पेट-रोल!
कथा साहित्य | लघुकथा यशोधरा भटनागर15 Nov 2022 (अंक: 217, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
“बाबा रोटी खालो! अम्मा तुमाई सोई थाली लगा दें?” झुमरी ने झटपट चूल्हे से रोटियाँ उतार, प्याज़, चटनी और हरी मिर्च रख थाली लगा दी।
“अम्मा हम पानी भी भर लात हैं। बिल्कुल ख़त्म हो गओ है। फिर मजूरी पे जै हैं।”
और हाथ में पिलास्टिक के डिब्बे पकड़े, बड़े-बड़े डग भरती झुमरी हैंडपंप के सामने लगी लाइन में खड़ी हो गई।
तभी सहसा एक ज़ोरदार धमाका . . . वह पत्ते सी काँप गई।
सामने पैट्रोल का टैंकर . . . धड़ाधड़ कर बहता पैट्रोल . . .
“इत्तो सारो पेटरोल!”
दिन भर मिरच के खेत में काम करत झुलसी देह कैसी जलत है . . . संग-संग झुलस रए हैं हमाए सपने . . .। और वो मरा ठेकेदार . . .।
आक थू . . . मुँह में इकट्ठा हो आया कसैलापन पूरी ताक़त से बाहर थूक दिया।
झट पिलास्टिक के डिब्बे पैट्रोल से भर आँखों में सपने सजाने लगी। आज रोटी के साथ दाल भी रांधेगी . . . और बैंगन का भुर्ता भी . . . कब से उसकी जीभ ललचा रही है . . . छोटे के लिए दूध भी . . .।
झट दूसरा डिब्बा भरने लगी।
आग का बड़ा सा गोला उछला . . . और . . . और बड़ा हो गया।
“बचाओ! बचाओ!”
बदहवास सी वह इधर-उधर दौड़ने लगी।
“दाल संग रोटी . . . बैंगन का भुर्ता . . . छोटे के लिए दूध . . . पानी . . . पेट रोल . . . आह! बचाओ! बचाओ!”
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