रूद्राणी पंच दिवसीय साहित्य महोत्सव ओरछा
संस्मरण | यात्रा-संस्मरण डॉ. सत्यदेव प्रसाद द्विवेदी ‘पथिक’1 Jul 2024 (अंक: 256, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
ये नर्वाङ्न परश्चरन्तिन ब्राह्मणासो न सुतेकरासः।
त एते वाचमभिपद्य पापया सिरीस्तन्त्रं तन्वते अप्रजज्ञयः॥-ऋ. 10-71-9
इमे ये—ये जो लोग, न अर्वाङ्—न अपरा विद्या अर्थात प्रेय मार्ग का, न परः—न ही पराविद्या अर्थात श्रेय मार्ग का चरन्ति-अवलम्बन करते हैं, न ब्राहमणासः—न ज्ञानी होते हुए, न सुकेरासः—न कर्म-काण्डी होते हैं। ते एते—वे लोग, पापया-पाप की रीति से, वाचम्—वेदवाणी को, अभिपद्य—प्राप्त करके, सिरीः—मकड़ी के समान, तन्त्रं तन्वते—जाल फैलाते रहते हैं। अप्रजज्ञयः—ऐसे लोग अज्ञानी, पाखण्डी के समान होते हैं।
इसी बात को मुण्डकोपनिषद में शौनक महाशाल को अंगिरस ऋषि ने अपरा और परा दो विद्याओं के रूप में उपदेश दिया है। वेद, वेदाग्ङों का स्थूल शब्दार्थ ज्ञान अपरा विद्या कहलाती है। जिससे धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए कर्मकाण्ड, शिक्षण या व्यवसाय कार्य करते हैं। सूक्ष्म ज्ञान परा विद्या है। जिससे अक्षर ज्ञान की प्राप्ति होती है, साधना से ब्रह्मानुभूति का पथ प्रशस्त होता है। कठोपनिषद में यम ने इसी को अपरा को प्रेय मार्ग तथा परा को श्रेय मार्ग नाम दिया है। हमें चाहिए कि उन अज्ञानियों की श्रेणी में रहकर अपनी रुचि के अनुसार वेदोक्त प्रेयमार्ग या श्रेय मार्ग का अललम्बन करें।
वेदोक्त प्रेयमार्ग को प्रशस्त करने के लिए मध्य प्रदेश के निबाड़ी जनपद की पौराणिक नगरी ओरक्षा में रूद्राणी कला ग्राम में प्रदेश की सांस्कृतिक मन्त्रालय की सहायता से आयोजित ‘रूद्राणी पंच दिवसीय साहित्यिक महोत्सव’ में प्रतिभागी के रूप में अपनी अभिरुचि के अनुसार बुन्देली भाषा की संगोष्ठी के लिए सुप्रसिद्ध पत्रकार, सम्पादक एवं समीक्षक श्री सुरेन्द्र अग्निहोत्री जी के साथ उ.प्र. सांस्कृतिक मंत्रालय के सहयोग से प्रातः नौ बजे ओ.सी.आर. बिल्डिंग, अग्निहोत्री जी के निवास से ओरछा नगरी के लिए प्रस्थान किये। यात्रा के लिए प्रयुक्त कार में श्री सुरेन्द्र अग्निहोत्री जी, उनके सहयोगी सिंह साहब और मैं तथा ड्राइवर सहित कुछ चार लोगों की यात्रा लगभग 400 कि.मी. की आरंभ हुई।
यात्रा का प्रथम पड़ाव झाँसी जनपद के ‘मोठ’ क़स्बे में किया गया। जहाँ जलपान के लिए एक मिष्ठान भण्डार के पास गाड़ी रोकी गई। जलेबी, समोसा चटनी के साथ हम चारों ने जलपान किया। श्री सुरेन्द्र अग्निहोत्री जी जो इसी क्षेत्र से सुपररिचित भी थे द्वारा जलपान की व्यवस्था की गई थी। अग्निहोत्री जलपान के पश्चात मिष्ठान के रूप में खोये की गुझिया ले आये और बोले, “‘पथिक’ जी यह गुझिया यहाँ की विशिष्ट पहचान है, खायेंगे तो हमेशा याद करेंगे।” फिर क्या हम सभी ने प्रेम से गुझिया खायी। वाकई गुझिया अपनी पहचान बनाने में समर्थ दिखाई दी और स्वाद से प्रभावित होकर एक किलो गुझिया मैंने रास्ते के लिए खरीद ली। आज भी जब वहाँ की बात चलती है तो मिष्ठान में गुझिया की चर्चा अवश्य होती है। बाद में अग्निहोत्री जी अपनी ससुराल में कार्यक्रम विशेष में गये तो ‘गुझिया’ हम सभी के लिए दुबारा भी लाये थे।
अगला और अंतिम पड़ाव ओरछा स्थित रूद्राणी कलाग्राम था। हम सब लगभग सायं चार बजे कार्यक्रम स्थल पर पहुँच चुके थे। ‘रूद्राणी कला ग्राम’ बड़े मनोयोग से फ़ार्म हाउस के रूप में विकसित किया गया था। ओरछा के पास जामिनी नदी का पुल पार करके विन्ध्याचल शृंखला की तलहटी जिसके दूसरी तरफ़ बेतवा नदी, जिसे पुराणों में ख्याति लब्ध ‘वेत्रवती’ के नाम से जाना जाता है की धारा निर्मल सतत प्रवाहित है, के पास यह कला ग्राम के रूप में लगभग पचास बीघे में विकसित है।
रूद्राणी कला ग्राम में प्रवेश द्वार के दक्षिणी किनारे पन्द्रह फ़ुट चौड़ी सड़क लाल मिट्टी वाली एक छोर से दूसरी छोर तक सम्पर्क मार्ग के रूप में निर्मित है। मुख्यद्वार से दोनों तरफ़ छायादार एवं आकर्षक पुष्प वाले पौधे रोपित किये गये थे। घना छायादार पेड़ ऐसे कि उसके नीचे कुर्सियाँ डाल कर चौपाल के रूप में कार्यक्रम सम्पन्न होते थे। पूरा फ़ार्म हाउस अभी कुछ दिन पहले ही ट्रैक्टर से जुताई किया हुआ लग रहा था। पूरे फ़ार्म हाउस की मिट्टी गेरूए रंग की दिखाई दे रही थी। बायी तरफ़ फ़ार्म हाउस के सात बड़े बड़े कमरे बने हुए थे। जिसमें मेहमानों के रुकने की आवश्यक आवश्यकताएँ उपलब्ध थीं। कमरों के आगे मुक्त आकाश में नृत्यकला मंच और सीमेन्ट की गोलाकार रूप में दर्शक दीर्घिका भी बनी हुई थी। मंच के आगे चलचित्र के लिऐ विशाल कक्ष सुसज्जित था। पूरे कला ग्राम को दीवारों एवं पेड़ पौधों वृक्षों को चित्रों कई प्रकार के रंगों से रंजित किया गया था। पूरा रूद्राणी कला ग्राम दुल्हन की तरह सजाया गया था। लगता है फिल्म अभिनेता राजा बुन्देला और उनकी पत्नी फिल्म अभिनेत्री सुष्मिता मुनर्जी जी के कला प्रेम को साकार रूप दिया गया था। कलाग्राम देखकर प्रथमतः तो हम सब हतप्रभ रह गये। बाद में राजा बुन्देला के सुन्दर सफल प्रयास मेहमानदारी देखकर प्रभावित भी हुए। दो घण्टे रुकने के पश्चात हमने सभी रात्रि निवास के लिए झाँसी में रहने का निर्णय लिया और वापस लगभग बीस कि.मी. चलकर पुनः झाँसी आ गये और होटल में कमरा लेकर रात्रि निवास के लिए अटैची, बैग रखकर व्यवस्थित हुए।
रूद्राणी साहित्य महोत्सव का प्रथम दिवस साहित्यकारों के आने एवं कलाकारों द्वारा आपसी परिचय, जलपान के पश्चात कार्यक्रम का औपचारिक उद्घाटन एवं कार्यक्रमों की रूप-रेखानुसार दिन समय, विषय का निर्धारण एवं वक्ता को गोष्ठी में विषय प्रवर्तन की रूपरेखा आदि के उपरान्त समाप्त हुआ। वापस झाँसी में आकर हम सभी झाँसी भ्रमण के लिए निकले। अग्निहोत्री जी के नेतृत्व में झाँसी का क़िला, रानी लक्ष्मी बाई का संग्रहालय, झाँसी की रानी का महल, गंगाधर राव पार्क, जैन मंदिर, झाँसी जनपदीय पुरातत्व निदेशालय आदि घूमते हुए हम तीनों ने एक पान की दुकान पर पान खाये। यों तो पान 15/- का एक पान लिया लेकिन पान के स्वाद ने क़ीमत को दबा दिया था। पान इतना मस्त था कि हम तीनों ने स्वीकार किया कि पान वाक़ई मस्त स्वाद वाला था।
कार्यक्रम के दूसरे दिन झाँसी से हम लोग प्रातः 8 बजे कला ग्राम पहुँच गये। खानपान का उत्तम प्रबंध था। जलपान के उपरान्त कार्यक्रम का आरंभ हुआ विश्वविद्यालय स्तर से एवं क्षेत्रीय प्रसिद्ध कवि साहित्यकारों, कलाकारों का समूह दिखाई दिया। कार्यक्रम में भागीदार फ़िल्मी कलाकरों, साहित्यकारों एवं गोष्ठी के वक्ताओं की अपेक्षा श्रोतागण की उपस्थिति प्रभावी नहीं थी। दूसरा दिन गोष्ठी एवं वार्तालाप का था। जिसमें बुन्देली भाषा का विकास एवं साहित्य के क्षेत्र में योगदान का था। एक अन्य विषय जिसमें खड़ी बोली साहित्य एवं भाषा में बुंदेली भाषा एवं साहित्य का योगदान था। इसमें मेरी भी भागीदारी सुनिश्चित की गयी। मेरे साथ श्री सुरेन्द्र अग्निहोत्री जी, डॉ. निधी अग्रवाल, रमाशंकर भारती जी, प्रसिद्ध पत्रकार श्री गिरजा शंकर जी एवं विषय प्रवर्तन के लिए फिल्म अभिनेत्री सुष्मिता मुनर्जी जी उपस्थित थीं। सभी वक्ताओं को सम्मानित किया गया तथा भागीदारी का प्रमाण पत्र भी दिया गया।
कार्यक्रम का तीसरा दिन विविध आयामी था। जिसमें बुंदेली कहानियों, लोक कथाओं, लोक गायकों एवं क्षेत्रीय, बुंदेली भाषा और साहित्य के विकास पर विस्तृत परिचर्चा की गई। आरिफ शहडोली, डॉ. निधि अग्रवाल तथा बुन्देल खण्ड विश्वविद्यालय झाँसी के हिन्दी विभाग के प्रोफ़ेसर डॉ. मुन्ना लाल तिवारी एवं उनकी सयोगीगण मुख्य वक्ता थे। कार्यक्रम में झाँसी वि.वि. के स्नातकोत्तर कक्षा के छात्रगण भी आमंत्रित थे। कार्यक्रम दोपहर के भोजनोपरान्त पुनः लगभग तीन बजे आरंभ हुआ और देर-रात तक चलता रहा।
साहित्यमहोत्सव का यह कार्यक्रम चौथे दिन पूर्णतः कला, फ़िल्म महोत्सव के रूप में बदल गया। पिछले तीन दिनों की अपेक्षा चौथे दिन की भीड़ अधिक थी। कार्यक्रम की संयोजिका जब स्वयं अभिनेत्री सुष्मिता मुनर्जी जी थी और संयोजक फ़िल्म अभिनेता श्री राजा बुन्देला जी थे तो बड़े-बड़े कलाकारों का आगमन तो बनता ही है। जिनमें चाणक्य सीरियल के निर्माता निर्देशक, अभिनेता डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी, फ़िल्म अभिनेता श्री राजेन्द्र गुप्त जी सपत्नीक पधारे थे। फ़िल्म निर्माता निर्देशक अभिनेता श्री यशपाल जी का आगमन बड़े आवभगत के रूप में किया गया। फिर आरंभ हुआ गीत-संगीत और लोकाधारित बुंदेली लोकगीतों की शृंखला। एक से एक गीतों एवं नृत्य का उत्कृष्टतम प्रस्तुतीकरण ऐसा हुआ कि इस महोत्सव में आना सफल हो गया। बुंदेली लोकगीत बड़े आकर्षक होते है क्षेत्रीयता का पुट मनमोहक होता है।
बुन्देली कला, संस्कृति, रीति-रिवाज़ यहाँ की माटी की विशेषताओं को समेटे हुए दिखाई देती है। वस्तुतः बुंदेली सभ्यता संस्कृति ओज, स्वाभिमान, सत्कार एवं मिठास भरे अपनापन के लिए जानी जाती है। स्वाभिमानी इतने कि जैसे भी रह लेंगे, अपने द्वार पर किसी की चाकरी स्वीकार नहीं। वीरता, त्याग, बलिदानी पंरपरा यहाँ भी विरासत में पायी जाती है। यहाँ की परंपरा, प्रथाओं, विरासत एवं धरोहरों पर देश को गर्व है।
पृथ्वी पर कहीं राजाराम है तो ओरछा में है। उनके चरण युगल को धोने का सौभाग्य वेतवा (वेत्रवती) नदी को है। अयोध्या में राम ईश्वर है, वनवासी हैं, किन्तु ओरछा की रानी ने राम को ओरछा की गद्दी सौंप दी। सिंहासन दे दिया। यहाँ राजाराम का आदर्श राजा प्रजा का लोक भावन रूप है। रामराज्य की प्रथम परिकल्पना ओरछा में ही की गई। सर्व सम्पन्न, सुखी, परमार्थी, सुराज, स्वराज्य, श्रेष्ठराज्य का स्वप्न राजाराम के रूप में ओरछा में स्थापित किया गया।
इन बुन्देली लोक प्रस्तुति के उपरान्त मध्यावकाश हुआ। इस बीच सायं 5 बजने वाले थे। मंच के पीछे से पहाड़ी पर चढ़ने की सीढ़ी पत्थरों से बनी हुई थी। हम सभी पहाड़ी पर चढ़ गये। सुरेन्द्र अग्निहोत्री जी मेरे अनुज सम है। उन्हें बुन्देली वैशिष्टय से मुझे परिचय कराने की अभीसा बलवती रहती है। क्यों न हो उनकी जन्म भूमि बुन्देली भूमि ही है। वे ललितपुर निवासी है और प्रबुद्ध सचेतक मनस्वी भी हैं। लेखन उनका व्यसन है। पत्रकारिता के कारण क्षेत्र भ्रमण करना ही पड़ता है। इसलिए वे बुन्देली भूगोल, इतिहास, लोक साहित्य, अस्मिता और अस्तित्व से सुपरिचित है। जिसका प्रचार-प्रसार वे अपना दायित्व समझते है। पता चला कि वेतवा, जामिनी, सातार आदि पाँच नदियों का संगम ओरछा के पास है। पाँच नदियाँ वर्षा काल में स्पष्ट मिलती हुई दिखाई देती हैं। कलाग्राम की पहाड़ी से ओरछा का राजाराम मंदिर भी दिखाई देता है। आज भी घने जंगलों, नदियों, पहाड़ी शृंखलाओं से मण्डित यह क्षेत्र प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए जाना जाता है।
उ.प्र. एवं म.प्र. की सीमा को निर्धारित करने वाली बुन्देल खण्ड की पावन अपौरूषेयधरा प्राकृतिक छटाओं से अभिभूषित यह भूमि आवभगत एवं सादर सम्मान के लिए भी जाना जाता है। प्रकृति यहाँ की चिरसंगिनी है। यही मूलतः बुन्देल खण्ड वीरों की जननी है। जिसके उत्तर मालवा खण्ड, भाण्डेर खण्ड पश्चिम दक्षिण-बघेल खण्ड पूर्व में खण्डेल खण्ड अपनी-अपनी विशेषताओं विरासतों, वैभवों के साथ चतुर्दिक सीमांकन करती हैं। प्रत्येक खण्ड अपने विशिष्ट पहचान के रूप में जाने जाते है।
रूद्राणी कलाग्राम के पीछे की पहाड़ी पर हम, अग्निहोत्री जी कुछ कलाकार नवयुवक एवं कैमरामैन आदि फ़िल्म सहायक कर्मचारीगण लगभग एक घण्टे उस प्राकृतिक वन सम्पदा, सुदूर ओरछा नगर की ऊँची-ऊँची इमारतों, राजाराम का मंदिर, महल आदि को देखते चर्चा करते सूर्यास्त का समय आ गया। हम सभी नीचे उतरे। खुल प्रांगण में रंगमंच सजाया जा रहा था। एक किनारे जलपान की व्यवस्था के केन्द्र में राजा बुन्देला जी स्वयं उपस्थित थे और सभी को चाय आदि पहुँचाई जा रही थी। दर्शक दीर्घिका धीरे-धीरे भरती जा रही थी। हम सब भी उचित स्थान देख कर जाकर बैठ गये। हमारी दाहिनी तरफ़ अभिनेता राजेन्द्र गुप्त उनकी धर्म पत्नी एवं कुछ उनके फ़ैन बैठे हुए थे। बायी तरफ़ अभिनेताओं की लम्बी शृंखला थी, जिसमें डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी, अभिनेता निर्माता निर्देशक स्वयं यशपाल शर्मा जी आदि सभी लगभग एक डेढ़ दर्जन अभिनेतागण आमंत्रित थे सभी दर्शक दीर्घिका में थे।
रंगमंच के उपरान्त हम सब चलचित्र देखने के लिए निर्देशित किये गये। यशपाल शर्मा निर्मित निर्देशित फ़िल्म “दादा लखमी” दिखााया गया। ‘दादा लखमी’ फ़िल्म स्वयं यशपाल के परदादा पं. लखनी चन्द्र शर्मा जो स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, एक सुप्रसिद्ध लोक गायक थे। ‘हरियाणवी लोक संगीत’ के पुरोधा माने जाते थे, के जीवन पर आधारित थी जिसमें ‘दादा लखमी’ का अभिनय राजेन्द्र गुप्त जी ने किया था जो साथ में बैठकर फ़िल्म देख रहे थे। इस फ़िल्म के प्रमुख कलाकार सिनेमा कक्ष में उपस्थित थे। देर रात कार्यक्रम की समाप्ति पर हम सब रात्रि भोजन करके रूद्राणी कलाग्राम में ही सो गये। केवल एक रात्रि झाँसी में रुके थे। शेष कार्यक्रम स्थल पर ही रुके क्योंकि कार्यक्रम देर रात्रि तक चलता था।
कार्यक्रम के पाँचवे दिन क्षेत्र भ्रमण का विचार व्यक्त किया गया। कार्यक्रम के चौथे दिन ही बहुत से कलाकार जाने वाले थे। इसलिए मैंने सद्यः प्रकाशित अपनी तीन पुस्तकें ‘चुप्पी टूट गयी’, ‘लक्ष्मण रेखा याद रहे’—यह दोनों ग़ज़ल की पुस्तकें थी और तीसरी पुस्तक ‘फुलवा खिले रितु पायी’ यह अवधी गीत संग्रह थी। इन तीनों पुस्तकों का लोकार्पण कार्यक्रम के बीच में किया गया। सभी कलाकारों, अभिनेतागण को पुस्तकें भेंट कीं।
हम सभी कलाग्राम से निकलकर झाँसी में श्री हरगोविन्द कुशवाह जी के घर मिलने गये। जो बी.जे.पी. के वरिष्ठ कार्यकर्त्ता थे और झाँसी में बौद्ध शोध संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष थे। कुशवाहा जी भक्त हृदय सरल व्यक्तित्व के व्यक्ति लगे।
झाँसी से हम सब आगे बढ़े और छतरपुर ज़िला पहुँच कर डॉ. राघवेन्द्र उदैनिया सम्पादक ‘अथाई की बातें’ बुन्देली पत्रिका के निवास पहुँचे। यहाँ वह एक विद्यालय का संचालन भी करते हैं। वहाँ से हम सब वापस लखनऊ के लिए चले तो महोबा में मनोज तिवारी जी के निवास पर मिलने पहुँचे। झाँसी में बुन्देलखण्ड वि.वि. में हिन्दी विभाग में पहुँचे। डॉ. मुन्नालाल तिवारी जो विभागाध्यक्ष हिन्दी थे। उन्होंने कला संकाय की तरफ़ से शाल, स्मृति-पत्रक भेंट किया और स्वागत किया। डॉ. मुन्नालाला तिवारी जी हिन्दी विभाग में पुस्तकों का रख रखाव, शोध विषयक वीर्थका, साहित्यिक, सांस्कृतिक कार्यक्रमों की स्मरणीय चित्रावली की दीर्घिका, हिन्दी विभाग में नवीन पद्धतियों से हिन्दी के कार्यक्रमों एवं अभिलेखों की भित्ति प्रदर्शिका को भली भाँति दिखााये। डॉ. तिवारी हिन्दी के विकास एवं प्रबंधन हेतु समर्पित व्यक्तित्व दिखाई दिये। ओरछा से वापस आते समय राजाराम का मंदिर, राजाराम का महल, जहाँगीर महल, “हरदौल की चौकी” जिन्हें बुंदेली लोक देवता कहा जाता है। सभी का दर्शन भ्रमण किया। यात्रा का लाभ लेते हुए हम सब वापस लखनऊ पहुँच गये।
रूद्राणी पंच दिवसीय साहित्य महोत्सव ओरछा
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
अरुण यह मधुमय देश हमारा
यात्रा-संस्मरण | डॉ. एम. वेंकटेश्वरइधर कुछ अरसे से मुझे अरुणाचल प्रदेश मे स्थित…
आचार्य द्विवेदी स्मृति संरक्षण साहित्यिक महायज्ञ : कुछ यादगार स्मृतियाँ
यात्रा-संस्मरण | डॉ. पद्मावतीहिंदी साहित्य के युग प्रवर्तक आचार्य ‘महावीर…
उदीयमान सूरज का देश : जापान
यात्रा-संस्मरण | डॉ. उषा रानी बंसलनोट- सुधि पाठक इस यात्रा संस्मरण को पढ़ते…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
यात्रा-संस्मरण
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं