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टूटता बंधन

पिछले एक महीने से यादव जी के यहाँ मकान बनाने का काम चल रहा था। मकान के आगे बरामदा और बईठका बन रहा था। सभी काम करने वाले उसी गाँव के यादव थे केवल दिनेश और अक्षय जाति के चमार थे। दिनेश मिस्त्री था और अक्षय लेबर का काम करता था। इनका घर वहाँ से लगभग चार-पाँच किलोमीटर दूर होने के कारण दोपहर को खाने घर नहीं जा पाते थे। यादव जी के घर से चमार बस्ती दूर थी और दिनेश, अक्षय के लिए केवल एक थाली की व्यवस्था हो पाई, इसलिए दोपहर के भोजन के समय पहले अक्षय सबके साथ भोजन करता पर दूर अलग बैठकर फिर सबके बाद दिनेश। उस समय दिनेश काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक कर रहा था और अक्षय बारहवीं उत्तीर्ण कर पढ़ाई छोड़ चुका था। गरमी की छुट्टियाँ थी, जून-जुलाई का महीना कारगिल युद्ध चल रहा था। एक ही थाली में बारी–बारी से खाना और थाली धोकर रखना। यादव जी के घर में यादव जी, उनकी पत्नी, लगभग चालीस की उम्र का एक बेटा जो अक़्सर बीमार रहता। दो बेटियाँ, एक की शादी हो गई थी। खाना अक़्सर बेटियाँ ही खिलाती थीं। 

एक दिन दादी खाना खिलाने बैठ गईं। सबको खाना परोसकर बड़े प्यार से दादी खाना खिला रहीं थी। अक्षय अपनी थाली लेकर अलग बैठ गया। सब खाना खाने लगे। वहीं पास में चारपाई पर बैठा दिनेश अपनी थाली के ख़ाली होने का इंतज़ार कर रहा था। सब लोग लगभग आधा खाना खा चुके थे। अचानक दादी को न जाने क्या ख़याल आया। उन्होंने पूछा, “अरे दिनेश! तू खाना ना खात का?” 

दिनेश ने कहा, “दादी हमारी थाली एक ही है ना। अक्षय के खाने के बाद मैं खाता हूँ।” 

दादी एक मिनट तक दिनेश की तरफ वात्सल्यपूर्ण दृष्टि से देखती रही फिर उन्होंने ऊँचे स्वर में अपनी दोनों बेटियों को पुकारा, “अरे ओ गीतवा-सीतवा! घर में से अपनी एक थाली ले आव तो। ई देख लो हमार बचवा काम सबके साथ करै अऊर जब सब खाय तो ई टुकुर-टुकुर देखै। अपनी थाली ला अऊर खाना परोस। ईंह! जात–पात गई तेल लेने। जो मानै सो मानै।” 

दादी ने दिनेश को अपनी थाली में खाना परोस दिया था। इस समय दिनेश ने स्पष्ट देखा कि दादी की आँखों में एक अद्भुत वात्सल्य झलक रहा था और यह वात्सल्य धीरे-धीरे जाति-पाति के ऊपर विजय प्राप्त कर रहा था । लेकिन दूसरे दिन दिनेश ने देखा कि वह थाली उनके लिए अलग कर दी गई है। दिनेश अपने रोम-रोम में यह बंधन और कसता हुआ अनुभव कर रहा था।

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