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प्रेम—पूर्ण जागरूकता

जो ख़ुद को सांसारिक द्वंद्वों में ख़ुद को खपा चुके हैं, उनके लिए ख़ुद को भीड़ से अलग करना ही समस्या नहीं अपितु जीवन में वापस लौटना, प्रेम में उतरना, सहज सरल होना, भी एक बड़ी समस्या है। प्रेम के बिना आप कुछ भी करें . . . आप कर्म की संपूर्णता को नहीं जान सकते। अकेला प्रेम ही आदमी को बचा सकता है यही सत्य है, हम लोग प्रेम में नहीं हैं। वास्तव में हम इतने सहज सरल नहीं रह गए हैं जितना हमें होना चाहिए, क्योंकि हम प्रतिष्ठा पाने, सामने वाले की अपेक्षा विशेष होने की कोशिश में लगे रहते हैं। यह सब अपने लिए हैं, दूसरों के नाम पर हम स्वार्थों के गर्त में डूबे हैं, हम कवच में समाए घोंघे की तरह हैं। 

हम समझते हैं कि हम ही इस सुंदर संसार का केंद्र बिंदु हैं। किसी फूल, किसी वृक्ष या बहती हुई नदी को देखने के लिए हम कभी भी नहीं रुकते और अगर कभी ठहर भी जाते हैं तो मन में चलते हुए कई विचार, स्मृतियाँ और न जाने क्या-क्या आँखों में उस दृश्य के सामने पर्दे की तरह पड़ जाते हैं; और हम उस दृश्य को नहीं देख पाते। हमारी आँखों में सौंदर्य और प्रेम नहीं उमड़ता . . . आप कहते हैं मैं—अपनी पत्नी से प्रेम करता हूँ, पर मैं नहीं जानती कि आपका प्रेम क्या है? मुझे तो संदेह होता है कि शायद ही आप किसी भी चीज़ से प्रेम करते हो . . . क्या आप प्रेम का अर्थ जानते हैं? क्या प्रेम आमोद-प्रमोद या मज़ा है? क्या प्रेम ईर्ष्या है? क्या वह व्यक्ति प्रेम कर सकता है जो महत्वाकांक्षी हो? एक व्यक्ति जो राजनीति या व्यापार जगत में एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति बनने के लिए संघर्षरत हो अथवा धार्मिक जगत में कोई संत बनना चाहता हो, प्रेम नहीं कर सकता . . . क्योंकि प्रेम करने के लिए इच्छा रहित होना होगा। महत्वाकांक्षाएँ और आक्रामकता इच्छाओं के ही अवयव हैं। क्या किसी प्रतियोगिता या दौड़ में शामिल होने वाला प्रेम में हो सकता है? आप सब प्रतियोगिता में हैं, अच्छी नौकरी बेहतर पद प्रतिष्ठा, अच्छा घर, अधिक महान विचार पाने में लगे हैं, अपनी सुस्पष्ट छवि बनाने में लगे हैं। आप इन सब से गुज़र ही रहे हैं, क्या यह सब प्रेम है? क्या आप तब प्रेम कर सकते हैं जब आप यह सब संपन्न करने की प्रक्रिया में हैं? जब आप पति-पत्नी या बच्चों पर अपना प्रभुत्व जमा रहे हो, जब आप ताक़त या शक्ति की खोज में लगे हो, तब क्या प्रेमी होने की कोई सम्भावना बचती है? इस तरह जितनी चीज़ें प्रेम नहीं है उन सब को नकारते, अस्वीकार करते हुए आप यहाँ पहुँचते हैं, वही प्रेम होता है। जब आप उन सब को नकार देंगे जो प्रेम नहीं है तब आप जानेंगे कि प्रेम क्या है, दरअसल जिन्हें आप समझते हैं कि आप प्रेम कर रहे हैं, क्या वाक़ई उन्हें आप प्रेम करते भी हैं? या नहीं? यह स्वयं से पूछे जाने वाला प्रश्न है क्योंकि प्रेम कभी घृणा में रूपांतरित नहीं होता, यदि वास्तव में वह है तो? 

आपकी ज़रूरत से ज़्यादा बड़ी अपेक्षाएँ हैं, जो अपूर्णता की दशा में घृणा, ईर्ष्या बन जाती हैं क्योंकि प्रेम तो केवल देना ही जानता है वह महत्वाकांक्षी नहीं होता। जो व्यक्ति किसी के प्रति ईर्ष्या-द्वेष से भरा है वह उससे कभी भी प्रेम कर ही नहीं सकता क्योंकि, उसका पात्र तो पहले से ही भरा हुआ है फिर प्रेम के लिए पात्र में स्थान कहाँ है? प्रेम के लिए तो पात्र का ख़ाली होना आवश्यक है। इंसान प्रेम की मौन भाषा जन्म से ही जानता है बस धीरे-धीरे समय के साथ दुनिया में आने के बाद भूलता जाता है, क्योंकि ईर्ष्या-द्वेष जैसी तमाम चीज़ें सीखना आसान लगता है। यदि सूक्ष्म रूप से देखा जाए तो यही रास्ता दुःसह है। प्रेम का रास्ता शुरू में कठिन लगता है पर आगे जाने पर समतल है, आनंदित करने वाला है। ईर्ष्या तो हमेशा के लिए क़ैदी बना लेती है, कभी मुक्त नहीं करती बल्कि प्रेम की झोली में भी घृणा की भिक्षा देती है। क्या क्षमा कर देना प्रेम है? मान लें आपने मेरा अपमान किया और मैं नाराज़ हो गई, मैंने कहा मैं आपको माफ़ करती हूँ, पहले तो मैंने अपमान को स्वीकार कर लिया लेकिन बाद में उसे अस्वीकार कर दिया . . . इसका मतलब है कि ’मैं’ ही केंद्र में है। यानी मैं वह हूँ जो किसी को क्षमा कर रही हूँ, जब तक क्षमा देने का मनोभाव रहता है तब तक मैं महत्त्वपूर्ण रहता है; ना कि व्यक्ति, जिसने मेरा अपमान किया है। यह प्रेम नहीं है, एक व्यक्ति जो प्रेम में है ज़ाहिर है कि उसमें शत्रु भाव होगा ही नहीं . . . इसलिए मान-अपमान जैसी सभी चीज़ों के प्रति वह तटस्थ रहेगा। आधिपत्य सूचक सम्बन्ध, ईर्ष्या और भय यह सब चीज़ें प्रेम नहीं है . . . यह सब मन है। अतीत का युग ऐसा था जब प्रेम बिकता नहीं था किन्तु आज प्रेम भी प्रैक्टिकल हो गया है; इसमें भी सौदा होने लगा है। यह प्रेम, दो आत्माओं का प्रेम है। वह दैहिकता से उठकर अलौकिक प्रेम है, इसमें प्रतिदान की आवश्यकता नहीं रहती। यह हमें समर्पण करना सिखाता है, हमें संपूर्ण पवित्रता की ओर ले जाता है, यह हमें नैतिक साहस लाता है। 

यह वह प्रेम है जो राधा और मीरा ने कृष्ण से किया था। राधा जिसने शरीर और आयु के बंधन से मुक्त होकर कृष्ण को चाहा था और मीरा, उसे तो इस बात से भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था कि कृष्ण, राधा के हैं या गोपियों के या किसी और के। सच्चा प्रेम कड़ी धूप में छतरी बन दूसरों को छाया देना चाहता है और उसकी ग़लतियों को अपने सिर लेकर उसे अपमानित होने से बचाता है; लोगों के बीच वार्तालाप में नहीं लाता, उसे सब से छुपा कर अपने हृदय के मख़मली डिबिया में सँजोकर रखता है . . . सच्चा प्रेम अपने साथी की गरिमा और प्रतिष्ठा को बनाए रखता है। एक दूसरे का आकर्षण एक दूसरे को प्रेम के बंधन में बाँधता है। ज़रूरी नहीं कि वह प्रेम दैहिक ही हो . . . दार्शनिकों के अनुसार यह संपूर्ण जीवन समष्टि के साथ एक हो जाने की यात्रा है और प्रेम इस यात्रा की पहली सीढ़ी है। क्योंकि, जब भी कोई व्यक्ति किसी के साथ प्रेम में पड़ता है तो वह उसके साथ अनंत गहराइयों में डूब जाता है। इससे उसे असीम आनंद की अनुभूति होने लगती है। यही नहीं, यही आनंद दिल की गहराइयों में पहुँचकर उसे व्याकुल भी कर देता है तथा उसकी प्यास को बढ़ा देता है। इन्हीं कारणों से व्यक्ति आनंद के विस्तार के लिए अन्य लोगों से भी प्रेम के सहारे जुड़ने के लिए प्रेरित होता है और इस तरह इसी प्रेम के सहारे समष्टि के साथ एक हो जाने की उसकी यात्रा शुरू हो जाती है। 

इसी तरह प्रेम भावुकता नहीं है, क्योंकि भावुकता एक उत्तेजना मात्र है; उत्तेजना विचार की प्रक्रिया है और विचार प्रेम नहीं है, इसलिए भावुकता एवं उत्तेजना में बह रहा व्यक्ति प्रेम नहीं जान सकता। हम भी तो ख़्यालों और भावुकता से भरे हैं। ख़्यालों और भावुकता में बह जाना अहम के विस्तार का ही एक रूप है क्योंकि यदि एक भावुक व्यक्ति की कल्पनाओं को निकलने की जगह नहीं मिलती तो वह बहुत क्रूर हो सकता है। एक भावुक व्यक्ति को नफ़रत या युद्ध के लिए भड़काया या उकसाया जा सकता है। जो व्यक्ति अपने धर्म के लिए आँसुओं से भरा होता है निश्चित ही उसके पास प्रेम नहीं होता . . . आज जिहाद के नाम पर तैयार किए जाने वाले नव युवकों की यही मनोदशा है। हम अपनी इच्छाओं के लिए पागल रहते हैं, ख़ुद को इच्छाओं से तुष्ट करना चाहते हैं लेकिन यह नहीं देखते कि वैयक्तिक सुरक्षा की इच्छा, व्यक्तिगत उपलब्धि, सफलता, शक्ति, व्यक्तिगत प्रतिष्ठा, आदि इच्छाओं ने इस संसार में क़हर बरपाया हुआ है। हमें यह अहसास तक नहीं है कि हम ही इन सब के ज़िम्मेदार हैं। 

अगर कोई इच्छा को, उसकी प्रकृति को समझ जाए, तो उस इच्छा का स्थान या मूल्य ही क्या है? क्या वहाँ इच्छा का कोई स्थान है जहाँ प्रेम है? जहाँ इच्छा हो क्या वहाँ प्रेम के लिए कोई जगह बची है? प्रेम कभी पाने का नाम नहीं रहा, वह तो हमेशा देय है, उसे देना ही पाना है और इस सत्य को जो जानते हैं वही धरती के सच्चे प्रेमी है! ख़लील जिब्रान ने एक गाँठ बाँधने वाली बात कही है; यदि आप किसी से प्रेम करते हैं, तो उसे जाने दें, क्योंकि यदि वह लौटता है तो आपका है और यदि नहीं आता है तो आपका था ही नहीं . . . आपने उसे जाने दिया वही आपका देय है और वही आपका ग्राह्य भी . . .। प्रेम एक दान है भिक्षा नहीं . . . प्रेम माँग नहीं भेंट है . . . प्रेम भिखारी नहीं सम्राट है . . . हम महज़ आकर्षण या मोहपाश को ही प्रेम समझने की भूल कर बैठते हैं। जो सच्चे प्रेमी होते हैं वे प्रेमी को कम, प्रेम के सौंदर्य को ज़्यादा पहचानते हैं, प्रेम की चमक उनके भीतर ही बसती है, प्रेम का सोता उनके भीतर ही बहता रहता है, उसकी आंतरिक बनावट उन्हें निखारती रहती है। प्रेम का आधार आंतरिक विश्वास है, उसका सबसे उत्कट मूल्य स्वतंत्रता है, जितनी अधिक स्वतंत्रता होगी जीवन में उतनी ही ताज़गी बनी रहेगी। 

प्रेम करने वालों को स्वतंत्रता और प्रेम के अंतर्सम्बन्ध की गहरी समझ होती है, प्रेम हमेशा कष्ट सहता है, ना कभी जलाता है, ना बदला लेता है। हम चूकते वहीं हैं जहाँ प्रेम को ऐसी वस्तु की तरह लेते हैं जो जेब में रखी जा सके, ऐसा है नहीं। प्रेम हथेली पर रखे पारे की तरह है मुट्ठी खुले रहने पर रहता है और भींचने पर निकल जाता है। दुनिया उन्हीं की है जिन्होंने उसे खुली हथेली पर रखा। जो कहते हैं प्रेम में मैंने कुछ नहीं पाया वह मुट्ठी भींचने वाले लोगों में से हैं। 

प्रेम के बिना आप नैतिक नहीं हो सकते, वास्तव में आपके पास प्रेम है ही नहीं, आपके पास ख़ुशियाँ हैं, मज़ा है, उत्तेजना या रोमांच है। ऐसा भी नहीं कि प्रेम बहुत पवित्र हो, या अपवित्र चीज़ हो, प्रेम में विभाग या भेद है ही नहीं . . . प्रेम का मतलब है कुछ ऐसा, जिसका आप ध्यान रखें, ख़्याल रखें जैसे किसी वृक्ष की देखभाल, संरक्षण या अपने ही बच्चों की देखभाल, या ख़्याल रखना यह ध्यान रखना कि बच्चे को उचित शिक्षा मिल रही है। यह नहीं कि स्कूल भेज दिया और भूल गए। उचित शिक्षा का मतलब यह भी नहीं कि उसे बस तकनीकी शिक्षा दी जाए . . . यह भी देखना कि बच्चे को सही शिक्षक मिले, सही भोजन पानी मिले। बच्चा जीवन को समझे। प्रेम के बिना आप नैतिक नहीं हो सकते, हो सकता है आप सम्माननीय हो जाएँ। आप चोरी नहीं करेंगे, पड़ोसी की पत्नी को नहीं देखेंगे, यह नहीं करेंगे, वह नहीं करेंगे लेकिन यह नैतिकता नहीं है . . . यह केवल सम्माननीयता के अनुरूप होना है . . . प्रेम किसी से भी नहीं किया जा सकता चाहे व्यक्ति अपनी पूरी ताक़त लगा दे। यह तो स्वतः हो जाने वाली प्रक्रिया है, यह कुछ ऐसा है जैसे हम किसी ऑक्सीजन चेंबर में प्रवेश कर जाएँ और हमें पता भी ना हो . . . और ऑक्सीजन हमारी नाक से होते हुए हृदय तक पहुँचती रहे, यह स्वतः होता है। ठीक इसी तरह प्रेम भी हमारे हृदय से होता हुआ चेतना को छूता है . . . यह अंतर यात्रा है, निरंतर चलने वाली . . . एक जीवन में नवजीवन का संचार है प्रेम, पृथ्वी पर जो प्रेम है परलोक में वही परमात्मा है, प्रेम जोड़ता है इसीलिए परम ज्ञान है। 

जब आप किसी को चाहते हैं तो यह एक प्रार्थना की तरह है। आपका प्रार्थना में होना है और जब जीवन में वह क्षण आता है जब कोई आपको प्रेम करता है, तो यह उस वरदान की तरह है जो प्रार्थना से प्रसन्न होकर ईश्वर देता है। क्योंकि प्रार्थना की नहीं जाती, प्रार्थना में हुआ जाता है। जहाँ प्रेम होता है वही नैतिकता, सहजता और सरलता होती है क्योंकि प्रेम पूर्ण जागरूकता का नाम है। 

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टिप्पणियाँ

सुमन आशीष 2022/09/15 01:46 PM

प्रेम आत्मा का ही विस्तार है। यह कोई "रिश्ता" नहीं है क्योंकि सभी रिश्ते दैहिक होते हैं किंतु प्रेम विदेह होता है , जो दैहिक है वह वासना है प्रेम नहीं। ये मेरे विचार हैं । ताज्जुब है पूरा आलेख पढ़कर मुझे यही लगता रहा कि यह यह आलेख मेरी आत्मा से होकर विस्तार ले रहा है। प्रेम पर इससे सुंदर लेख और क्या होगा? बधाई।

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