रूट्स की बातें (साक्षात्कार) शशि पाधा जी के साथ
साक्षात्कार | बात-चीत शुभ्रा ओझा1 Nov 2025 (अंक: 287, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
वर्जीनिया, अमेरिका की शशि पाधा जी प्रवासी हिन्दी साहित्य में एक जाना-माना नाम हैं। देश-विदेश की साहित्यिक काव्य गोष्ठियों एवं परिचर्चाओं में आपकी भागीदारी रहती हैं। आपने लगभग 25 वर्षों तक भारत और अमेरिका में अध्यापन कार्य किया हैं। आप साहित्य की लगभग हर विधा में लिखती हैं।
आपकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें—पहली किरण, मानस मंथन, अनंत की ओर, लौट आया मधुमास, मौन की आहटें, शौर्य गाथाएँ, निर्भीक योद्धाओं की कहानियाँ एवं यादों की अनुगूँज प्रमुख हैं। इसके साथ ही बहुत से सह संकलनों में भी इनकी रचनाएँ सम्मिलित की गई हैं। आपके द्वारा लिखे गीतों को अनूप जलोटा तथा अन्य गायकों द्वारा गाया जा चुका हैं। आपके सम्मानों में भारत सरकार द्वारा महर्षि दधीचि शौर्य कृति सम्मान, काव्य “संग्रह अनंत की ओर” के लिए केंद्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा पुरस्कार, राष्ट्र भाषा प्रचार समिति द्वारा हिन्दी लेखन में विशेष योगदान के लिए सम्मानित, वर्ष 2021 में अपर्णा फ़ाउंडेशन, वृंदावन द्वारा ‘डॉ. सर्वपल्लीराधाकृष्णन लाइफ़ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार’, अन्तर्राष्ट्रीय ई पत्रिका ‘सेतु’ द्वारा वर्ष 2022 में सैनिकों की शौर्यगाथाओं के लेखन के लिए ‘सेतु सम्मान’ जैसे अनेकों सम्मान सम्मिलित हैं।
आपकी कई रचनाएँ शिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रम में भी शामिल की गई हैं, जिनमें नॉर्थ कैरोलाइना विश्वविद्यालय, अमेरिका, संत गाडगे बाबा अमरावती, भारत हिन्दी विभाग का एम.ए. पाठ्यक्रम, सी.बी.एस.ई. के अन्तर्गत विद्यालय प्रमुख हैं।
शुभ्रा ओझा:
शशि जी, सर्वप्रथम तो आप यह बतायें कि कैसा लगता है जब आपके द्वारा लिखी गई रचनाएँ विद्यार्थी पढ़ते हैं?
शशि पाधा:
बहुत ख़ुशी होती है क्योंकि जब हम कोई भी रचना लिखते हैं तो हमें यह नहीं पता होता कि उस रचना को कौन पढ़ेगा? लेकिन जब उस रचना को आने वाली नई पीढ़ी पढ़ती है और उस रचना के अर्थ को समझने की कोशिश करती है तो हमारा एक सीधा जुड़ाव विद्यार्थियों के साथ हो जाता हैं। मेरे लेखन और हिन्दी साहित्य को नई पीढ़ी समझ रही है, यह बतौर एक लेखक मेरे लिये बहुत ख़ुशी की बात है।
शुभ्रा ओझा:
आप अपने परिवार के विषय में कुछ बताएँ?
शशि पाधा:
शुभ्रा, मैं भारत के एक ख़ूबसूरत शहर जम्मू से हूँ। जम्मू में पहाड़, झरने, ख़ूबसूरत वादियाँ, केसर और बहुत ठंडी हवायें हैं।
अगर आप मेरे परिवार के बारे में जानना चाहती हैं तो मैं आपको बताना चाहूँगी कि यह मेरा सौभाग्य है कि मैं ऐसे परिवार से आती हूँ जहाँ मेरे पिता प्रधानाचार्य थे तो वहीं मेरी माँ शिक्षिका। आप सोच सकती हैं कि उस समय मेरे माता-पिता के शिक्षित होने की वजह से घर में भी शिक्षा का ही माहौल था। हमारे खेलने के नाम पर घर में किताबें थी और संगीत था। मेरी माँ गाती थी और भाई भी। बचपन में मेरे घर में हारमोनियम, तबला, तानपुरा जैसे वाद्य यंत्र हुआ करते थे। मेरे बड़े भाई ने १५ साल की उम्र में ही गाना शुरू कर दिया था। हम भाई-बहन किताबें पढ़कर भक्ति संगीत और लोक गीत सुनकर ही बड़े हुए हैं। मेरा बचपन जिस वातावरण में गुज़रा उसी के अनुसार मेरी रुचियाँ भी हो गयी।
शुभ्रा ओझा:
भारत से अमेरिका कब और कैसे आना हुआ? कुछ इसके बारे में बतायें।
शशि पाधा:
मेरे पति ने चालीस साल भारतीय सेना में अपनी सेवाएँ दी हैं और उस समय मैं भी उनके साथ रही। जब मेरे पति सेना से रिटायर हुए तो हमारे सामने दो स्थितियाँ थीं। पहली कि हम भारत में रुक जायें और दूसरी कि हम अपने दोनों बेटों के पास अमेरिका आ जायें। क्योंकि उस समय मेरे दोनों बेटे यहाँ अमेरिका में ही थे। बच्चों के साथ रहने का मोह और अपने पोते-पोतियों को खिलाने की इच्छा से हम दोनों ने अमेरिका आने का निर्णय लिया। उस समय हमने सोचा था कि नये देश और परिवेश में जाकर ख़ुद को ढालने की कोशिश करेंगे, अगर सब ठीक रहा तो वहाँ रुकेंगे नहीं तो वापस भारत आ जायेंगे। देखो, बच्चों की ख़ातिर यहाँ आये और यहीं रुक गये। मैं यहाँ एक बात और बताना चाहूँगी कि सन् 2000 के समय जब हमने अमेरिका आने का फ़ैसला लिया था उस समय मैं भारत में एक लेखिका के तौर पर अपनी पहचान बना चुकी थी। मैं काव्य पाठ करती थी, लोग मुझे सुनते थे और सराहते थे। उस समय भारत में सब कुछ छोड़कर अमेरिका आना मेरे लिए आसान नहीं था लेकिन अपने बच्चों के लिए मैंने यहाँ अमेरिका आना स्वीकार किया।
शुभ्रा ओझा:
आपसे जानना चाहेंगे कि आपने लिखना कब शुरू किया?
शशि पाधा:
बचपन में ही। जब मैं बहुत छोटी थी तब मैं छोटी-छोटी कविताएँ लिखती थी और अपने पिताजी को सुनाती थी। वो मेरी सारी कविताएँ बहुत ध्यान से सुनते और दो शब्द कहते “बहुत अच्छे।”
मुझे अब भी याद है कि उस समय “रेडियो जम्मू” एक ऐसा मंच था जहाँ बच्चे अपनी कविताएँ, गीत और कहानियाँ सुनाते थे। बच्चों को अपनी प्रस्तुति के लिए वहाँ जाना होता था। मैं लगभग पाँच वर्ष की उम्र से “रेडियो जम्मू” कार्यक्रम पर अपनी कविताएँ सुनाने जाती थी। फिर स्कूल में जब गई तो धीरे-धीरे लिखना बढ़ता गया। मैंने स्कूल में नाटक और परिचर्चा में भी ख़ूब भाग लिया। कॉलेज में जाने पर मैंने कॉलेज की पत्रिका का संपादन भी किया, जिसके अंतर्गत मुझे हिन्दी, संस्कृत और संगीत विभाग मिले। उस दौरान मुझे ख़ूब लिखना भी पड़ा और लिखने का शौक़ तो मुझे था ही, तो कुछ इस तरह मेरे लिखने की शुरूआत हुई।
शुभ्रा ओझा:
आपकी पहली रचना कब और कहाँ प्रकाशित हुई थी?
शशि पाधा:
वैसे तो कई रचनाएँ कॉलेज के समय प्रकाशित हुई हैं, लेकिन मैं उस समय की बात बताना चाहूँगी जब मैं पंजाब में थी तो वहाँ का एक सुप्रसिद्ध दैनिक समाचार-पत्र “पंजाब केसरी” में मेरी रचनाएँ प्रकाशित हुई थीं। शुभ्रा इसके पीछे भी एक मज़ेदार क़िस्सा है। हुआ यह कि पंजाब केसरी के संपादक हमारे घर आये हुए थे और बातों ही बातों में उन्हें पता चला कि मैं लिखती हूँ तो उन्होंने समाचार पत्र में मेरी रचनाओं को भेजने का आग्रह किया, मैंने भेजी और वो प्रकाशित भी हुई। उसके बाद मैंने लगातार पाँच वर्षों तक हर हफ़्ते एक कॉलम पंजाब केसरी के लिए लिखा।
शुभ्रा ओझा:
उस समय की आपकी कोई कविता जो अब भी आपको पसंद हो, क्या आप कुछ पंक्तियाँ पाठकों के समक्ष रखना चाहेंगी?
शशि पाधा:
हाँ, ज़रूर। मेरी एक कविता आप सभी के समक्ष।
मंदिर की ज्योत
मैं मंदिर की ज्योत, मुझे प्रात तक जलने दो!
न मैं सोना, न मैं चाँदी
न हीरा न पन्ना,
चंपा, न चमेली जैसी
न बेला सुपर्णा
मैं मोती अनमोल, मुझे सीपी में पलने दो!
ऊँचे पर्वत से मैं उतरी
धरती पर मैं पली बढ़ी
प्रिय मिलन की आस लिए मैं
लहर-लहर में उमड़ पड़ी
मैं नदिया की धार, मुझे सागर तक बहने दो!
इन्द्रधनु सी सतरंग चुनरी
ओढूँ, रूप सजाऊँ
साँसों में भर ख़ुश्बू भीनी
फूलों सी मुस्काऊँ
मैं वासंती नार, मुझे दुलहन सा सजने दो!
वीणा की तारों के सुर में
मेरा ही मृदु हास मिला
नुपूर की छन छन में मेरी
धड़कन का संगीत घुला
मैं हूँ राग बहार, मुझे गीतों में सजने दो!
मैं मंदिर की ज्योत, मुझे प्रात तक जलने दो!
शुभ्रा ओझा:
आपकी कविताओं में प्रेम की अभिव्यक्ति बहुत ही कोमल ढंग से होती हैं, इसके बारे में आप कुछ कहना चाहेंगी?
शशि पाधा:
शुभ्रा, प्रेम तो एक ऐसा तत्त्व है जो सबको बाँध कर रखता हैं, जो रिश्तों, जातियों, धर्म, प्रकृति और मन को बाँधता हैं। प्रेम से ख़ूबसूरत तत्त्व तो संसार में हो ही नहीं सकता। प्रेम ही एक ऐसी निधि है कि आप जितना दोगे उतना आपको मिलेगा। मुझे प्रेम मिला, मैंने प्रेम को प्रकृति में देखा और उसमें ही कविताओं को ढाल दिया।
शुभ्रा ओझा:
आपकी रचनाओं में छायावादी सौंदर्य भी देखने को मिलता है, इसका क्या कारण है?
शशि पाधा:
सच बताऊँ शुभ्रा तो मुझे पता ही नहीं था कि मेरी रचनाओं में छायावाद की झलक दिखती है। पाठकों ने मेरी रचनाओं को पढ़ा और उनकी प्रतिक्रियाओं से मुझे पता चला कि छायावादी सौंदर्य मेरी रचनाओं में हैं।
कभी-कभी कुछ चीज़ें स्वतः रचनाओं में आ जाती हैं पर यहाँ पर मैं एक बात ज़रूर बताना चाहूँगी कि मैंने महादेवी जी, जयशंकर प्रसाद जी, अज्ञेय जी और निराला जी को बहुत पढ़ा, हो सकता है यही वजह रही होगी कि मेरी रचनाओं में प्रकृति के मानवीकरण की छाप आ गई हो।
शुभ्रा ओझा:
आपने कई पुस्तकें लिखी हैं जिनमें कहानी संग्रह, काव्य संग्रह और संस्मरण संग्रह हैं। क्या आप अपने संस्मरण के विषय में बतायेंगी कि ये आपके जीवन के किस पहलू को दर्शाते हैं?
शशि पाधा:
मैं एक सैनिक पत्नी हूँ। मैंने सैनिक जीवन को देखा ही नहीं बल्कि जिया और भोगा भी है। मेरा सैनिकों के साथ माँ, बहन और भाभी जैसा रिश्ता रहा है। कारगिल युद्ध के दौरान मेरा मन बहुत क्षुब्ध रहता था क्योंकि मैंने उन्हें देखा था। उससे पहले भी मैंने अपने पति और उनकी यूनिट 9 पैरा कमांडो, 1 पैरा कमांडो को कई अभियानों में जाते देखा। बाद में मैंने सोचा कि सेना में सैनिकों का जो जज़्बा और जुनून हैं वो दुनिया के सामने आना चाहिये। इसी विचार के साथ मैंने संस्मरण लिखना शुरू किया। उस समय यह नहीं सोचा था कि यह संस्मरण एक संग्रह बन जायेगा। मेरी दो किताबें संस्मरण पर आयी थी, पहली, “शौर्य गाथाएँ”, इसमें हमारे सैनिकों की वीर गाथा और उनके अभियान का वर्णन हैं जिनमें से कई वीरों को मैं व्यक्तिगत तौर पर जानती थी।
मेरी दूसरी संस्मरण किताब “निर्भीक योद्धाओं की कहानी”, इसमें मैंने उन वीरों के साथ ही उनके परिवार वालों के बारे में लिखा हैं कि कैसे वो ख़ुद को सम्भालते हैं और कैसे विषम परिस्थितियों में अपने विश्वास को बनाये रखते हैं।
शुभ्रा ओझा:
फ़ौज में रहते हुए आपने सैन्य जीवन को जिया है, क्या कोई ऐसी घटना जो अब भी आपको याद है?
शशि पाधा:
शुभ्रा, फ़ौज में रहते हुए बहुत से अच्छे, कठिन अनुभव हुए हैं। यहाँ एक बात बताना चाहूँगी। सैन्य अधिकारी की पत्नी होते के नाते मुझे शहीद हुए सैनिकों के घर जाकर यह बताना होता था कि “वह सैनिक शहीद हो गया है अब वो नहीं आयेगा।” यह मेरे लिये बहुत ही मुश्किल काम होता था। मुझे कई घंटे लग जाते थे ख़ुद को तैयार करने में और यह बात उस परिवार को बताने में। लेकिन मैं यहाँ एक बात कहना चाहूँगी कि सेना में जो यूनिट होती हैं वो शहीद परिवार के साथ हमेशा खड़ी रहती हैं और उनके बच्चों के परवरिश में भी पूरा सहयोग करती हैं।
इसी से जुड़ा हुआ एक वाकया बताना चाहूँगी। एक बार एक कैप्टन के शहीद होने की ख़बर मुझे उनके घर देनी थी और जो उस कैप्टन की पत्नी थी। उसका वधू प्रवेश अपनी यूनिट में मैंने ही कराया था। शुभ्रा अब तुम सोच सकती हो कि उस नव वधू को कैप्टन के बारे में बताना मेरे लिये कितना कठिन काम रहा होगा!
शुभ्रा ओझा:
आप जब कभी विचलित होती हैं तो आपको हिम्मत कहाँ से मिलती है?
शशि पाधा:
जीवन पथ पर चलते-चलते
कुछ खोया कुछ पाया मैंने,
यादों की गूँथी माला में
सुख-दुःख को साथ पिरोया मैंने . . .
ये मेरी कविता की कुछ पंक्तियाँ हैं। इसी के माध्यम से मैं बताना चाहूँगी कि अपने मुश्किल समय में मैं अपने सुख और दुःख को एक साथ तौलती हूँ और पाती हूँ कि सुख के साथ सौभाग्य का पलड़ा सदैव भारी रहता हैं। मैं उन सुख के पलों के लिए ईश्वर को धन्यवाद देती हूँ और उन्हीं सुखद पलों के सहारे मुश्किल समय को भी काट लेती हूँ।
शुभ्रा ओझा:
आपने भारत में हिन्दी, संस्कृत और फिर अमेरिका में “चैपल हिल विश्वविद्यालय, नॉर्थ कैरोलाइना” में हिन्दी अध्यापन का कार्य किया, दोनों जगहों के अध्यापन में क्या अंतर दिखा?
शशि पाधा:
शुभ्रा, बहुत अन्तर है। दोनों जगहों में ज़मीन और आसमान का अन्तर है, पढ़ाने की पद्धति, कक्षा का वातावरण और अध्यापक-विद्यार्थियों का सम्बन्ध, ये कुछ ऐसे कारक हैं जो अध्यापन विधि को निर्धारित करते हैं। मैंने भारत में पढ़ा है और पढ़ाया भी है। तो मैंने यह महसूस किया है कि वहाँ पाठ्यपुस्तक पर आधारित शिक्षा प्रणाली होती है और बना बनाया पाठ्यक्रम भी होता है। अध्यापक के रूप में आपको उस शैक्षिक वर्ष में उस पाठ्यक्रम को पूरा करना होता है। जबकि यहाँ अमेरिका के विश्वविद्यालयों में अध्यापक के रूप में आप अपना पाठ्यक्रम विद्यार्थियों के अनुसार स्वयं बना सकते है। अपनी कक्षा को अपने अनुसार सुनियोजित करने की आपको पूरी छूट होती है। मैंने स्टार टॉक कार्यक्रम के अंतर्गत हिन्दी शिक्षण की ट्रेनिंग भी ली थी। जिसके अंतर्गत मुझे यह बताया गया था कि बच्चों को आम बोलचाल की भाषा में हिन्दी कैसे सिखायी जाती है। इसके साथ ही मैं टेलीविज़न, कविता, चित्रों के माध्यम से भी बच्चों को हिन्दी सिखाती थी और त्योहारों के माध्यम से भारतीय संस्कृति। उस समय मेरे कुछ दोस्त बच्चों को हिन्दी फ़िल्मी गीतों के माध्यम से सिखाते थे। मुझे अमेरिका में बच्चों को हिन्दी पढ़ाने में बहुत मज़ा आया।
शुभ्रा ओझा:
अमेरिका में रह रहे नये हिन्दी लेखकों को क्या सलाह देना चाहेंगी?
शशि पाधा:
बस यही कहना चाहूँगी कि ख़ूब पढ़िए और इसके बाद लिखिए। यहाँ अमेरिका में हिन्दी किताबें और पत्रिकाएँ ज़्यादा नहीं मिलती तो मैं नये लेखकों को कहूँगी कि आप इंटरनेट पर अपनी पसंद की रचनाएँ ढूँढ़ कर पढ़िए लेकिन पढ़िए ज़रूर, उसके बाद लिखिए। दस कविताएँ पढ़ने के बाद एक कविता लिखिए।
शुभ्रा ओझा:
आज के परिवेश में आप अभिभावकों को क्या सलाह देना चाहेंगी कि वो बच्चों को साथ मिलकर कैसे सम्हालें? जबकि आपने तो अकेले अपने बच्चों की परवरिश की होगी।
शशि पाधा:
सर्वप्रथम आप स्वयं अपने बच्चों के लिए उत्तम उदाहरण बनें। क्योंकि बच्चे जो देखते हैं वही आत्मसात करते हैं। आपके बोलने का अन्दाज़, आपकी दिनचर्या, आपके संस्कार सभी कुछ बच्चों के समक्ष रहते हैं, तो आपसे ही आपके बच्चों का चरित्र निर्माण होगा।
जहाँ तक मेरे बच्चों को अकेले पालने का प्रश्न रहा तो मेरे पति फ़ौज में सीनियर ऑफ़िसर थे और फौज़ तो अपने आप में पूरा परिवार हैं। फ़ौज में ‘वन फ़ॉर ऑल’और ‘ऑल फ़ॉर वन’का सिद्धान्त रहता है। मेरे पति अधिकतर बाहर ही रहे इसलिए बच्चों के सभी काम मुझे अकेले ही करने पड़े। लेकिन फ़ौज जैसे परिवार के साथ कभी कोई कमी महसूस नहीं हुई।
शुभ्रा ओझा:
क्या आप अपनी कोई पसंदीदा कविता के बारें में पाठकों बताना चाहेंगी?
शशि पाधा:
जी ज़रूर, मैं अपनी उस कविता के बारें में पाठकों को बताना चाहूँगी जिस कविता को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने पढ़ने के बाद मुझे पत्र भेजा था, उसका शीर्षक है—“ऐ हिमालय की सर्द हवाओं”
शुभ्रा ओझा:
आपका आदर्श कौन है?
शशि पाधा:
मेरे माता-पिता और सासू माँ मेरे आदर्श रहे हैं।
शुभ्रा ओझा:
तीन ज़रूरी चीज़ें जो आपके लिए महत्त्वपूर्ण हैं?
शशि पाधा:
संगीत, किताबें और पर्यटन। ये तीन चीज़ें मेरे लिये ज़रूरी हैं।
शुभ्रा ओझा:
ख़ुश रहने के लिए क्या ज़रूरी हैं?
शशि पाधा:
आत्मसंतुष्टि और अच्छे मित्र ख़ुश रहने के लिये बहुत ज़रूरी हैं।
शुभ्रा ओझा:
प्रशंसा के लिए वो कौन से दो शब्द जो आपको बार-बार सुनना पसंद है?
शशि पाधा:
सच बताऊँ शुभ्रा तो आप के उम्र की लड़कियाँ जब मुझसे मिलती हैं और मुझसे कहती है कि “आप बिलकुल मेरी माँ जैसी हैं।” तो मुझे बहुत अच्छा लगता है।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
ऑस्ट्रेलिया की प्रमुख हिंदी लेखिका रेखा राजवंशी के साथ पूर्णिमा पाटिल की बातचीत
बात-चीत | पूर्णिमा पाटिलआइये, इस वर्ष हिंदी दिवस पर बात करें…
ऑस्ट्रेलिया की हिंदी साहित्यकार भावना कुँवर से संवाद
बात-चीत | डॉ. नूतन पांडेययूँ तो डॉ. भावना कुँवर जी भारत में…
कहाँ है वह धुआँ जो नागार्जुन ढूँढ रहे थे
बात-चीत | प्रदीप श्रीवास्तवनागार्जुन आजीवन सत्ता के प्रतिपक्ष में रहे…
कुमार रवीन्द्र से अवनीश सिंह चौहान की बातचीत
बात-चीत | डॉ. अवनीश सिंह चौहान[10 जून 1940, लखनऊ, उत्तर प्रदेश में जन्मे…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
बात-चीत
कहानी
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं