अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

शाकाहार करें व स्वस्थ बनें

एक बहुत नामी एनजीओ ने अपने ख़र्चे पर स्थानीय होटल हेरिटेज में एक कार्यक्रम का आयोजन किया था। सभा में प्रमुख वक्ता के रूप में शुभद्राजी आमन्त्रित थीं। 

“मटन ही लाना। न मिले तो चिकन से भी काम चलेगा लेकिन लाना है जैसे भी हो,” अपने पति देव को बोली थीं। लेकिन रविवार होने के कारण मटन तो हाथ के हाथ सुबह ही समाप्त हो गया था। बचा था ख़ाली चिकेन। मांस लेने के लिए ढूँढ़ते हुए उनके पतिदेव अभी तक नहीं आए थे। बहुत जगह ढूँढ़ते-ढूँढ़ते मुश्किल सेे उन्हें मटन मिला था। 

शुभद्राजी का कार्यक्रम तो अपराह्न तीन बजे होने वाला था अभी बहुत समय बाक़ी था, फिर भी समय से पहले ही वह शृंगार में लगीं। ”हम तो शाम को होटल में ही डिनर करेंगे। फिर भी उनके लिए तो तैयार कर देना ही पड़ेगा” यह सोचकर शुभद्राजी ने उनके पतिदेव के लिए खाना तैयार किया। 

थोड़े इन्तज़ार के बाद पतिदेव मटन लेकर ही आ गए। 

“बहुत इन्तज़ार करा दिया। क्यों हुए लेट?” शुभद्राजी ने पूछा। 

“आज रविवार होने से सब दुकानों में मटन ख़त्म हो गया था। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते बहुत मुश्किल से लाया हूँ।”

“अच्छा कोई बात नहीं। देर हुई तो क्या हुआ लाए तो सही।” 

कुछ मेहनत के साथ मटन बनाकर फिर अपने काम में लगीं। बाक़ी तो करना ही कुछ नहींं था। 

घर के सब काम समाप्त कर ठीक समय में ही होटल में पहुचीं जहाँ कार्यक्रम आयोजित था। कार्यक्रम ठीक समय पर ही शुरू हुआ। 

आरम्भ में सभी कार्यक्रम में जो औपचारिकताएँ होती हैं सो यहाँ भी हुईं। आसनग्रहण, प्रमुख अतिथियों को बिल्ला वितरण, स्वागत वक्तव्य, शहीदों को माल्यार्पण आदि आदि। 

अब बारी थी मुख्य वक्तव्य देने की। प्रमुख वक्ता के हैसियत से शुभद्राजी की वक्तव्य प्रस्तुत करने की बारी आई। शाकाहार से स्वास्थ्य को जो लाभ होता है उस पर और मांसाहार से जो हानि होती है उस पर शुभद्राजी ने जो विचार प्रस्तुत किए वो बहुत युक्तिसंगत व तार्किक थे। जिस विषय पर यह गोष्ठी आयोजित थी उस पर शुभद्राजी ने बहुत ही ओजपूर्ण वक्तव्य रखा। प्राणीवध करना व उस के मांस को खाना स्वास्थ्य के व धार्मिक दृष्टि से कितना ख़राब है यह सब उनके कथन में बहुत तथ्य व उदाहरण के साथ प्रस्तुत हुए। 

“प्राणीवध के बदले शाक सब्ज़ियाँ व ऑर्गेनिक खानपान से सादगी, सुखी व शान्त जीवन प्राप्त होते हैं, अतः हम लोगों को शाकाहार पर बल देना ही होगा” कहते हुए ‌और भी अच्छे उदाहरण देते हुए शुभद्राजी ने अपना भाषण समाप्त किया। पर्याप्त प्रमाण व उदाहरण थे उन के कथन में। बहुत मेहनत करके तैयार किया हुआ था भाषण। इसलिए सभा में उनकी भूरि भूरि प्रशंसा हुई व तालियों की गड़गड़ाहट भी हुई। 

कार्यक्रम समाप्त हुआ। होटल में बहुत सुपर पार्टी का आयोजन भी था। बफ़े सिस्टम होने से सभी लाइन में खड़े हुए। शाकाहारी की तरफ़ लाइन शून्य थी। मांसाहारी की तरफ़ बहुत घमासान था। बहुत शान्ति के साथ पार्टी का समापन हुआ। कुछ दारुभोगी सहभागी परस्पर में बातें कर रहे थे, “मांस के साथ मद्य का भी इन्तज़ाम किया होता तो  . . .!”

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

सांस्कृतिक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं