मस्जिद की तामीर के लिए
कथा साहित्य | लघुकथा क़ैस जौनपुरी4 Feb 2019
मोली साहब की उम्र मेरे ही बराबर होगी, लगभग बीस साल। वो मेरे मुहल्ले में आये थे बच्चों को उर्दू-अरबी की तालीम देने। कुछ दिन तालीम देने के बाद वो चले गये। कभी-कभी मुझसे मिलने आ जाते थे। चूँकि मैं भी घर से बाहर ही रहता हूँ, इसलिये वो पता करते रहते थे कि मैं घर कब आ रहा हूँ? और इस बार ईद पर उनसे मुलाकात हो गयी।
ईद की मुबारकबाद देने के बाद उन्होंने कहा, “चलिये चाट खाते हैं।“ पैसे देने के लिये जब मैं अपनी जेब में हाथ डालने लगा तो वे बोले, “बबलू भाई! पैसा हम देंगे।“ मैंने कहा, “किस खुशी में?” तो उन्होंने कहा, “खुशी क्या बतायें? बस हम देंगे।“
मैं जानता था कि ये वही मोली साहब हैं जो मेरे मुहल्ले में बच्चों को तालीम देते थे। हर घर से ५० रुपया महीना पाते थे और बारी-बारी से पूरे मुहल्ले में खाते थे। रहने का इन्तजाम भी मुहल्ले में ही कर दिया गया था। मैंने सोचा, क्या परेशान करूँ? लेकिन जब वो ज्यादा जिद करने लगे तो मैंने कहा, “चलिये ज्यादा ख्वाहिश है तो दीजिये।“
चाट वाले को चार रुपये देने के लिये जब उन्होंने पैसे निकाले तो मैं तो हैरान रह गया। और मुँह से अचानक निकल गया, “अरे वाह! आप तो पूरी गड्डी लिये हैं।“
“बबलू भाई! इस महीने हमने कुल तेरह हजार रुपये कमाए हैं।“
“वो कैसे?”
“मस्जिद की इमामत करते हैं। सुबह दो ट्यूशन करते हैं और रसीद काटे हैं।“
“ये रसीद किस चीज की?”
“मस्जिद की।“
“मस्जिद की? मतलब?”
“देखिये, आधा पैसा कमीशन मिलता है।“
“ज़रा खुल के बताइये।“
“देखिये बबलू भाई! जैसे आप जौनपुर के हैं और बनारस से चन्दा इकट्ठा करके लाते हैं। रसीद काटते हैं तो आपको आधा पैसा कमीशन मिलता है। और अगर मस्जिद जौनपुर की ही रहेगी तो आपको कुछ नहीं मिलेगा। देखते नहीं हैं इसीलिये लोग बहुत दूर-दूर से चन्दा माँगने आते हैं।“
“तो आप कहाँ-कहाँ से चन्दा लेने गये?”
“हम तो बनारस से कुछ काटे हैं, कुछ अपने घर बिहार से भी रसीद काटे हैं। ऐसे ही बारह-तेरह हजार मिल गये।“
इतनी बातें करने के बाद या कह लीजिये कि होने के बाद मेरे अन्दर इतनी हिम्मत न बच सकी कि मैं और बातें कर सकता। मैंने मोली साहब से कहा, “चलिये आपको आटो में बैठा देते हैं।“ आटो में बैठकर जाते वक्त मोली साहब ये कह गये कि, “दुआ में याद रखियेगा।“
मोली साहब के गये हुए आज दस दिन हो गये हैं। मोली साहब सिर्फ़ याद ही नहीं आते हैं, परेशान भी करते हैं। याद वो इसलिये आते हैं कि एक अजीब सा सच मुझे बता गये हैं और परेशान इसलिये करते हैं कि आम आदमी की जेब से ’मस्जिद की तामीर’ के नाम पर पैसा लेने वाले मुल्ला-मौलवी आधा पैसा अपनी जेब में डाल लेते हैं।
अब मैं इस कशमकश में हूँ कि मोली साहब के लिये क्या दुआ करूँ? ये कि, “या ख़ुदा! इन तथाकथित मक्कार मुल्ला-मौलवियों से बचा ले।“
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