टमराटा
कथा साहित्य | लघुकथा दामोदर सिंह राजपुरोहित21 Feb 2018
पुस्तकालय में आयी हुई नई किताबों के बंडल को खोल के अलमारी में रखते हुए गुरुजी की नज़र अचानक से एक किताब पर पड़ी।
कारण था उसका अजीब सा शीर्षक 'टमराटा'।
चूँकि गुरुजी जिज्ञासु प्रवृत्ति के थे अतः बाक़ी पुस्तको को अलमारी में रख के 'टमराटा' को बाहर ही रख लिया।
जेब से रुमाल निकाल के पसीना पोंछते हुए पंखे को हल्का सा तेज़ किया, पानी का एक घूँट ले के पढ़ना शुरू किया।
“जय हे...जय हे...जय हे.....
जय...जय....जय....जय...हे.....”
की ध्वनि के साथ ही राष्ट्रगान और प्रार्थना सभा की समाप्ति होते ही सबसे पहले जो आवाज़ गूँजती थी वो थी मेरे गुरुजी श्रीमान भारमल जी की।
"ओ टमराटा के होवे है...मैं आपको हमेशा तो बताता हूँ कि ये 'गुजरा-टमराटा' नहीं बल्कि 'गुजरात-मराठा' होता है।"
प्रत्येक दिन की भाँति 5 मिनट के गुरुजी के रोषपूर्ण संबोधन या यूँ कहें कि उच्चारण संबंधी ग़लती को बतलाना होता था।
तत्पश्चात सभी छात्र कक्षाओं में चले जाते और अध्यापक-अध्यापिकाएँ भी निर्धारित कार्यों में लग जाते थे मगर गुरुजी वहीं बैठे रहते थे क्योंकि देरी से आने वाले छात्रों को अच्छे से समझाना और उचित सज़ा देने का काम भी उनका ही होता था।
जहाँ अन्य सभी अध्यापकगण शिक्षण कार्य को अपना पेशा और स्कूल को अपना कार्य स्थल मात्र समझते थे, वहीं गुरुजी की सोच थोड़ी अलग थी, वे शिक्षण कार्य को अपना पेशा नहीं बल्कि तपस्या मानते थे, और स्कूल उनके लिए एक कार्य स्थल मात्र नहीं बल्कि एक बगिया थी जहाँ उगने और फलने-फूलने वाले छोटे-छोटे पौधों को उन्होंने अपनी लगन और प्यार से सींचा था।
गुरुजी स्कूल को मंदिर और स्वकर्म को पूजा मानते थे।
जैसा कि शिक्षण क्षेत्र में एक तंत्र बना होता है कि प्रत्येक विषय हेतु एक अध्यापक होता है और वो सिर्फ संबंधित विषय ही पढ़ाता है । मगर गुरुजी के लिए ऐसा नहीं था, गुरुजी वे सभी विषय पढ़ाते थे जो कि स्कूल में पढ़ाये जाते थे। छठी कक्षा में अँग्रेज़ी, सातवीं में विज्ञान, आठवीं में सामाजिक और दसवीं में गणित, इतने साल गुरुजी से पढ़ने के बाद भी मैं ये नही जान पाया कि गुरुजी किस विषय के अध्यापक थे।
शिक्षण कार्य मे गुरुजी की पकड़ इतनी मज़बूत थी कि सैंकड़ों बालकों के बीच भी उन्हें ये याद रहता था कि आठवीं में संदीप को आज गृहकार्य में क्या दिया हुआ है और दसवीं में अशोक की आज कॉपी जाँचनी है।
क्रिकेट को पसंद नहीं करने की वजह से गुरुजी की थोड़ी खेलकूद विरोधी छवि बनी हुई थी, पर भोजनावकाश के दौरान साथी शिक्षकों और उच्च कक्षाओं के छात्रों के साथ गुरुजी का वॉलीबॉल मैच देखते ही बनता था।
गुरुजी के जीवन का मुख्य उद्देश्य यही था कि उनके बालकों का सर्वांगीण विकास हो ।
लड़कों को जहाँ नैतिक तरीक़े से धनार्जन हेतु प्रेरित करते थे वहीं लड़कियों के लिए तो नैतिक शिक्षा का एक कालांश अलग से लेते थे।
'छोरियाँ सासरे जा र सासु ससुर की जितनी ज्यादा सेवा करोगी ना उतनी ही ज्यादा सेवा आपकी जो भाभी आएँगी वो आपके माँ पिताजी की भी करेंगी.......
ये सब वो बातें थी जो पाठ्यक्रम में नहीं होती थीं।
गुरुजी की सारी यादें अगर लिखने बैठ जाऊँ तो शायद एक महाग्रन्थ भी कम पड़ जाए।
आज गुरुजी के 'टमराटा' देश विदेशों में हर जगह अपनी छाप छोड़ रहे हैं। मगर जब भी मिलते हैं तो गुरुजी को ज़रूर याद करते हैं ख़ासकर के गुरुजी के उस बात को "बोले ना बिरा बोरिया ही बिक ज्यावै नेह बोले बिरी बादाम ही पड़ी रेवे"(जो बोलता है उसके बैर भी बिक जाते हैं और नहीं बोलने वाले के बादाम भी नहीं बिक पाते हैं)।
तो मित्रो ये थे गुरुजी श्रीमान भारमल जी और मैं उनका सैंकड़ों में से एक लाडला सा "टमराटा"।
किताब को बंद करते वक़्त गुरुजी भाव विह्वल हो गये थे। चेहरे पे गर्व के भाव के साथ एक वात्सल्य रूपी प्यार था।
चश्मा उतार के अपने पिछले 30 वर्ष की सेवा को याद करते हुए सोचने लगे कि प्रत्येक दिन विद्यालय में इस 'टमराटा' को सुधारने का प्रयत्न किया उनमें से ये एक तो सुधरा।
घड़ी में समय देखा साढ़े चार बजे रहे थे, उठ के कक्षा में गये और बोले, “छोरो दरी को उठा के टेबल पर रख के जाना बरसात को मौसम है भीग जाएगी।”
हल्के-हल्के क़दमों से घर जाते हुए गुरुजी के चेहरे पर आज थोड़ा संतुष्टि का भाव था।
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