अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मुनिया

 

“अरे, तू यहाँ बैठी आराम फरमा रही है? मैडम ने देख लिया तो ग़ुस्सा करेंगी। बोल-बोलकर मैडम का गला सूख गया होगा। जा, जाकर पानी दे आ,” रामकली ने अपनी बारह वर्षीया बिटिया को झिड़कते हुए कहा।

”लेकिन माँ, मैडम ने ही मुझे घर के अंदर रहने को कहा है, जब तक ये टीवी चैनल वाले चले नहीं जाते,” मुनिया ने उत्तर दिया। 

शान्ति देवी ग़रीब लड़कियों की शिक्षा के लिए एक संस्था चलाती थीं। शहर में बहुत नाम था उनका। इसलिए टीवी चैनल वाले आज उनका इंटरव्यू लेने उनके घर आए थे। कमरे के बाहर से गुज़रते हुए रामकली ने सुना कि शान्ति देवी कह रही थीं, “मैं बच्चों से काम करवाने की ख़िलाफ़ हूँ। मुझे लगता है कि हर ग़रीब बच्चे को उचित शिक्षा मिलनी चाहिए ताकि उनका भविष्य बेहतर हो सके। इस दिशा में काम करने एवं उचित क़दम उठाने को लेकर मैं प्रतिबद्ध हूँ। मेरी संस्था ने कई बच्चियों को पढ़ा-लिखाकर इस योग्य बना दिया है कि आज वे अच्छे पदों पर आसीन है।”

टीवी चैनल वालों के जाते ही शान्ति देवी अंदर आई तो रामकली ने बड़ी उम्मीद भरी नज़रों से शान्ति देवी को देखते हुए कहा, “मैडम, हमारी मुनिया भी आपकी संस्था की मदद से कुछ पढ़ाई-लिखाई कर ले . . . तो उसकी भी ज़िन्दगी सुधर जाए। मेरी कमाई से तो इतना कुछ बचता ही नहीं कि मैं इसकी पढ़ाई-लिखाई का ख़र्चा उठा सकूँ।” 

शान्ति देवी उसकी बात को अनसुना करते हुए मुनिया की ओर मुख़ातिब होकर बोली, “मुनिया, आज पंखों और खिड़की, दरवाज़ों की सफ़ाई करनी है। फिर बग़ीचे की भी सफ़ाई करनी है। और हाँ, शाम को मेहमान आने वाले हैं। इसीलिए शाम को तुझे यहाँ रहने की ज़रूरत नहीं है।” 

इतना कहकर वो मोबाइल पर किसी से अपनी संस्था के प्रचार प्रसार को लेकर चर्चा करने में मशग़ूल हो गईं। 

रामकली के शब्द हवा में ही तैरते रह गए। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं