरा मुक्त नहीं है। उनसे पूर्व औपनिवेशिक आलोचना और हिंदी नवरत्न जैसी पुस्तक उपस्थित है। हिंदी नवरत्न और उसका शुक्ल जी पर प्रभाव प्रोफ़ेसर गोपाल जी प्रधान ने अपनी पुस्तक हिंदी नवरत्न में बख़ूबी दर्ज किया है जो इस प्रकार है, “तुलसीदास की भूमिका के प्रश्न पर भी दोनों आलोचक सहमत हैं। जहाँ मिश्रबंधु यह मानते हैं कि शैव, वैष्णव और शाक्त एक दूसरे को बुरा कहने लगे, यहाँ तक कि बिना एक दूसरे के मतों को गाली दिए बहुत से शैवों, शाकों और वैष्णवों का चित्त ही प्रसन्न नहीं होता था . . . आपने (तुलसीदास ने शोधकर्ता) हिंदू मुसलमानों के मढ़ों में ऐक्य उत्पन्न करने का विचार छोड़कर केवल हिंदुओं की तब शाखाओं के एकीकरण का प्रयत्न किया। वहीं शुक्ल जी कहते हैं कि सामंजस्य का भाव लेकर गोस्वामी तुलसीदास की आत्मा ने उस समय भारतीय जनमानस के बीच अपनी ज्योति जगाई जिस समय नए-नए संप्रदायों को खींचतान के कारण आर्य धर्म का व्यापक स्वरूप आँखों से ओझल हो रहा था और एकांगदर्शिता बढ़ रही थी।”

तुलसीदास की भक्ति के स्वरूप पर भी दोनों समालोचक एकमत हैं। मिश्रबंधुओं का कहना है कि ‘ये विचार निर्गुणोपासना के कर्ता तार्किक रूप से शुद्ध होने पर भी मनुष्य की मानसिक निर्बलता के कारण उसे पसंद कम आते हैं। साधारण जनता उनसे लाभ उठाने में नितांत असमर्थ रहेगी क्योंकि उसे केवल तर्कशुद्धता की नहीं, वरन्‌ प्रेम करवाने और गजग्राह की पुकार सुनने वाले ईश्वर की भी आवश्यकता पड़ेगा। शुक्ल जी कहते हैं कि ईश्वर बिना पैर के चल सकता है, बिना हाथ के मार सकता है और सहारा दे सकता है। इतना और जोड़ने से भी मनुष्य की पालना को पूरा आधार नहीं मिल सकता यह भगवान मनुष्य के पैरों से दीन दुखियों की पुकार पर दौड़कर आते दिखाई दे . . . तभी मनुष्य के भावों की पूर्ण सृष्टि हो सकती है और लोकधर्म का स्वरूप प्रत्यक्ष हो सकता है। किसी व्यवस्थित सामाजिक दृष्टि के अभाव में मिश्रबंधु तुलसी की भक्ति का कथन मात्र करके रुक जाते हैं जबकि आचार्य शुक्ल रामचरितमानस में ऐसे विशद और व्यापक लोकधर्म का दर्शन कराते हैं कि तुलसीदास लोकसंग्रह की वृत्ति से युक्त एक महान जनकवि के रूप में प्रत्यक्ष होते हैं।

दोनों ही आलोचक ‘रामचरितमानस’ को तुलसीदास का सर्वोत्तम ग्रंथ मानते हैं। दोनों ही चरित्र चित्रण की कसौटी पर इस काव्य के चरित्रों की परीक्षा करते हैं। चरित्र चित्रण के मामले में तुलसीदास के सामर्थ्य की प्रशंसा करते हुए मिश्रबंधु का कहना है, “गोस्वामी जी ने अपने नायक तथा उपनायकों का शील-गुण आद्योपांत एकरस निर्वाह दिया है। शील का कथन करने में इन महाकवि ने पूरा ध्यान दिया है और इसमें उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई है।” तुलसीदास की इस प्रशंसा को चंद्रशेखर वाजपेयी के प्रबंध काव्य ‘हम्मीर हठ’ की प्रायः दस वर्ष पहले लिखी आलोचना के साथ रखकर देखें, ये इस ग्रंथ के पात्रों के शील गुण (कैरेक्टर) को भली-भाँति निर्वाहने में कृतकार्य नहीं हुए हैं। सच तो यों है कि सिवाय हम्मीरदेव के और किसी को ग्रंथ का पात्र कहना ही नहीं फबता है और हम्मीरदेव के भी शीलगुण को यह आद्योपांत एकरस नहीं उतार सके हैं। तो तुलसीदास की सामर्थ्य और अधिक उद्भासित हो उठतीं है।”5

अंश मात्र ऐसे कई उदाहरण प्रोफ़ेसर प्रधान ने प्रस्तुत किए हैं। तुलसी सूर के संदर्भ में पूर्व सिर्फ़ ट्रेलर है मूवी उनकी पुस्तक में देखी जा सकती है।

अब तीसरा प्रश्न यह है कि मर्यादा ही क्यों? इसका जवाब भी उनके समय में छुपा है। इस वक़्त नॉन कोऑपरेशन आंदोलन का वक़्त है और ब्रिटिश और उसकी तरफ़ उनका झुकाव देखा जा सकता है। इसके लिए उनके 2 लेखों को अध्ययन में रखना आवश्यक है। पहला भारत को क्या करना चाहिए और दूसरा असहयोग और व्यापारिक श्रेणियाँ दूसरे लेख से तो साफ़ तौर से यह समझा जा सकता है, क्या आचार्य शुक्ल इस बात को समझ रहे थे कि इस पूरे विचार से शायद हमारी व्यवस्था चरमरा जाएगी और हम गिर जाएँगे गाँधी को ब्रिटिशर्स से लड़ने के लिए और अच्छे विचार सिद्धांतों की ज़रूरत है। अव्यापारिक श्रेणियों को ज़मींदारों का साथ देना होगा क्योंकि ब्रिटिशर्स के आने के बाद और गाँधी के विचारों के आधार से हमारी पुरानी व्यवस्था टूटती आचार्य को नज़र आ रही थी। पहले लेख भारत को क्या करना चाहिए को हमें बलिया वाले भाषण जो भारतेंदु ने दिया था उस से मिलाना होगा और हम यह पाते हैं कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल उस लेख में जो 3 मेंढक का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है, उसको बदलकर नीचे के दो मेंढकों को एक कर देते हैं क्योंकि उनके वक़्त में सबसे बड़े मेंढक साम्राज्यवाद से लड़ना ज़्यादा ज़रूरी है। नीचे में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के लेख में से कुछ हिस्सा उद्धृत कर रहा हूँ:

“दरअसल, हमें समाज सुधारक, राजनीतिज्ञ, आंदोलनकर्ता, कवि और शिक्षाविद-सबकी एक ही साथ, एक ही समय में ज़रूरत है। महत्त्व के लिहाज़ से जिस चीज़ पर हमें सबसे पहले ध्यान देना चाहिए, वह है सामाजिक बुराइयों को दूर करने का काम।”6

अब हम देखें, यहाँ पर आचार्य शुक्ल मर्यादा को सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए महत्त्वपूर्ण मानते हैं यह बात ऊपर उनकी गोस्वामी तुलसीदास पुस्तक के उद्धरण में भी महसूस होती है। अब तक हुई बातचीत के आधार पर यह कहा जा सकता है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल के सिद्धांत में साम्राज्यवाद विरोध मुख्य बिंदु है परन्तु कुछ आलोचक उनको सामंत विरोधी मानते हैं और कुछ सामंतवादी परन्तु इस सिलसिले में एक सिरे पर खड़े होने की आवश्यकता नहीं है।

इस पूरी बहस को एक नया मोड़ चिंतामणि भाग 4 के प्रकाशन ने दिया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल सामंतवादी हैं परन्तु मेरी समझ में वह ब्राह्मणवादी नहीं उनके सामने शुद्र का शोषण नहीं है। इस कथन का भी विवेचन कर लेते हैं। पहला उदाहरण हम ऊपर पेश कर चुके हैं गोस्वामी तुलसीदास पुस्तक से, जहाँ वह व्यवस्था चाहते हैं परन्तु निम्न जाति के हृदय में कोई द्वेष नहीं और इसका द्वेष का कारण शायद शोषण ही होता है। वह यहाँ तक कह देते हैं कि सिर्फ़ सब दुख शूद्र ही उठाएँ वह समाज ना आदर्श से भरा हुआ है, ना मर्यादा से भरा हुआ है।

दूसरा उनका एक लेख ‘जाति व्यवस्था’ है जिसमें यह कहते हैं:

इस निबन्ध में शुक्ल जी ने सबसे पहले जाति सम्बन्धी शुद्ध रक्त की धारणा का खण्डन किया है। उन्होंने लिखा है कि “भारतीय रक्त शक, ग्रीक, यूची, हुण, मंगोल, आर्य और द्रविड़ रक्तों का मिश्रण है।” आचार्य शुक्ल ने जाति-व्यवस्था की कठोरता और ब्राह्मणवाद की अमानवीयता की कड़ी आलोचना करते हुए कहा है कि “इसने (जाति-व्यवस्था ने) स्तरबद्ध वर्गों और सोपानिक श्रेणियों में मनुष्य का कठोर अनम्य विभाजन कर दिया है, तानाशाह फिर भी दैवीय कहे जाने वाले ब्राह्मण अन्य सभी को हेय दृष्टि से देखते हैं।”7

इसी के साथ उनका अनुवाद साहित्य में से विश्व प्रपंच जैसी पुस्तक को पढ़ना भी आवश्यक है। जहाँ पर अपने समाज में बड़ी पुस्तक इसलिए हुई क्योंकि वह अपनी वक़्त के धर्म पर आलोचना है और शुक्ल जी की धर्म संबंधी मान्यताओं को शायद उस पुस्तक से समझा जा सकता है। हैकल की पुस्तक का अनुवाद ही क्यों इसका जवाब मैनेजर पांडेय इस प्रकार से देते हैं:

“आज विश्व प्रपंच को याद करते समय यह सवाल भी सामने जाता है कि रामचन्द्र शुक्ल ने हैकल की पुस्तक का अनुवाद क्यों किया? जॉन मुहम्मद ने ठीक ही कहा है कि साम्राज्यवाद के भौतिक और वैचारिक व्यवहारों के बीच गहरा प्रतीकात्मक सम्बन्ध होता है। भारत में अंग्रेज़ी राज की स्थापना और प्रसार के साथ ही उपनिवेशवाद ने भारतीयों की चित विजय या दिमाग़ी ग़ुलामी का जो अभियान आरम्भ किया था उसका पहला क़दम भारतीय साहित्य का अनुवाद करना। अँग्रेज़ बुद्धिजीवियों ने क़ानून, दर्शन, इतिहास और साहित्य के अनुवाद और व्याख्या का बड़े स्तर पर प्रयोग किया था। ये अनुवाद के माध्यम से भारत के आत्मीय और जगतबोध को उनकी अभिव्यक्ति के विभिन्न रूपों और रचनाओं को अपनी दृष्टि भावना तथा समझ के अनुकूल बना रहे थे। इस तरह एक औपनिवेशिक विमर्श का निर्माण हो रहा था जो उपनिवेशवाद द्वारा भारत के आत्मसातीकरण का प्रमुख साधन था। उपनिवेशवादियों ने अनुवाद के माध्यम से भारतीय समाज के चिन्तन और लेखन की जो पुनः प्रस्तुति की उसमें उनकी अपनी विचारधारा और राजनीति भी निहित थी। विलियम जोन्स भारतीय साहित्य के पहले और सबसे प्रमुख अनुवादक थे। उनके अनुवाद सम्बन्धी आग्रहों के बारे में तेजस्विनी निरंजना ने लिखा है कि विलियम जोन्स के अनुसार भारतीय अपने क़ानून और संस्कृति की विश्वसनीय व्याख्या नहीं कर सकते। वे स्वयं को भारतीय क़ानूनों का निर्माता सिद्ध करना चाहते थे। साथ ही ये भारतीय संस्कृति के प्रवक़्ता भी बनना चाहते थे। विलियम जोन्स ने अँग्रेज़ प्रशासकों को भारतीय समाज और साहित्य का ज्ञान कराने के लिए ही अनुवाद किया था। उन्होंने अपने फ़ारसी व्याकरण की भूमिका में लिखा था कि इससे हमारे ज्ञान का जितना विस्तार होगा उतना ही साम्राज्य का भी। तात्पर्य यह कि विलियम जोन्स और अन्य भारतविदों ने भारत पर शासन के लिए भारतीय साहित्य का अनुवाद किया था। किसी ने ठीक ही लिखा है कि विलियम जोन्स ने सांस्कृतिक साधनों से औपनिवेशिक शासन के विस्तार का काम किया।”8

इस पुस्तक का अनुवाद साम्राज्यवाद के घेरे को तोड़ने के लिए किया था परन्तु साथ में यह भी हुआ कि आचार्य शुक्ल ने अपने सिद्धांतों में विकासवाद को शामिल कर लिया। विकासवाद और शुक्ल जी पर चर्चा किसी और लेख में करेंगे क्योंकि यह एक विषय अंतर हो जाएगा।

तो आचार्य शुक्ल का सामंतवाद होना या नहीं होना या अधूरा या नए क़िस्म का होना एक अंतर्द्वंद्व है जो हर मनुष्य के मन में मौजूद होते हैं परन्तु इस सब में मुझे बस प्रसाद जी की कामायनी याद आई कि कैसे प्रसाद अपने सामंती बोध में फँसे हुए हैं शुक्ल जी भी इसका ही शिकार है। उस व्यवस्था से मुक्त होने की कोशिश भी है और उस व्यवस्था को छोड़ भी ना पाने का द्वंद्व भी खड़ा है।

उनके अंतिम दो मुख्य सिद्धांत है लोकमंगल की साधना व्यवस्था और रहस्यवाद। रहस्यवाद पर चर्चा कर लेते हैं मैनेजर पांडेय अपनी पुस्तक इतिहास व दृष्टि में बात कुछ इस तरह समझाते हैं कि “आचार्य शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में और अन्यत्र भी साहित्य में रहस्यवाद और आध्यात्मिकता के प्रचार प्रसार का डटकर विरोध किया है। उनके इस विरोध का ऐतिहासिक महत्त्व है। रहस्यवाद और आध्यात्मिकता का विरोध करते हुए उन्होंने साहित्य में अबुद्धिवाद और जीवन के यथार्थ से भागकर कल्पना लोक में विचरण को प्रवृत्ति का भी विरोध किया है। आचार्य शुक्ल के काल में छायावाद में रहस्यवाद था। यही नहीं उस समय मेघदूत, गीत गोविंद, विद्यापति पदावली और यहाँ तक कि बिहारी सतसई की आध्यात्मिक व्याख्याएँ हो रही थी। रचना और आलोचना में रहस्यवाद और आध्यात्मिकता के बढ़ते हुए प्रभाव को आचार्य शुक्ल ने हिंदी साहित्य के स्वाभाविक विकास के लिए बाधक माना और उसके खंडन को अपना ऐतिहासिक दायित्व समझा रहस्यवाद से मुक्त यथार्थवादी रचनाशीलता और आध्यात्मिकता से मुक्त वस्तुवादी आलोचना के विकास में आचार्य शुक्ल के रहस्यवाद विरोधी और आध्यात्मिकता विरोधी अभियान का बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान है।”9

छायावाद में रहस्यवाद को शुक्ल जी अपने समय में बुरा तो माना है और इसको अभारतीय भी माना है। छायावाद कवियों ने इसको भारतीय सिद्ध कर दिया इसीलिए आदिकाल के नाथ और सिद्ध साहित्य को साहित्य मानने से मना किया।

दूसरा इनका यह विरोध नवजागरण के कारण है। नामवर जी अपने एक लेख में यह बात कहते हैं, “इसी प्रकार जिस रहस्यवाद को हिंदी नवजागरण पर बंगाल के प्रभाव के रूप में निरूपित किया जाता है वह भी एक तरह से समूचे भारतीय नवजागारण का अभिन्न अंग है। यह रहस्यवाद उस नववेदांत की देन है जिसका एक रूप रवींद्रनाथ में विकसित हुआ तो दूसरा रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद में। हिंदी के प्रमुख छायावादी कवियों में कितनों ने रवींद्रनाथ से रहस्यवाद ग्रहण किया, इस विषय में संदेह भले ही हो पर इसमें संदेह की गुंजाइश कम ही है कि निराला के रहस्यवाद का आधार विवेकानंद का नववेदांत था और प्रसाद के रहस्यवाद का आधार शैवागम। यह सच है कि यह नववेदांत हिंदी में उसी तरह बंगाल से आया जैसे हिंदी नवजागरण में और भी बहुत-सी बातें बंगाल से आई। किन्तु इस नववेदांत के सहारे निराला और प्रसाद ने जिस प्रकार सामंत-विरोधी और साम्राज्य-विरोधी संघर्ष का साहित्य रचा वह रहस्यवाद-विरोधी बौद्धिकता द्वारा रचे हुए साहित्य से घटकर है, ऐसा कहने का साहस कम ही लोग करेंगे।”10

तो आचार्य शुक्ल का रहस्यवाद विरोध उनकी आलोचना दृष्टि और समाज को समझने का आधार है। उनके अंतिम सिद्धांत लोकमंगल साधनावस्था एवं लोकमंगल की सिद्धावस्था। दोनों एकदम सरल है। एक उस समाज की कल्पना है जो ख़ुशहाल है जो सूर का साहित्य समाज है। वह लोक मंगल की सिद्ध व्यवस्था है। साधना व्यवस्था तुलसी के वक़्त का निरूपेण है क्योंकि अभी स्वतंत्रता आंदोलन का शुरूआती दौर है तो आपको साधना चाहिए क्योंकि जनता को ख़ुश होने की अवस्था प्राप्त करने की ज़रूरत है पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करनी है।

अब तक हम आचार्य शुक्ल के मुख्य सिद्धांतों पर चर्चा करते आए हैं यह बात भी समझ आई कि उनके सिद्धांतों में कहीं ना कहीं कोई तो फ़र्क़ है। इसको नंददुलारे वाजपेई रेखांकित करते हैं परन्तु आचार्य शुक्ल के विरोध में कछ लिख नहीं पाते। आलोचना में हजारी प्रसाद द्विवेदी बड़ा नाम आता है और उनको शुक्ल जी के घोर विरोधी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है नामवर जी की पुस्तक ‘दूसरी परंपरा की खोज’ से एक उद्धरण इस सिलसिले में देख लेना बेहतर होगा।

“द्विवेदीजी ने पाठ्यक्रम में कुछ परिवर्तन किया था। यह परिवर्तन बहुत क्रान्तिकारी न था। अपनी ओर से उन्होंने एक हद तक उसे सन्तुलित करने का ही प्रयास किया था। मसलन एम.ए. के पाठ्यक्रम में निराला बिल्कुल उपेक्षित थे, इसलिए निराला के ‘तुलसीदास’ जैसे अमर काव्य का समावेश किया। इसी प्रकार बी.ए. की कक्षाओं के सामान्य हिन्दी छात्र प्रेमचन्द के उपन्यासों से सर्वथा अपरिचित रह जाते थे। उन्हें प्रेमचन्द्र से परिचित होने का अवसर दिया गया। बस इसी तरह के छोटे-मोटे परिवर्तन किये गये। अब परिवर्तन को विरोध का मुद्दा बनाना तो ज़रा मुश्किल था। इसलिए आवाज़ महज़ उठायी गयी कि द्विवेदीजी तो आचार्य शुक्ल के विरोधी हैं और हिन्दी विभाग से शुक्ल जी के विचारों की परम्परा को उखाड़ फेंकना चाहते हैं। निश्चय ही यह आरोप विश्वसनीयता का आभास देनेवाला था। ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ और ‘कबीर’ नाम की कृतियों में सचमुच ही द्विवेदी जी आचार्य शुक्ल की कुछ मान्यताएँ खंडित कर चुके थे। किन्तु इसके साथ ही यह भी सच है कि द्विवेदीजी ने आचार्य शुक्ल के प्रति अपनी श्रद्धा देने में कभी कोई कमी नहीं दिखाई। श्रद्धा का प्रमाण स्वयं ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ का यह वाक्य है “भारतीय काव्य आलोचन शास्त्र का इतना गम्भीर और स्वतन्त्र विचारक हिन्दी में तो दूसरा हुआ ही नहीं, अन्य भारतीय भाषाओं में भी हुआ है या नहीं, ठीक नहीं कह सकते। शायद नहीं हुआ।” यह घोषणा 1940 की है। आचार्य शुक्ल के निधन से ठीक पहले आचार्य शुक्ल के महत्त्व के बारे में द्विवेदीजी के ये वाक्य एक तरफ़ और सारी पोथियाँ एक तरफ़ यह उक्ति उन सब पर भारी पड़ती है। आचार्य द्विवेदी से पहले आचार्य शुक्ल के महत्त्व की प्रतिष्ठा इतनी उच्च भूमि पर की है, इसकी जानकारी मुझे नहीं है।”11

इस उद्धरण को पढ़कर एक बात तो स्पष्ट है कि आचार्य द्विवेदी कोई नई परंपरा की शुरूआत नहीं कर रहे थे बल्कि पुरानी आलोचना पर कुछ नया मिश्रित करना चाहते थे और आचार्य शुक्ल की तरह ही अपने वक़्त के आधार पर ही अपने सिद्धांतों का निर्माण कर रहे थे। एक बार शुक्ल जी की तरह उनके सिद्धांतों का भी विवेचन कर लेते हैं। तो लेख में अब हम आचार्य द्विवेदी पर आधारित चर्चा रखेंगे।

द्विवेदी जी के सिद्धांतों का आधार समझने के लिए उनके वक़्त को समझना ज़्यादा बेहतर होगा। वह 19वीं शताब्दी के तीसरे और चौथे दशक में स्थापित है। उनका साम्राज्यवाद विरोध साफ़ नज़र आता है परन्तु इस समय तक गाँधी के आदर्शवाद का ढाँचा चरमरा गया था और नेहरू का दबदबा ज़्यादा था। राष्ट्र की परिभाषा को विस्तार दिया जा रहा था और ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को उसके अंदर सम्मिलित किया जा सके इसकी कोशिश की जा रही थी। अंबेडकर के नाते दलित प्रश्न उज्ज्वल था। कविता फक्कड़ पन की थी। हिंदू मुस्लिम विवाद को सुलझाने का प्रयास साहित्य में था क्योंकि समाज में वह एक ज्वलंत समस्या बनकर सबके सामने खड़ी थी।

इस उधेड़बुन के समय में द्विवेदी जी अपनी आलोचना का निर्माण कर रहे थे। शुक्ल जी के आधारों पर प्रश्न खड़े हो रहे थे। द्विवेदी जी के सिद्धांत सीधे-सीधे तो कोई नज़र नहीं आते परन्तु उनकी कृतियों के आधार पर उनको खोजा जा सकता है। द्विवेदी जी के सिद्धांत दो जगह नज़र आते हैं एक उनके निबंधों में जहाँ पर वह निर्भीक होकर अपने आप को अभिव्यक्त करते हैं। तथा दूसरा उनकी पुस्तकों में नज़र आते हैं।

तो पहले उनके निबंधों पर चर्चा कर लेते हैं। ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं’ नामक लेख में वह इसको सभ्यता समीक्षा हथियारों के विस्तार तक ले जाते हैं। उनका निबंधों को लिखने का तरीक़ा काफ़ी अलग है या पाठक को बाँध के रखते हैं परन्तु यहाँ से उनका एक सिद्धांत सामने आता है जो मानवतावाद है इसको उनके लेख की पंक्तियों से समझते हैं।

“ऐसा कोई दिन आ सकता है, जबकि मनुष्य के नाखूनों का बढ़ना बंद हो जाएगा। प्राणिशास्त्रियों का ऐसा अनुमान है कि मनुष्य का अनावश्यक अंग उसी प्रकार झड़ जाएगा, जिस प्रकार उसी पूँछ झड़ गई है। उस दिन मनुष्य की पशुता भी लुप्त हो जाएगी। शायद उस दिन वह मारणास्त्रों का प्रयोग भी बंद कर देगा। तब तक इस बात से छोटे बच्चों को परिचित करा देना वांछनीय जान पड़ता है कि नाखून का बढ़ना मनुष्य के भीतर की पशुता की निशानी है और उसे नहीं बढ़ने देना मनुष्य की अपनी इच्छा है, अपना आदर्श है। बृहत्तर जीवन में रोकना मनुष्यत्व का तक़ाज़ा है। मनुष्य में जो घृणा है, जो अनायास बिना सिखाए आ जाती है, वह पशुत्व का द्योतक है और अपने को संयत रखना, दूसरे के मनोभावों का आदर करना मनुष्य का स्वधर्म है। बच्चे यह जानें तो अच्छा हो कि अभ्यास और तप से प्राप्त वस्तुएँ मनुष्य की महिमा को सूचित करती हैं।

सफलता और चरितार्थता में अंतर है। मनुष्य मारणास्लों के संचयन से, बाह्य उपकरणों के बाहुल्य से उस वस्तु को पा भी सकता है, जिसे उसने बड़े आडंबर के साथ सफलता का नाम दे रखा है। परन्तु मनुष्य की चरितार्थता प्रेम में है, मैत्री में है, त्याग में है, अपने को सबके मंगल के लिए निःशेष भाव से दे देने में है। नाखूनों का बढ़ना मनुष्य की उस अंध सहजात वृत्ति का परिणाम है, जो उसके जीवन में सफलता ले आना चाहती है। उसको काट देना उस स्व-निर्धारित, आत्म-बंधन का फल है, जो उसे चरितार्थता की ओर ले जाती है।

नाखून बढ़ते हैं तो बढ़े, मनुष्य उन्हें बढ़ने नहीं देगा।”12

लेख में वह जानवर से इंसान की हथियार फिर से जानवर बनने की यात्रा को रेखांकित करते हैं यह सवाल खड़ा करते हैं क्या हम सच में मानव है। परन्तु उनके निबंध इस प्रकार इस बात को प्रदर्शित करते हैं।

इसके बाद उनका दूसरा मुख्य सिद्धांत व्यक्तिवाद है क्योंकि वह साहित्य को लेखक से जोड़कर तो पढ़ने के पक्ष में थे जबकि शुक्ल जी साहित्य को लेखक की प्रॉपर्टी नहीं मानते हैं। इस पर तुलना की चर्चा करते हैं:

“मैं स्पष्ट ही देख रहा हूँ कि नाना जातियों और समूहों में विभाजित मनुष्य सिमटता जा रहा है। उसका कोई भी विश्वास और कोई भी नीति-रीति चिरंतन होकर नहीं रह सकी है। उसके न तो मंदिर ही अविमिश्र हैं, न देवता ही चिरकालिक हैं। मनुष्य किसी दुस्तर-तरण के लिए कृत संकल्प है। जातियों और समूहों के भीतर से उसकी विजय-यात्रा अनाहत गति से बढ़ रही है। वह अपनी इष्टसिद्धि के लिए बहुत भटका है। अब भी भटक रहा है, पर खोजने में वह कभी विचलित नहीं हुआ ये अभूले नृत्य-गीतों की परंपराएँ उसकी नवग्राहिणी प्रतिभा के चिह्न हैं, ये नवीन देवताओं की कल्पना उसके राह खोजने की निशानी हैं और वे भूली हुई परंपराएँ इस बात का संकेत करती हैं कि वह परंपरा और संस्कृति के नाम पर जमे हुए किट्टाभ संस्कारों को फेंक देने की योग्यता रखता है। हमारे गाँव की विविध जातियाँ यह सिद्ध करने को पर्याप्त हैं कि तथाकथित जाति-प्रथा कोई फ़ौलादी ढाँचा नहीं है, उसमें अनेक उतार-चढ़ाव होते रहे हैं और होते रहेंगे। संक्राति काल से आप क्या समझते हैं, यह तो मुझे नहीं मालूम पर साहित्यिक का कर्त्तव्य तो स्पष्ट है कि वे कभी किसी प्रथा को चिरंतन न समझे किसी रुढ़ि को दुर्विजय न मानें और आज की बननेवाली रूढ़ियों को भी त्रिकालसिद्ध सत्य न मान लें। इतिहास विधाता का स्पष्ट इंगित इसी ओर है कि मनुष्य में जो मनुष्यता है जो उसे पशु से अलग कर देती है, वहीं आराध्य है। क्या साहित्य और क्या राजनीति, सबका एकमात्र लक्ष्य इसी मनुष्यता की सर्वांगीण उन्नति है।”13

“हमारे गाँव में एक पंडित जी थे। अपने को महाविद्वान मानते थे। विद्या उनके मुँह से फचाफच निकला करती थी। शास्त्रार्थ में वे बड़े-बड़े दिग्गजों को हरा देते थे। विद्या के ज़ोर से नहीं, फचाफच के आपात से प्रतिपक्षी मुँह पोंछता हुआ भागता था अगर कुछ केंडे का हुआ तो दैहिक बल से जय-पराजय का निश्चय होता था। मेरे सामने ही एक बार ख़ासी गुथम-गुत्थी हो गई। गाँव-जवार के लोगों को पंडित जी की विद्या का भरोसा नहीं था, पर उनकी फचाफच वाणी और भीमकाया पर विश्वास अवश्य था। शास्त्रार्य में पंडित जी कभी हारे नहीं। कम लोग जानते हैं कि शास्त्रार्थ में कोई हारता नहीं, हराया जाता है। पंडित जी के यजमान जम के उनके पीछे लाठी लेकर खड़े हो जाते थे, तो उनकी विजय निश्चित हो जाती थी। पंडित जी केवल बड़े दिग्गज विद्वानों को ही नहीं, आसपास के भूतों को भी पराजित करने में अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं जानते थे। गायत्री का मंत्र (जो उनके मुँह से आला जैसा सुनाई देता था) और देवदारु की लकड़ी उनके अस्त्र थे। एक बार वे बग़ीचे से गुज़र रहे थे, घोर अंधकार, भयंकर सुनसान क्या देखते हैं कि आगे दनादन ढेले गिर रहे हैं। पंडित जी का अनुभवी मन तुरंत ताड़ गया कि कुछ दाल में काला है। मनुष्य इतनी तेज़ी से ढेले नहीं फेंक सकता। पंडित जी डरनेवाले नहीं थे पीछे मुड़कर ललकारा—‘अरे केवन है! केवन अर्थात् कौन पीछे मुड़कट्टा, घोड़े पर चढ़ा चला आ रहा था, टप्प-टप्प-टप्प। सो, पंडित जी से उलझने की हिमाक़त की इस दुरंत मुड़कट्टे ने डरनेवाला कोई और होता है। पंडित जी ने जूता उतार दिया, वह गायत्री मंत्र के पाठ में बाधक था। झमाझम गायत्री मंत्र पढ़ने लगे। देवदारु की लकड़ी मुट्ठी में थी। दे रद्दे पर रद्दा। बिचारा मुड़कट्टा आहि-त्राहि कर उठा—अबकी बार छोड़ दो पंडित जी, पहचान नहीं सका था। अब फिर यह ग़लती नहीं होगी। आज से मैं तुम्हारा ग़ुलाम हुआ। पंडित जी का ब्राह्मण मन पसीज गया। नहीं तो यह सारे गाँव-जवार का कंटक समाप्त ही हो गया होता। मैंने यह कहानी स्वयं पंडित जी के मुँह से सुनी थी। अविश्वास करने का कोई उपाय नहीं था ‘फर्स्ट हैंड इन्फर्मेशन’ था।”14

इनको पढ़कर आप इस बात का अंदाज़ा लगा सकते हैं कि वह मानव को लेकर आदर्शवादी भी हैं। फक्कड़ मस्तीखोर भी। परन्तु जो व्यक्ति देवदारू में एक व्यक्तित्व खोज निकालने में सक्षम है वह व्यक्तिवादी ही होगा। कबीर और अन्य लेखकों को भी जीवन से उनकी रचनाओं को जोड़कर पढ़ने के पक्ष में काफ़ी जगह नज़र आते हैं। मुझे विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी पर एक मज़ेदार टिप्पणी याद आती है जो मैं नीचे उद्धृत कर रहा हूँ:

“निबंधों में द्विवेदी जी की मस्ती देखने लायक़ होती है। वे ऐसे-ऐसे विनोदपूर्ण आत्मप्रसंग प्रस्तुत करते हैं कि पाठक उनके पांडित्य का आतंक भूल जाता है और उसे लगता है जैसे उसकी अपनी दुनिया का कोई आदमी बातचीत कर रहा हो।”15

इस से ज़्यादा उनके निबंधों में दो बातें मुख्य और नज़र आती हैं। पहला है संस्कृति का प्रश्न जो उनके निबंध के उद्धरण देते हुए तिवारी जी इस तरह प्रस्तुत करते हैं। आपकी समझ के लिए मैं द्विवेदी जी के उद्धरण और उनकी बात दोनों उद्धृत कर रहा हूँ:

“द्विवेदी जी संस्कृति के संदर्भ में पूर्व या पश्चिम, या भारतीय, अभारतीय आदि कृत्रिम विभाजनों को स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार कोई भी संस्कृति विश्वजनीन सत्य की विरोधी नहीं होती। उन्हीं के शब्दों में: “नाना ऐतिहासिक परंपराओं के भीतर से गुज़रकर और भौगोलिक परिस्थितियों में रहकर संसार के भिन्न-भिन्न समुदायों ने उस महान मानवी संस्कृति के भिन्न-भिन्न पहलुओं का साक्षात्कार किया है। नाना प्रकार की धार्मिक साधनाओं, कलात्मक प्रयत्नों और सेवा, भक्ति तथा योगमूलक अनुभूतियों के भीतर से मनुष्य उस महान सत्य के व्यापक और परिपूर्ण रूप को क्रमशः प्राप्त करता जा रहा है। जिसे हम ‘संस्कृति’ शब्द द्वारा व्यक्त करते हैं।

सभ्यता और संस्कृति का अंतर स्पष्ट करते हुए द्विवेजी जी लिखते हैं: “सभ्यता का आंतरिक प्रभाव संस्कृति है। सभ्यता समाज की बाह्य व्यवस्थाओं का नाम है, संस्कृति व्यक्ति के अंतर के विकास का। सभ्यता की दृष्टि वर्तमान की सुविधा असुविधाओं पर रहती है, संस्कृति की भविष्य या अतीत के आदर्श पर सभ्यता नज़दीक की ओर दृष्टि रखती है, संस्कृति दूर की ओर, सभ्यता का ध्यान व्यवस्था पर रहता है, संस्कृत का व्यवस्था के अतीत पर; सभ्यता के निकट क़ानून मनुष्य से बड़ी चीज़ है, लेकिन संस्कृति की दृष्टि में मनुष्य क़ानून के परे है। सभ्यता बाह्य होने के कारण चंचल है, संस्कृति आंतरिक होने के कारण स्थायी है।”16

यह उनकी उस वक़्त में चल रही राष्ट्र की परिकल्पना को दर्शाता है जहाँ हर व्यक्ति को भारतीय बनाने का अभिमान है। दूसरा बिंदु है जातियों की तफ़्तीश जैसे उनका निबंध मेरी जन्मभूमि ठाकर जी की बटोर। यहाँ तक की यह तलाश कबीर नामक पुस्तक में जुल्लाहा जाति के संदर्भ में भी होती है। उसकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति की तलाश करके दीजिए अपने निष्कर्ष देते हैं।

अब मेरे ख़्याल से उनकी पुस्तकों की तरफ़ बढ़ कर उनके कुछ और सिद्धांतों की तलाश की जा सकती है। उनकी सारी आलोचनात्मक पुस्तक को अध्ययन करके यह पता चलता है कि वह शुक्ल जी की छोड़ी हुई चीज़ों का अध्ययन कर रहे थे। ‘कबीर’, ‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’, ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ इन सब को पढ़ने के बाद यह उस युग के राष्ट्र निर्माण के क़रीब महसूस होती है।

इस सिद्धांत को इस तरह समझिए की राष्ट्र निर्माण की धारणा में कई और अस्मिता शामिल हो गई थी इसीलिए वह नई मानक और व्यापक संस्कृति तलाश रहे थे। बढ़ते हिंदी मुस्लिम विवाद के बीच उनको अपने स्वर्ण युग की तलाश के ऐसे प्रतिनिधि की ज़रूरत थी जो एक बड़े फलक पर लोगों को ख़ुद में सम्मिलित करने में सक्षम हो।

इस मानक के चलते और अपने वक़्त की क्रांतिकारी योजना के तहत हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर को तुलसी की जगह चुनते हैं। परन्तु यह बात नहीं है कि इससे पहले कबीर पर कोई काम ही नहीं हुआ था। कबीर पर लिखी गई आलोचनाओं का भी जवाब दे रहे थे। जैसे आचार्य शुक्ल तुलसी पर लिखी आलोचनाओं का जवाब देने का प्रयास कर रहे थे। तो इसके आधार पर हम कह सकते हैं कि आचार्य द्विवेदी अपने युग का फक्कड़पन इतिहास में तलाश रहे थे जो बात नामवर जी ने अपनी पुस्तक दूसरी परंपरा की खोज से कही है कि उनके उपन्यासों के किरदार भी फक्कड़ हैं। चाहे वह बाणभट्ट की आत्मकथा के बाणभट्ट हो या अंदाम के पौधा के कई किरदार हो। यह फक्कड़पन उनके मुख्य सिद्धांतों में से है। इस सारे विवेचन के आधार पर कुछ प्रश्न आने लाज़िमी है तब उनका निरूपण करना ही बेहतर होगा।

प्रथम प्रश्न है, आदिकाल या रीतिकाल क्यों नहीं शुक्ल जी की तरह भक्ति आंदोलन ही क्यों? इसका उत्तर तलाशते हुए भी समझने का प्रयास करना होगा कि कबीर ही क्यों तुलसी के स्थान पर?

एक इतिहासकार हमेशा ज्ञान से अज्ञान की तरफ़ जाता है (नोन टू अननोन)। यह लोग भी हिंदी साहित्य का इतिहास ही लिखने का प्रयास कर रहे थे। तो रीतिकाल के संदर्भ में तो मैं शुक्ल जी का उत्तर ही दोबारा दूँगा। आदिकाल पर विवेचन करते हैं जब द्विवेदी जी के नाथ और सिद्ध साहित्य को मान्यता दे दी तो उसको क्यों नहीं चुना तो इसका उत्तर है कि उनके वक़्त का हिंदी मुस्लिम विवाद, उनको ऐसा मानक चाहिए था जो उसको सम्मिलित कर सके और साथ ही दलित लोगों को भी सम्मिलित कर ले तो यह सिर्फ़ जनता का साहित्य कर सकता था और उसकी समझ समर्पित करने के लिए आदिकाल की परंपरा को समझना ज़रूरी था। इसीलिए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी भक्ति काल में निर्गुण साहित्य के वक़्त अपने सारे सवालों के जवाब ढूँढ़ते हैं क्योंकि इसी वक़्त शायद इस्लाम का प्रभाव और दोनों संप्रदायों के बीच एकता अधिक नज़र आ रही थी उन्हें रासो साहित्य के संदर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल वाले उत्तर को दोबारा दोहराने का कोई कारण नहीं समझता आप ऊपर उस बात को पढ़कर और समझ कर आगे ही बढ़े हैं।

इसी सवाल को बरक़रार रखे और पलट के पूछ ले कि फिर भक्ति काल में सिर्फ़ कबीर ही क्यों?

तो इसका कुछ उत्तर ऊपर लेख में दिया जा चुका है। फिर भी विस्तार से समझने के लिए संक्षेप में बात करना बेहतर होगा। पहला तो यह वह युग है जहाँ क्रांति की ज़रूरत है। गाँधी करो या मरो का नारा दे रहे हैं। भगत सिंह और रूस की क्रांति हो चुकी है। तो द्विवेदी जी यह अपने युग का फक्कड़पन और क्रांतिकारी स्वभाव की तलाश करते हैं तथा इस तरह का व्यक्ति खोज रहे हैं जो दलित और हिंदी मुस्लिम विवाद की बात करें और हिंदी मुस्लिम एकता को भी अपने साथ रखता हो। कबीर ही है साथ ही उनसे कुछ समय पूर्व कबीर पर काम होना आरंभ हुआ था तो उसकी ही जवाबदेही करके हिंदी आलोचना को कबीर पर केंद्रित करते हैं।

सारी बातचीत के आधार पर एक बात तो स्पष्ट है कि वह साम्राज्यवाद के घोर विरोधी हैं तथा सामंतवादी परंपरा के विरुद्ध भी और एक अल्टरनेटिव परंपरा का निरूपण करते हैं। अब ज़रा द्विवेदी जी के एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत की चर्चा करते हैं जो कि लोक बनाम शास्त्र का है। इस सिद्धांत को सरलतम रास्ते से समझने के लिए हम द्विवेदी जी के जीवन का एक प्रसंग देखते हैं।

“शान्तिनिकेतन में एक विधवा अपनी कन्या का विवाह हिन्दू विधि से करना चाहती थी। किसी ने कह दिया कि नान्दी श्राद्ध विधवा नहीं कर सकती। गुरुदेव ने नये-नये आये काशी के ज्योतिषाचार्य पण्डित हजारीप्रसाद द्विवेदी को बुलवा भेजा। पूछा, ‘हिन्दुओं का हज़ारों वर्ष का इतिहास है, क्या उसमें पहली बार यह घटना हो रही है? पहले भी तो कभी ऐसी स्थिति आयी होगी?’ पण्डितजी घर आये। स्मृति-ग्रन्थों की छानबीन की। देखा कि पूर्वपक्ष में ऐसे बहुत से वचन हैं जो विधवा के इस अधिकार को स्वीकार करते हैं। लेकिन वचनों की संगति लगाते समय निष्कर्ष रूप में यही कहा गया है कि विधवा को ऐसा अधिकार नहीं है। जाकर गुरुदेव को बताया तो हँसकर बोले, ‘क्या पूर्वपक्ष के वे ऋषि कुछ कम पूज्य हैं, जिनका खण्डन उत्तरपदा में किया गया है?’ इस प्रश्न ने पण्डितजी को झकझोर दिया। परम्परा क्या उत्तरपक्ष ही है? पूर्वपक्ष नहीं? जिस परम्परा को अब तक वे अखण्ड समझते आ रहे थे, देखते-देखते शिवधनुष के समान खण्ड-खण्ड हो गयी। लगा कि परम्परा और भी हो सकती है। एक तरह से यह इतिहास-बोध का उदय था।”17

अब आप यह बात समझे कि द्विवेदी जी पूर्व पक्ष के प्रतिनिधि हैं। जो लोक की बात करता है शास्त्र की नहीं परन्तु कोई भी पलट के कह सकता है कि यह भी तो शास्त्र से ही प्राप्त है। वह बिल्कुल ठीक है पूर्व लोग बनाम शास्त्र की जगह मुख्यधारा बनाम हास्य धारा कहेंगे तो बेहतर होगा। दोनों समाज में उपलब्ध है और कबीर इसके सबसे अच्छे उदाहरण है इसीलिए द्विवेदी जी के हीरो हैं। उनके वक़्त की माँग थी, यह इतिहास दृष्टि जो उनके वक़्त के लोगों को समझा सके और बता सके कि विभाजन की आग को बुझा सकते हैं। इस बात को एक व्यक्ति समझ सकता है कि हाशिए की जनता कि भी अपनी परंपरा होती है वह भी मुख्य धारा में बसी होती है। द्विवेदी जी ने उसको उजागर करके हमारे सामने रख दिया है।

लेख में दोनों आलोचकों के सिद्धांतों को विस्तार से आपके सामने रख दिया गया है। लेख के अंतिम हिस्से की तरफ़ अगर हम अग्रसर हो तो कोई दो राय नहीं होगी। तो अब हम इस लेख में दोनों आलोचकों के सिद्धांतों का तुलनात्मक अध्ययन करेंगे आप में से जो लोग दोनों आलोचकों के बीच की बहस से वाक़िफ़ होंगे आप ज़रूर सोच रहे होंगे। क्यों उसकी मैंने अब तक चर्चा नहीं की। उस मुख्य बिंदु को हुक्म के इक्के की तरह इस्तेमाल तुलना के प्रयोग करने का विचार मैंने लेख कि शुरूआत में ही कर लिया था। जिन लोगों को नहीं मालूम उस बहस के बारे में तो मैं उनकी जानकारी के लिए बता दूँ कि दोनों के बीच बहस भक्ति काल के उदय पर निर्धारित है।

शुक्ल जी मानते हैं कि भक्ति काल का उदय इसलिए हुआ क्योंकि भारतीय हताश जनता में इस्लाम आक्रमण के कारण और कोई चारा नहीं था। भगवान का भजन ही कर सकती थी क्योंकि अब रोज़गार फ़ारसी बोलने वालों के पास अधिकतर था और उनके भगवान और उनका धर्म ख़तरे में था तो इस हताश जनता के पास केवल और केवल भगवान की शरण में जाने का ही रास्ता था।

उनका उद्धरण यह है “देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के हृदय में गौरव और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उसके देवमंदिर गिराये जाते थे, देवमूर्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत न गाते तो समाप्त हो सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन हो सकते थे। आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्य भी नहीं रह गये। इतने भारी राजनीतिक उलटफेर के पीछे हिंदू जनसमुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी सी छायी रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?”18

द्विवेदी जी ने इस के उत्तर में कहा: “मैं इस्लाम के महत्त्व को भूल नहीं रहा हूँ लेकिन ज़ोर देकर कहना चाहता हूँ कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है।”19

अगर आप द्विवेदी जी की बात का आकलन करें और उनके रूपक को ही इस्तेमाल करें तो एक टका में 16 आना होता है जो चार आने घाटे है वह इस्लाम के प्रभाव के हैं। परन्तु उन 33 दोनों के समय की बात है। शुक्ल जी इस्लाम के प्रतिक्रिया मानते हैं और द्विवेदी जी उसका प्रभाव असल में यह बात दोनों के वक़्त के धार पर निर्धारित हो रही है शुक्ल जी के वक़्त में हिंदू मुस्लिम डिबेट इतनी गर्म नहीं है उसको आक्रमण स्थापित करने में कोई समस्या है परन्तु द्विवेदी जी के वक़्त में कबीर की ज़रूरत है एकता की ज़रूरत है इसीलिए प्रभाव मानते हैं। दोनों के अपने-अपने तर्क हैं इस बहस में जाएँगे तो सागर की गहराई खोकर विषयांतर कर बैठेंगे।”

इस बहस से एक बात तो स्पष्ट है कि दोनों आलोचक अपने समय में ऑपरेट कर रहे थे। तो अब उनके सिद्धांतों की तुलना करते हुए यह बात हम ख़्याल में रखेंगे और तुलना केवल अंतरों की नहीं होती समानता की भी होती हैं। तो पहले हम समानता की चर्चा कर लेते हैं।

अब तक की गई चर्चा के आधार पर कुछ समानता तो आप लोगों को स्पष्ट हो गई होगी पर उनकी चर्चा करना मेरा धर्म है। सर्वप्रथम दोनों आलोचक अपने अपने वक़्त में ऑपरेट कर रहे हैं और साम्राज्यवाद विरोधी हैं परन्तु साम्राज्य को हराने के अपने-अपने रास्ते हैं। तुलसी का या दूसरा कबीर का इसकी चर्चा थोड़ी देर में होगी। दूसरा दोनों आचार्य एक स्वर्ण युग प्रॉजेक्ट के हिस्से हैं जिसके चलते दोनों रीतिकाल को ख़राब मानते हैं और रासों साहित्य में विनता रखते हैं और भक्ति काल महान है या स्वर्ण युग है। यहाँ पर एक अंतर भी है कि आचार्य शुक्ल जिस प्रतिक्रिया की बात करते हैं और द्विवेदी जी जिस प्रभाव की भक्ति काल के संदर्भ में वहाँ उनका मत अलग होता है और तुलसी से कबीर कि यात्रा करती है हिंदी कैनन।

तीसरा दोनों आलोचकों की एक सिद्धांत कॉमन है वह कि जनता की भलाई और बुरी बातों का विरोध। मेरे ख़्याल से हमारा मुख्य सवाल ब्रह्म क्या है? की तरफ़ रुख़ कर लेना चाहिए और तुलना जिस पर टिकी है कि इन दोनों आलोचकों में अलग-अलग क्या है उस पर चर्चा करके हमें इस लेख को समाप्त कर लेना चाहिए।

आलोचना भी अपने आप में एक रचनात्मक लेखन प्रक्रिया है और रचनात्मक लेखन प्रक्रिया व्यक्ति की भाषा से व्यक्त होती है। और उस भाषा से इंसान के व्यक्तित्व के बारे में काफ़ी कुछ अंदाज़ा लगता है। अगर आप आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और आचार्य रामचंद्र शुक्ल की भाषा को देखेंगे तो आप पाएँगे कि एक व्यक्ति एकदम शिक्षित जनता की भाषा का इस्तेमाल करता है और दूसरा एकदम सरलतम सटीक अपनेपन व्यंग्य से भरी हुई भाषा का प्रयोग करता है। इसी बात से हमें पता चलता है आचार्य रामचंद्र शुक्ल के एक सिद्धांत का कि वह साहित्य को जनता के चित्रवृति का संचित प्रतिबिंब मानते हैं। परन्तु उनकी जनता शिक्षित जनता है और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की जनता लोक जनता है।

दोनों आलोचकों के जितने भी सिद्धांत है वह इसे ही शिक्षित जनता बनाम लोक जनता की नींव पर टिके हुए हैं। आचार्य शुक्ल का विकासवाद हो, अध्यात्मवाद से मुक्ति हो या रहस्यवाद का खंडन हो या उनका इस्लामिक आक्रमण के कारण भक्ति काल का उदय हो या साम्राज्यवाद विरोध शिक्षित जनता का ही है। साथ ही इस सामंती व्यवस्था को छोड़ने और ना छोड़ पाने के द्वंद्व के बीच में खड़े हैं। परन्तु इसी के विपरीत में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लोक के निकट खड़े हैं जहाँ पर वह आई हुई आक्रमणकारी शक्तियों को हिंदी साहित्य पर उसका प्रभाव मानते हैं, गाँव में जो अध्यात्म है उसको पहचानते हैं। उसके साहित्य को जानते हैं और कबीर को एक नई कैनन के रूप में लेकर आते हैं और उनकी भाषा पर भी आप ध्यान दें तो उनके सिद्धांत भी ऐसे हैं मानवतावाद, व्यक्तिवाद जहाँ पर मनुष्य से ज़्यादा लगाव है जनता वह लोक की जनता है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और आचार्य रामचंद्र शुक्ल के सिद्धांतों की अगर मुख्य तुलना करें तो सबसे पहले तुलना उनके साहित्य को देखने के नज़रिए से बनती है। जहाँ पर आचार्य द्विवेदी नाथ और सिद्ध साहित्य को मान्यता देते हैं और उसे भक्ति काल से पूर्व परंपरा के रूप में देखते हैं। वही रामचंद्र शुक्ल उस को ख़ारिज कर एक अध्यात्म की बात कहने वाला सांप्रदायिक क़िस्म का साहित्य कहकर ख़ारिज कर देते हैं। दूसरा आचार्य रामचंद्र शुक्ल तुलसी की मर्यादा को महत्त्व देते हैं तो द्विवेदी जी कबीर की फक्कड़पन को महत्त्व देते हैं क्योंकि उन दोनों के समय में इन दो चीज़ों की आवश्यकता थी। एक जगह जहाँ पर समाज को नियमित रूप से देखा जा सके और दूसरा जहाँ पर समाज मुक्त होकर क्रांति कर चीज़ों को उलट कर रख सके। इसका अंदाज़ा आपको लग जाएगा क्योंकि आप ऊपर लेख में उन दोनों के वक़्त को पढ़कर और समझ कर ही यहाँ तक पहुँचे हैं। तीसरा हजारी प्रसाद द्विवेदी साहित्य में व्यक्तिवाद को समझते हैं जहाँ पर वह कबीर को उनकी जाति की वजह से ज़्यादा चुनते हैं क्योंकि उनकी जाति ना हिंदू है ना मुसलमान है और उसकी आर्थिक स्थिति भी कभी अच्छी हुआ करती थी अब ख़राब है। परन्तु शुक्ल जी टी एस एलाइट के डेट ऑफ़ ऑथर के क़रीब ज़्यादा है। वह साहित्य में लेखक को महत्त्व न देकर, उसके लोक को, जनता को ज़्यादा महत्त्व देते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल सामंती व्यवस्था के ख़त्म हो रहे दौर में खड़े हैं इसीलिए उनके मन में द्वंद्व है परन्तु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के वक़्त तक वह सामंती व्यवस्था ख़त्म हो जाती है तो उनके यहाँ पर साफ़ तौर पर सामंत विरोध देखा जा सकता है, आचार्य रामचंद्र शुक्ल के यहाँ पर सांप्रदायिकवाद है रहस्यवाद नवजागरण के कारण ख़राब है साथ ही उनके यहाँ बहुत संकुचित व्यवस्था को जो सामंती व्यवस्था है, जहाँ पर शोषण ना हो उसका महत्त्व है इसीलिए उनके साहित्य में तुलसी का रामराज्य सबसे महत्त्वपूर्ण है। उनकी मर्यादा महत्त्वपूर्ण है जहाँ पर लोग उस व्यवस्था के नियम माने परन्तु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के राष्ट्र में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को भीतर सम्मिलित करना है क्योंकि दलित संप्रदाय अपने प्रश्नों को लेकर खड़ा है हिंदी मुस्लिम विवाद एक चरम सीमा पर है क्योंकि कुछ ही सालों बाद इतिहास में बँटवारा हो जाता है, इसी के कारण वह कबीर को चुनते हैं: जो किसी निम्न जाति से है जो हिंदू मुस्लिम के दोनों रूढ़िवादों पर वार करते हैं। अगर मैं इन दोनों के बीच में तुलना का बिंदु ढूंढू तो सिर्फ़ मुझे साहित्य को देखने का नज़रिया मिलता है क्योंकि दोनों आलोचक अपने अपने वक़्त में खड़े होकर अपने आलोचना सिद्धांत निरूपित करते हैं।

मैं तुलना करते वक़्त दोनों आलोचकों में अलग-अलग पाता हूँ वह यह है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल लोक को ज़्यादा महत्त्व देते हैं और हजारी प्रसाद द्विवेदी व्यक्ति को ज़्यादा महत्त्व देते हैं। इसी के साथ यह बात भी कहना चाहता हूँ कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी किसी दूसरी परंपरा की खोज में या किसी दूसरी आलोचना की नींव करने में व्यस्त नहीं थे। आचार्य रामचंद्र शुक्ला, नंद दुलारे वाजपई और अन्य कई आलोचकों के द्वारा बनाई गई परंपरा में अपना योगदान दे रहे थे तो मेरी समझ में आया कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद अगर हिंदी आलोचना को किसी ने अपने सिद्धांतों से प्रभावित किया है तो वह हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हैं और सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी परंपरा का ही निवारण करके उस परंपरा में कुछ अंकित कर रहे हैं।

जो बात ऊपर उद्धृत की जा सकी है, उनको आचार्य रामचंद्र शुक्ल के विरोध में खड़ा करना या उनका विरोधी मानना ग़लत होगा क्योंकि दोनों के समय अलग अलग थे और परिस्थितियाँ अलग अलग थी इसीलिए उनके सिद्धांत भी अलग-अलग थे। अगर फिर किसी रोज़ मुझे चाय की टपरी पर ऐसी ही किसी बहस में आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी के दो गुट नज़र आए तो मैं उनके मध्य खड़े होकर दोनों गुटों से बराबरी दूरी पर इस बात को निरूपित करने का प्रयास करूँगा कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने वक़्त के सबसे बड़े आलोचक हैं और हिंदी आलोचना में दोनों उतने ही आदरणीय नाम है जितने होने चाहिए। साथ ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी आचार्य रामचंद्र शुक्ल के विरोधी ना होकर उनकी परंपरा में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी हैं जो अपने आप में सबसे अलग है। इस बात को समझाने के लिए मैं सबको चीन का उदाहरण दूँगा और यह समझा लूँगा कि चीन में जो कड़ियाँ अलग नज़र आती हैं वह सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी ख़ूबियों की ख़ातिर और पेंडेंट से मेल की ख़ातिर नज़र आती हैं।

संदर्भ सूची:

  1. http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/72677. रस सिद्धांत, डॉ नगेंद्र, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1964 पृष्ठ संख्या-202

  2. गोस्वामी तुलसीदास रामचंद्र शुक्ल, काशी प्रचारिणी सभा, 1923, पृष्ठ संख्या 51-52

  3. वही, 49

  4. हिंदी आलोचना में कैनन निर्माण की प्रक्रिया मृत्युंजय, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2015, 71-72

  5. हिंदी नवरत्न हिंदी आलोचना की पहली किताब, प्रधान गोपाल, स्वराज प्रकाशन, 2009, दिल्ली, 67-68

  6. हिंदी आलोचना में कैनन निर्माण की प्रक्रिया, मृत्युंजय, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2015, 78

  7. आलोचना में सहमति असहमति, पांडे मैनेजर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013, 119

  8. वही, 112-113

  9. साहित्य और इतिहास दृष्टि, पांडे मैनेजर, वाणी प्रकाशन, 2016, दिल्ली, 117

  10. https://www.hindisamay.com/content/3389/1/नामवरसिंह-आलोचना-हिंदी-नवजागरण-की-समस्याएँ.cspx

  11. दूसरी परंपरा की खोज, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1989, 31-32

  12. https://www.hindisamay.com/content/9737/1/हजारी-प्रसाद-द्विवेदी–निबंध-नाखून-क्यों-बढ़ते-हैं.cspx

  13. हजारी प्रसाद द्विवेदी, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, साहित्य अकेडमी, दिल्ली, 1940, 30-31

  14. वही, 41

  15. वही, 41

  16. वही 31-32

  17. दूसरी परंपरा की खोज, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1989, 13

  18. हिंदी साहित्य का इतिहास, शुक्ल रामचंद्र, कला मंदिर, दिल्ली, 55

  19. हिंदी आलोचना, त्रिपाठी विश्वनाथ, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2016, 147

  20. जान ग्विलोरी ने इस अवधारणा की व्युत्पत्ति ग्रीक शब्द से मानते हुए लिखा- “कैनन शब्द प्राचीन ग्रीक के ‘Kanon’ से बना है, जिसका अर्थ छड़ या छड़ी होता है। यह शब्द मापन के संदर्भ में प्रयुक्त होता था। कालांतर में यह शब्द अपना द्वितीयक अर्थ संप्रेषित करने लगा और इसे मापदंड और नियमों से जोड़कर देखा जाने लगा। . . .‘गाइड टू लिटरेरी टर्म्स’ में जैक लिंच ने साहित्यिक कैनन की अवधारणा पर प्रकाश डालते हुए लिखा—“साहित्यिक कैनन का पद साहित्य के वर्गीकरण को निर्दिष्ट करता है। यह पद किसी विशिष्ट काल या देश में घटित सबसे प्रमुख समझे जाने वाले साहित्यिक कार्यों के समूह के लिए व्यापक तौर पर इस्तेमाल किया जाता है।” इन साहित्यिक कार्यों की अवस्थिति को और अधिक स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं—“उदाहरण के लिए किसी ख़ास देश के साहित्यिक कार्य या कुछ विशेष वर्षों में हुए कार्य अथवा निश्चित समय और निश्चित क्षेत्र में किए गए साहित्यिक कार्यों का संकलन साहित्यिक कैनन कहलाता है। इस तरह एक साहित्यिक कैनन समान या संबंधित साहित्यिक कार्यों को स्थापित करता है।”
    मृत्युंजय ,हिन्दी आलोचना में कैनन -निर्माण की प्रक्रिया,राजकमल प्रकाशन,दिल्ली,2015 पृष्ठ संख्या -16-18

ग्रंथ सूची:

  1.  आलोचना में सहमति असहमति, पांडे मैनेजर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013

  2. हिंदी साहित्य का उद्भव और विकास, भक्ति साहित्य, द्विवेदी हजारी प्रसाद, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली 2019

  3. हजारी प्रसाद द्विवेदी, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, साहित्य अकैडमी, दिल्ली, 1940

  4. साहित्य और इतिहास दृष्टि, पांडे मैनेजर, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2016

  5. हिंदी साहित्य का इतिहास शुक्ल रामचंद्र, कला मंदिर, दिल्ली,

  6. हिंदी आलोचना की बीसवीं सदी, जैन निर्मला, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1975

  7. हिंदी आलोचना में कैनन निर्माण की प्रक्रिया, मृत्युंजय राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2015

  8. हिंदी आलोचना, त्रिपाठी विश्वनाथ, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2016

  9. दूसरी परंपरा की खोज, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1989

  10. हिंदी नवरन: हिंदी आलोचना की पहली किताब, प्रधान गोपाल, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, 2009

  11. हिंदी आलोचना का विकास, नवल नंदकिशोर, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2007

  12. हिंदी साहित्य का आदिकाल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, बिहार राष्ट्र परिषद, 1961

  13. गोस्वामी तुलसीदास, रामचंद्र शुक्ल, काशीप्रचारिणीसभा, 1923

  14. https://www.hindisamay.com/content/4646/11/रामचंद्र-शुक्ल-RAMCHANDRA-SHUKLA-आलोचना-आचार्य-रामचंद्र-शुक्ल-ग्रंथावली-भाग-3साहित्य-शास्त्र-सिद्धांत-और-व्यवहार-पक्ष-संपादन-ओमप्रकाश-सिंह-साहित्य.cspx

  15. भारत को क्या करना चाहिए। रामचन्द्र शुक्ल-Gadya Kosh-हिन्दी कहानियाँ, लेख, लघुकथाएँ, निबन्ध, नाटक, कहानी, गद्य, आलोचना, उपन्यास, बाल कथाएँ, प्रेरक कथाएँ, गद्य कोश

  16. जाति व्यवस्था। रामचन्द्र शुक्ल-Gadya Kosh-हिन्दी कहानियाँ, लेख, लघुकथाएँ, निबन्ध, नाटक, कहानी, गद्य, आलोचना, उपन्यास, बाल कथाएँ, प्रेरक कथाएँ, गद्य कोश

  17. असहयोग और अव्यापारिक श्रेणियाँ। रामचन्द्र शुक्ल-Gadya Kosh-हिन्दी कहानियाँ, लेख, लघुकथाएँ, निबन्ध, नाटक, कहानी, गद्य, आलोचना, उपन्यास, बाल कथाएँ, प्रेरक कथाएँ, गद्य कोश

  18.  https://www.hindisamay.com/content/9737/1/हजारी-प्रसाद-द्विवेदी–निबंध-नाखून-क्यों-बढ़ते-हैं.spx

  19.  https://www.hindisamay.com/content/3389/1/नामवर-सिंह-आलोचना-हिंदी-नवजागरण-की-समस्याएँ.cspx

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

साहित्यिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं