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स्त्री की व्यथा

 

लाजो पानी की गगरी लिए मोहल्ले के नल पर पानी भरने के लिए ज्यों ही पहुँची, तभी वहाँ खड़ी औरतों के बीच कानाफूसी शुरू हो गई।

“अरे! देखो, कितनी कुलटा है, अपने पति को भी खा गई, अपने बच्चे को भी खा गई और देखो कैसे सज-सँवर कर घूमती फिर रही है, मनहूस कहीं की।”

दूसरी बोली, “हाँ, देखो! इसकी हिम्मत तो देखो! शर्म भी नहीं आती, मुँह उठाए चली आती है। कोई दूसरी औरत होती तो नज़र भी नहीं मिला पाती।”

“घोर कलयुग आ गया है। लाज-शर्म अब कुछ भी नहीं रहा। सब को अपवित्र कर देगी। सुबह-सुबह इसका मुँह देख लो तो पूरा दिन ख़राब हो जाता है, मनहूस कहीं की।”

“राम राम राम राम राम हे! भगवान सब अच्छा करना।”

मोहल्ले की औरतों की बातों को सुनकर लाजो की आँखें भर आईं पर बेचारी क्या करे?

वह सोचने लगी—एक स्त्री की ज़िन्दगी भी क्या ज़िन्दगी होती है। जब मेरा पति था, तब भी मुझे दुख देता था, और जब नहीं है तब भी दुख है। लाजो को वह एक-एक दिन याद आने लगे, जब उसका पति उसे शराब पीकर आकर मारता-पीटता था और गंदी-गंदी गालियाँ देता था।

कमाकर खिलाना तो दूर वह घर में पड़े पैसों पर भी आँख गड़ाए रहता था। मौक़ा मिलते ही उन्हें भी साफ़ कर देता था। उसकी ज़िन्दगी नर्क से भी बदतर बना रखा था। लाजो दिन भर दूसरे के खेतों में काम करती। मज़दूरी करती, लोगों के घरों में बरतन धोती, झाड़ू-पोंछा करके किसी तरह से अपने घर का ख़र्च चला रही थी। बिचारी दिन भर काम करके थक जाती, थक कर जब घर आती मुँह में एक निवाला पड़ने से पहले ही रामू उसे मारपीट कर गालियाँ बकना शुरू कर देता।

लड़ाई-झगड़े और शोर-शराबे को सुनकर मोहल्ले की सारी औरतें इकट्ठा हो जातीं और आपस में बात करने लगतीं—‘बेचारी क्या क़िस्मत लेकर आई है। दिन भर काम करके शाम को खाना भी नसीब नहीं होता। इसका पति एक तो निठल्ला है, ऊपर से शराब पीकर इसके ऊपर अत्याचार करता है।’

लाजो सोच रही थी—उस समय तो लोगों को उससे सहानुभूति थी, पर आज, वही लाजो बदक़िस्मती से जब पति खो चुकी है, वही मोहल्ले की औरतें उसे ताना मारने से भी नहीं थकतीं। इस सामाजिक कठोर व्यवहार से मैं थक चुकी हूँ, जो एक स्त्री की व्यथा में भी आलोचना के शब्द ढूँढ़ लेता है। जो ग़रीब तबक़े की औरतों को सहारा देने के बजाय उन्हें कोसता है और उसका तिरस्कार करता है। लोगों की संवेदना समाप्त हो चुकी है। अलग-अलग परिस्थितियों में लोगों की एक इंसान के विषय में अलग-अलग धारणाएँ कैसे हो सकती हैं?

लाजो अपने प्रति लोगों के इस कठोर व्यवहार से काफ़ी दुखी रहती थी। समाज के इस दोहरे और कठोर व्यवहार से लाजो की अंतरात्मा चीत्कार उठी। उसके मन में कई सारे प्रश्न गूँज उठे।

वह सोचने लगी, ‘समाज एक स्त्री के प्रति अपनी धारणा को कब बदलेगा? लोगों की सोच कब बदलेगी? लोग कब एक विधवा, तलाक़शुदा के प्रति अपनी सोच को बदलेंगे? उनके साथ समाज में भेदभाव पूर्ण व्यवहार नहीं करेंगे। समाज के इस कठोर रवैया से एक स्त्री के मन पर क्या बीतती है? इस दुख का एहसास क्या किसी को नहीं होता? कब बदलेगा समाज और कब बदलेगी समाज की सोच? एक स्त्री क्या इंसान नहीं होती? क्या उसे जीने का कोई अधिकार नहीं?’

अपने प्रति दोहरे रवैए से परेशान लाजो को वह दिन याद आने लगे—जब वह माँ बनने वाली थी। लोगों के घरों में काम करके और झाड़ू-पोंछा करके वह घर का ख़र्च किसी तरह से चला रही थी। उधर रामू का अत्याचार उसके प्रति बढ़ता ही जा रहा था। वह रोज़ घर में मारपीट करता और पैसे छीनकर शराब और जुए में ख़त्म कर देता। घर की स्थिति दयनीय होती जा रही थी। लाजो रामू के अत्याचार से तंग हो चुकी थी, पर बेचारी करती भी क्या? हमारे समाज में पति परमेश्वर जो होता है।

वह कुछ भी करे सब ठीक, पर स्त्री की एक ग़लती भी माफ़ी के लायक़ नहीं होती। पुरुष प्रधान समाज जहाँ औरतों को अपने अधिकार के लिए बोलने का कोई हक़ नहीं।

बेचारी चुपचाप सब बर्दाश्त कर रही थी और अपनी क़िस्मत को कोस रही थी।

एक दिन. . .वह प्रसव पीड़ा से तड़प रही थी, घर में कोई भी नहीं था। उसके कराहने की आवाज़ सुनकर कमली चाची भागी-भागी आई। कमली चाची ने उसे सहारा दिया और उसकी मदद की। घर में एक नए मेहमान के आने से घर किलकारियों से गूँज उठा। लाजो ने एक स्वस्थ बेटे को जन्म दिया। अभी वह इस ख़ुशी को ठीक से मना भी नहीं पाई, तभी अचानक दुखों का पहाड़ उस पर टूट पड़ा, जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। गाँव का एक लड़का चिल्ला रहा था—“चाची-चाची, चाचा गाँव की गली में नाली में गिरे पड़े हैं।” गाँव के कुछ लोग उसे उठाकर लाए लेकिन तब तक वह मर गया था।

लाजो जड़वत हो गई।

हे भगवान! क्या-क्या हो रहा है? उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। वह दुख मनाए या ख़ुशी? आँसुओं की धार लगातार उसकी आँखों से बह रही थी। गाँव वालों के सहयोग से उसका अंतिम संस्कार हो गया। धीरे-धीरे समय बीतते हुए पूरे पाँच वर्ष हो गए।

अचानक एक दिन. . .गाँव में कोरोना नामक वैश्विक महामारी ने उसके बेटे को भी छीन लिया।

लाजो जड़वत हो गई। उसके पास अब कोई भी सहारा जीवन जीने का नहीं बचा। वह किसी तरह से अपना जीवन काट रही थी, पर जीवन जीने के लिए कुछ आवश्यकताएँ तो होती ही हैं। जब भी समाज से रूबरू होती, समाज के कठोर रवैये का उसे सामना करना पड़ता। गाँव की औरतों के तानों से उसका हृदय छलनी हो जाता। गाँव और मोहल्ले की औरतें उसे हर वक़्त उसके अभिशप्त होने का एहसास कराती रहतीं। उसकी ज़िन्दगी उसे किसी पहाड़ जैसी लगने लगती। उसका जीवन अभिशप्त हो चुका था। वह अपनी इस व्यथा को किसी से कह नहीं सकती थी और कहे भी तो किससे? कौन समझेगा उसके मन की व्यथा? जब  एक स्त्री ही स्त्री की दुश्मन बन बैठे!

गाँव की औरतों को व्यक्तिगत स्वच्छता के बारे में समझाने के लिए एक दिन नर्स दीदी आई। गाँव की सभी औरतें इकट्ठा हो गईं। लाजो भी उस समूह में शामिल थी। वह किनारे चुपचाप बैठी हुई थी। नर्स दीदी बारी-बारी से सारी औरतों को सफ़ाई के बारे में समझा रही थी। जब उन्होंने लाजो को बुलाया, गाँव की औरतें आपस में कानाफूसी करने लगीं, ‘मनहूस कहीं की इसका मुँह देख लिया अब तो भगवान ही मालिक है’। लाजो नर्स दीदी के सामने मुँह झुकाए खड़ी थी।

नर्स दीदी ने पूछा, “क्या नाम है तुम्हारा?”

“लाजो,” लाजो ने जवाब दिया।

“ऐसे उदास क्यों हो? थोड़ा हँसो, बोलो! खुश रहो और साफ़-सफ़ाई पर ध्यान दिया करो!”

लाजो ने सिर हिलाया, “जी मैडम।”

मोहल्ले की औरतें बोलीं, “अरे! मैडम उसका पति मर गया है। बहुत ही मनहूस औरत है।”

नर्स दीदी को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने ग़ुस्से से  पूछा, “किसने कहा कि मनहूस है? शर्म नहीं आती आप लोगों को एक औरत होकर औरत का अपमान करते हुए! अगर इसका पति शराबी था तो इसमें इसकी क्या गलती थी? अरे! आप लोगों को तो इस का साथ देना चाहिए ना कि इसे बार-बार मनहूस कह के प्रताड़ित करना।”

मोहल्ले की औरतें ढीठ थीं, “अरे! नर्स दीदी आप जानती नहीं है इसको! अपने बेटे को खा गई। अपने पति को खा गई।”

नर्स दीदी ने डाँटा, “अपनी सोच बदलो! किसी के आने-जाने से किसी की जिंदगी नहीं बदलती। यही तो हमारे समाज की सबसे बड़ी विडंबना है, लोग दबे-कुचले लोगों को सहारा देने की अपेक्षा उसे और दबाना शुरू कर देते हैं। उसका उपहास करना नहीं भूलते। स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है, जो उसे ताने मारने से नहीं थकती।

नर्स दीदी ने आगे समझाया, “यह क्या आप लोग कह रहे हैं? आज हमारा समाज एक प्रगतिशील समाज बन चुका है, लेकिन आज भी कहीं ना कहीं यह सामाजिक कठोर रवैया समाज पर हावी है। समाज को अपनी सोच को बदलने की ज़रूरत है। स्त्री को भी एक स्त्री के दुख को समझने की आवश्यकता है। एक स्त्री को भी जीने का उतना ही अधिकार है, जितना एक पुरुष को जीने का अधिकार है। जीवन मृत्यु किसी इंसान के हाथ में नहीं, बल्कि ईश्वर के हाथ में है, इसलिए किसी स्त्री को इसके लिए दोषी मानना उसके प्रति कठोर रवैया को दर्शाता है। आज समाज को इस सोच को बदलने की ज़रूरत है।”

मोहल्ले की औरतें अब शर्मिंदा थीं, “हम लोगों से बहुत बड़ी भूल हो गई। हमें इसके साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। सही बात है इसमें इसकी क्या गलती है? आप सही कह रही हैं, हमने इस का साथ देने के बजाय उसका उपहास उड़ाया। हमें माफ़ कर दो लाजो!”

नर्स दीदी ने समझाया, “स्त्री और पुरुष दोनों समाज की धुरी हैं, जिस पर समाज का निर्माण टिका हुआ है। आज समाज को यह समझने की आवश्यकता है कि किसी भी समाज का विकास तभी सम्भव है जब दोनों को समानता का अधिकार दिया जाएगा। अन्यथा यह समस्या समस्या ही रह जाएगी कि कौन समझेगा? ‘स्त्री की व्यथा’ लाजो जैसी अनेक स्त्रियाँ अपने अस्तित्व की तलाश में भटकती रहेंगी।”

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