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विभाजन के प्रहार से दरकी हुई धरती

 

(प्रसिद्ध साहित्यकार, ग़ज़लकार एवं अनुवादक देवी नागरानी जी से बात-चीत)

 

देश विभाजन की पृष्ठभूमि के आधार पर कच्छ और सिंध की स्थितियों पर पुस्तक लिखने का कार्य जारी है। देवी नागरानी उन महानुभावों में से एक हैं, जो विश्व इतिहास में घटित आज़ादी के लड़ाई एवं देश-विभाजन की घटनाओं के सुविज्ञ जानकार हैं। निम्नांकित कुछ बिन्दुओं पर उनके विचार तथा अनुभव इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण योगदान बनकर सामने आयेंगे। 

 

डॉ. मीनाक्षी जोशी: 

देवीजी आप इस समय की साक्षी रही हैं। आज पीछे मुड़कर देखते हुए आपके मन में उठती हलचल से कुछ अहसास जो दर्द के कारक हैं उन्हें हमसे साझा करें। 

देवी नागरानी: 

इस विषय पर अनगिनत लोगों ने, साहित्यकारों, व् मीडिया वालों अपने अपने नज़रिए से लिखा है, पर जैसे विभाजन के प्रहार से दरकी हुई धरती, बँटे हुए देश, बँटी हुई भाषा, टूटे हुए मन, कराहते अंतर्मन, किन्तु संवेदनाओं के स्रोत वैसे के वैसे ही हैं। वह सिंध हो या हिन्द, आहत मन को राहत, प्यास को तृप्ति, धूप को छाँव इंसान को जीने के लिए चाहिए—ठीक उसी तरह बाल-बच्चे वाले घर से दरबदर होकर अपना माल-असबाब सब वहीं छोड़, बस अपनी जान बचाकर जहाँ से रास्ता मिला वहीं से उस पार से इस पार आ गए और आज 74 साल के बाद कहीं न कहीं दर्द की दीवारें रिसती हुई नज़र आती हैं। अपनी सिन्धु नदी के तट पर सिन्धु घाटी, उसकी सभ्यता, वह शाह-सचल की दरगाह, वे सामी के श्लोक जब पढ़ते हैं तो दिल की दीवारें दरकती हैं। 

धरती की दरारों के साथ दिलों में दरारें पड़ती रहीं, बढ़ती रहीं, चौड़ी होती रहीं। सभी हिन्दू–सिख-मुसलमान एक दूसरे के दुश्मन बन गए, लूटमार का हाहाकार मचा, जिसमें औरत की अस्मत स्वाहा होती रही। एक देश अब दो में विभाजित हुआ। बस ‘कम्युनल हारमनी’ के नाम पर मार-धाड़, काट-कूट कर ख़ून के रेले बहाते हुए लोग अपने अपने मन की भड़ास निकालते रहे। 

डॉ. मीनाक्षी जोशी:

देश विभाजन के प्रमुख कारण आप क्या मानते हैं? मानव जाति की क्षति का विवरण जो आपकी याद में बसा हो, उसे बयाँ करें। 

देवी नागरानी: 

ज़िन्दगी भी अपनी शोख़ियों से बाज़ नहीं आती। ऊँट सी करवटें बदलते हुए अपने मन चाहे पड़ाव पर ही आकर ठहराव पाती है। विभाजन के परिणाम स्वरूप हिंसात्मक घटनाओं का विवरण पढ़ते-सुनते यही जाना है कि अत्याचार, अनाचार व दुराचार लोगों पर क़हर बनकर बरपा हुआ। देश विभाजन की घटना राजनीतिक थी, पर उसके परिणाम हिन्दू-मुस्लिम इन दोनों मज़हबों के लोगों को भोगने पड़े। देश का बँटवारा तो उन्होंने नहीं किया, फिर भी वे किस गुनाह की सज़ा भुगतने के लिए मजबूर हुए, यह सवाल कई बार मन को कचोटता है। 

डॉ. मीनाक्षी जोशी:

इस दौर में नारी पात्र पर जैसे क़हर टूट पड़ा, क्या उन परिस्थितियों की कोई याद आपके ज़ेहन को कचोटती है? 

देवी नागरानी: 

इस घटना के कारण नारी जाति को मानसिक व शारीरिक प्रताड़ना से गुज़रना पड़ा। शायद नारी मात्र का होना ही इस वक़्त एक सबसे बड़ा गुनाह साबित हुआ, जिसकी सज़ा नारी को भोगनी पड़ी। जीवन मात्र एक संघर्ष बन गया। प्रथम विश्व युद्ध, जलियांवाला बाग़ के समय का हत्याकांड, आज़ादी के साथ विभाजन का दुष्प्रभाव मन मस्तिष्क पर हावी रहा। अपना वतन, अपने लोग, सभी कुछ तो छूटता रहा। विभाजन की विभीषिका के वर्णन में विकृतियों की बाढ़ आ गई, जहाँ क्रूर मानसिकता, वहशीपन, निरमर्म अमानवीयता, अनाचार, अत्याचार एवं अशोभनीय बर्ताव के एवज़ मानवीय मूल्यों में गिरावट आ गई। बस यही अमानवता का क्रूर भाव व् सत्ता भाव मुख्य कारण बन गया। 

ऐसे वक़्त में माँएँ चीख़ती, बिलखती रहीं, और कुछ तो अपने बेटों को दूध की क़सम देकर उन्हें मार डालने के लिए मजबूर करतीं, या उन्हें किसी कुएँ में फेंक देने के लिए बाध्य करतीं। सामने यह आया कि मुसलमान भी भड़के हुए थे और उनके घात करते हुए नहीं जानते थे कि उनके वार के सामने कौन आया? सिख औरतों को मुसलमान भाई घसीट कर बलात्कार के बाद उनके घरवालों के सामने क़त्ल कर देते। ऐसे हृदय विदारक मंज़र देखकर कोई क्या करता, क्या चीखता? दर्द को दिल में दबाकर आज नम आँखों से वही तमाशाई बंधु अपनी आपबीती की दास्तान बताते हैं! 

डॉ. मीनाक्षी जोशी:

राज्यों ने देश का चयन क्या बहुमत धर्म के आधार पर किया? क्या इस दौर में सियासत का स्वरूप खुलकर सामने आया? 

देवी नागरानी: 

देश विभाजन की घोषणा हुई। लाखों की तादाद में पंजाब से हिन्दू भारत की ओर जाने को विवश हुए। भारत में रह रहे मुसलमानों को भी पाकिस्तान की ओर लौट जाने की नौबत आ गई। यातायात का एक मात्र साधन रेलगाड़ियाँ, खचाखच माल और मनुष्यों से लदी हुई अब उनका एक मात्र सहारा थीं। 

देश विभाजन के बाद दिलों के विभाजन की व्यथा, अमन चैन के लूट की पीड़ा का एक नया युग शुरू हुआ। आज़ादी के साथ ही देश भर में एक अशांति का माहौल क़ायम हो गया, गाँव-बस्तियाँ आग की लपटों में स्वाहा होने लगीं, सर्वनाशी तांडव चारों ओर बरपा रहा। दर्ज की हुई सच्चाइयों में एक बयान यह भी पाया जाता है, “मानवता का मुखौटा पिघल रहा था, और अंदर सियार की आँखें उग आई थीं।” आज़ादी पाने की ख़ुशी बँटवारे के कारण पीड़ा और निराशा में तब्दील हो गई। एक सपना था जो बँटवारे के दौरान फ़क़त चकनाचूर ही नहीं हुआ बल्कि आज तक भी उसकी किर्चियाँ दिलों-दिमाग़ में ख़लिश का कारण बनती रहीं हैं। 

डॉ. मीनाक्षी जोशी:

जो निर्वासित लोग भारी-भरकम तादाद में उस पार से इस पार आये उनकी प्रताड़ना के कुछ अक्स आपके ज़ेहन में भी होंगें। हमारे साथ उन्हें साझा कीजिए। 

देवी नागरानी: 

इस विभाजन के परिणाम तहत भारत–पाकिस्तान विभाजन के परिणामस्वरूप विश्व के इतिहास में इतनी संख्या में लोगों का विस्थापन एवं पलायन कभी नहीं हुआ था। प्रताड़ना के रेखांकित किये हुए चिह्न वक़्त की दीवारों में चुने जाने के बावजूद भी रह-रह कर सिसकियाँ भरते रहे हैं, अपने वुजूद की तलाश में ख़ामोश खंडहरों में भटकते रहे हैं। अपनी जन्मभूमि से दूर होने का संताप, अपने जड़ों से उखड़ जाने की यातना के फफोले मन में लेकर एक अपरिचित जगह, अपरिचित लोगों की बीच ख़ुद को स्थापित करना कितना कठिन होता है, इसी दर्द भरी संवेदना को सिंधी के हस्ताक्षर अदीब लक्ष्मण भाटिया ’कोमल’ ने अपनी आत्मकथा “बही खाते के पन्ने” में अपने भीतर की भावनात्मक पीड़ा को ज़बान देते हुए लिखा है, “हम सिंध में जन्मे लोगों की आयु के ‘अर्द्धशती वृक्ष’ के सभी पते अब लगभग झड़ चुके हैं। टूटती दीवारों की भाँति हमारी आत्माओं के साथ हमारे शरीरों की भी छाल उतर रही है। हमारी आत्माएँ खोखले शरीरों के ढाँचों में छिपकली की कटी पूँछ की भाँति तड़प-तड़प कर संघर्ष कर रही हैं!” 

डॉ. मीनाक्षी जोशी:

क्या विभाजन का कोई उचित और अनुचित पहलू भी है जो फ़ायदे और नुक़्सान का कारण जाना या माना जा सकता? 

देवी नागरानी: 

परिवर्तन एक ख़तरनाक षडयंत्र की तरह आया कुछ ऐसे जैसे धीमे ज़हर की तरह आदम को मृत्यु की तरफ़ बढ़ने पर तो मजबूर करता रहा, लेकिन उसे विकास का नाम देने से पीछे नहीं हटा। विकास के पुराने और नए मूल्यों में कोई संधि नज़र नहीं आती। पहले समाज के लोगों के भले के लिए प्रयत्न हुआ करते थे, अब हर कार्य को करने के पीछे एक बौद्धिक आधार बाक़ी रहा। हर प्रयास सियासत की चौखट पर व्यापार और सौदेबाज़ी की दुकानों सा लगने लगा। 

डॉ. मीनाक्षी जोशी:

राज्यों ने देश का चयन क्या बहुमत धर्म के आधार पर किया? विभाजन के बाद उनके एकीकरण में उत्पन्न हुए विवादों के सम्बन्ध में आपके क्या विचार हैं? 

देवी नागरानी: 

भारत की आज़ादी पर बलि के बकरे बने शरणार्थी अपनी जान की आहुति देने पर तुले हुए, मौत से होली खेल रहे थे। सियासी हलचल ज़मीन को शोलों से सजाती रही। रेलगाड़ियाँ गिराई जा रही थीं, डाकघरों के सामने स्थित डाक-के डब्बों को आग में जलाया जा रहा था, ताकि संदेशों के आने-जाने का सिलसिला कटा ही रहे। अँग्रेज़ों की उम्मीदों को मिट्टी में मिलाने की साज़िश होती रही। लोगों को सचेत करने के लिए रात-रात भर गुप्त स्थानों से ‘बुलेटिन’ निकाली जाती। कुछ नौजवान तो जुनून की हद तक परिवार की सलामती को ख़तरे में डालते हुए अपने घरों से सरकार के ख़िलाफ़ वह कार्य करते रहे। 

पर उस आग के दरिया में अमन चैन की उम्मीद पाने की सम्भावना कहाँ रही, जब अपने अपनों से बिछड़ रहे थे। परिवार अलग-अलग दिशाओं में ढकेले जा रहे थे। देश टूटा, आदमी टूटे, इन्सानियत लड़खड़ाई। तद्‌ पश्चात ख़ुद को पुनःस्थापन का रास्ता जो साम ने मिला, उसी पर चलना एक मात्र रास्ता रहा। 

डॉ. मीनाक्षी जोशी:

आप ख़ुद देश विभाजन के प्रत्यक्षदर्शी हैं। 1947 में हुए दंगे और शरणार्थियों के सम्बन्ध में आपके अनुभव भी हम जानना चाहेंगे। 

देवी नागरानी: 

रोयाँ-रोयाँ अब भी यादों में सिहर उठता है, मानवता का जनाज़ा जो उठा। क्यों न महसूस होगी वह छटपटाहट? भाई-चारे के रेशों से सब जुड़े हुए थे, एक का दुख दूसरे का दर्द बन जाता था। चोट एक को लगती, पीड़ा दूसरा भोगता। पर वही भाई-भाई आज अकेले हैं, भीतर की तन्हाइयों के सन्नाटे से घिरे हुए। अपने परिवारों, रिश्तेदारों और प्रियजनों से बिछड़कर कइयों की ज़िंदगानियों में एकाकीपन और सूनापन भर गया। जीवन है पर कौन से धरातल पर? जवाब की तलब में आज भी हर सवाल प्रश्न चिह्न की तरह सामने लटका हुआ है। 

क़यामत-प्रलय के पश्चात भारत की आज़ादी पर बली के बकरे बने सिन्धी क़ौम के अनेक जांबाज़ सिन्धी अहसास दर्दे-दिल का लिए, ख़ून की होली खेलने पर आमादा हो गए। अपनी जान की आहुति देने पर तुले हुए, मौत की होली खेल रहे थे। विभाजन के बाद सभी शरणार्थी अपने वतन, अपनी ज़मीन, अपने घर-बार, अपने उजड़े-उखड़े ध्वस्त अस्तित्व के बोझ को लेकर दर-दर की ठोकरें खाने, यायावरों की तरह यहाँ वहाँ भटकने और पनाह पाने के लिए अभिशप्त थे। इस त्रस्त मानवता के कई विभाजित वर्ग थे, कई घराने, और परिवार, जो किसी न किसी तबक़े के तहत आगे बढ़ते रहे, कुछ प्रताड़ित, तो कुछ ख़ाली हाथ . . .! कुछ सियासी सुविधाएँ पाकर सुखद यात्रा करके सुरक्षा के साथ भारत में अपने तय किए हुए इलाक़े में पहुँचाए गए, और कुछ इस तरह बेवतन हुए कि आज तक ज़मीन उन्हें ठिकाना देने में असमर्थ है। कई ज़मींदारों की शान-शौकत व रईसी पर अंकुश लग गए। उन्हें विशेष अधिकार व सुविधाओं से वंचित कर दिया गया। उनकी ख़ूबसूरत हवेलीनुमा घरों में शरणार्थियों को पनाह मिल जाया करती थी। 

प्रलय के पश्चात के अंजाम के दौरान अगर एक नई सृष्टि का निर्माण हुआ होता तो यक़ीनन आदमियत फ़ख़्र के साथ उस दर्ज इतिहास के पन्ने पलटती। 

डॉ. मीनाक्षी जोशी:

विस्थापन के दर्दीले दौर की कसक ने सिन्धी शरणार्थियों के मनोभावों में तहलका मचाया। उस अवस्था से गुज़रते हुए पुनःस्थापन के बारे में कुछ मनोभावों से हमें अवगत करायें? 

देवी नागरानी: 

यादों के कई अंबार दिलों के तहख़ानों में दबे हैं। कुछ पल के लिए कभी कोई खिड़की खुलती है तो कभी कोई। और यादें भी साँसों में समाकर कुछ पल साँस लेकर जी उठती हैं, लहलहाने लगती हैं। 

विभाजन के पश्चात स्थापन के दौर की विभीषिका भी सबके हिस्से में आई। आज तक सिंधी क़ौम का कोई प्रान्त नहीं है। जड़ से जुदा होकर अपने जीवन को संचारित रखना, तमाम मुश्किलों के बावजूद भी उनके लिए स्थापित होना कठिन ज़रूर था पर नामुमकिन कुछ भी नहीं। कोशिशें होती रही हैं और आज 68 वर्षों के बाद जो तस्वीर दिखती है वह कहीं उदास करती है तो कहीं तसल्ली देती है। हर हाल में ज़िन्दा रहने की क़सम खाकर, सिन्धी हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहे हैं। व्यापार उनके ख़ून में है, ज़िंदादिली उनके सीने में है। गिर-गिर कर उठ खड़े होना उनका दिमाग़ी फ़ितूर है। सिन्धु नदी उनके दिल की धड़कन है, झूलेलाल की झलकी, शाह, स्वामी, सचल का काव्य उनका अध्यात्म है। ज़मीन नहीं है पर हिंद की हवाओं में सिंध की ख़ुश्बू साँसों में भरना उनका जीवन है। अब सिन्धी शरणार्थी नहीं, विस्थापित वर्ग के सम्मानित शहर वासी हैं। 

इस नए वातावरण में सब कुछ नया था, और इस नए संसार को बसाने और ख़ुद को स्थापित करने के कारण पुरानी परम्पराएँ विलीन-सी होने लगी, हवाओं में ज़हरीली आज़ादी के लक्षण घुल मिल गए। इस राजनीति की बिसात पर मोहरों की चाल-चलन में मानवता ने क्या खोया, क्या पाया, उसकी तस्वीर आज के माहौल में और देश-विदेश की रणनीति में दिखाई दे रही है। न जाने मानवता कितनी बार इस विस्थापन के दर्दीले दौर से गुज़रेगी? 

डॉ. मीनाक्षी जोशी:

इस दौर की दर्दनाक स्तिथि से देश का अमन तो नदारद हुआ, पर क्या कोई शांतिदायक माहौल की स्थापना की उम्मीद की जा सकती थी? 

देवी नागरानी: 

यह उस समय की बात है जब सिंधी शरणार्थी बनकर अपनी अना की धज्जियाँ उड़ती हुई देखकर भी कुछ न कर सके। कितने ही ख़ानदानों के लाल शहीद हो गए। क्यों, कह नहीं सकते? पर शायद अपनी धरती माँ का क़र्ज़ चुकाने की ख़ातिर, उनमें अपनी जान को क़ुर्बान करने का जज़्बा बाक़ी था, उन चीखती चिलाती माओं के दूध का क़र्ज़ चुकाना बाक़ी था। वो चीखें दिलों की दीवारों से चिपके रही। अपने अपनों से बिछड़ गए, मर्द अपनी अना और इज़्ज़त को स्वाहा करते हुए अपनी औरतों को मौत के घाट उतार रहे थे। सब कुछ था पर इन्सनियात का जनाज़ा उठ रहा था। 

सब से पहले अपने आप को एक मुतमईन ठिकाने की खोज, फिर रोज़मर्रा जीवन के लिए आमदनी, उन्हें व्यापार के तट पर ले आई और कुछ यूँ वो संघर्ष से ख़ुद के बलबूते पर अपने जीवन की नैया के नव निर्माण में लग गए। 

डॉ. मीनाक्षी जोशी:

क्या भारत में स्थापित होने के पश्चात वहाँ छोड़ आई ज़मीन जायदाद का कुछ हर्ज़ाना हासिल हुआ? या कोई माली मदद? 

देवी नागरानी: 

यायावर सभी दर्द की चादर ओढ़कर अपनी नई पहचान की तलाश में दर-बदर भटकते रहे। जिनकी सम्पत्ति थी उन्होंने क्लेम फ़ॉर्म भरे। पर कहीं ऐसा भी हुआ कि जिन्हें वास्तव में क्लेम मिलना चाहिये था, उन्हें हाशिये पर धकेल दिया गया और जिन्होंने बेईमानी से फ़ॉर्म भरे वे मालामाल हो गए। 

मेरे पिताजी को भी निज़ामाबाद में ज़मीन के क्लेम के रूप में मिले—गन्ने के खेत। दस साल तक वे भी गन्ने की फ़सल हासिल करने-कराने के सिलसिले में सिकंदराबाद व निज़ामाबाद के बीच लगातार आते-जाते रहे। पर उससे लाभ से अधिक क्षति होती रही, कारोबार को समय व तव्वजू न दे पाने के कारण उन्होंने आख़िर वह ज़मीन एक लाख रुपये में बेच दी। उन दिनों एक लाख बड़ी रक़म होती थी। पिताजी ने उन पैसों से एक कपड़े की दुकान खोल ली और वहीं अपना स्थायी पड़ाव समझकर बस गए। 

डॉ. मीनाक्षी जोशी:

अपनी जड़ों से उखड़ कर फिर पुनः स्थापन के दौर में क्या-क्या बदलाव आपकी क़ौम के हिस्से में आये? 

देवी नागरानी: 

अपनी जड़ों से उखड़ने की पीड़ा, स्थापित होने के संघर्ष में जो बदलाव आया उसके तहत पुरानी पीढ़ी की मनोस्थिति में बड़ा अघात पहुँचाया। पुराने मूल्यों के स्थान पर, नए जीवन मूल्यों की स्थापना, नया वातावरण, नए लोग, नई बातें, नया संसार बसने के कारण पुरानी परम्पराएँ विलीन सी होने लगी। 

शरणार्थियों की तरह हज़ारों, लाखों लोग बेवतन तो हुए पर दिशाहीन भी हो गए। बहारों में आई इस ख़िज़ाँ में बेसहारा सूखे पत्तों की मानिंद अस्तव्यस्त होकर पुनः स्थापन के जद्दोजेहद में जुट गए। सिंधी क़ौम अपनी मेहनतकशी के बल पर फिर से अपनी स्थापना को साकार बनाने में व्यापार करने लगे, अपना प्रान्त न था पर बावजूद इसके जहाँ जिसको धरती ने पाँव धरने की जगह दी, वह वहीं बस गया। बस अब तो अपना प्रान्त नहीं पर सारा हिन्दुस्तान हमारा है। 

डॉ. मीनाक्षी जोशी:

विभाजन के विषय को लेकर साहित्य में नॉवल व् कहानियों के ज़रिये लोगों की वेदनात्मक स्तिथियों-परिस्थितियों का विवरण लिखा, कहीं आँखों देखा हाल। क्या आपने भी इस विषय पर कुछ लिखा है? 

देवी नागरानी: 

वैसे साहित्य न तो कोई शस्त्र है, न ही वह क्रांति करने-कराने का ज़रिया है। वह फ़क़त इल्म की रोशनी में इंसान को स्वतंत्र ढंग से जीने की, आगे बढ़ने की, समस्याओं को समझने की, उनके समाधान पाने की, उनसे जूझने की शक्ति, एक नई सोच और नज़रिया प्रदान करता है। मैं जब कभी भी इस विषय पर कुछ पढ़ती तो मंथन मुझे उन स्मृतियों में ले जाता जहाँ मैं जन्मी, पली, पर छोटी उम्र में इस विस्थापन की यादें व् कड़वाहटों भरी रूदाद कहीं दिल में बसी रही। जब मैंने क़लम थामी तब मैं अपनी सिंधी भाषा नहीं जानती थी, कभी पाठशाला जाना ही नहीं हुआ। सिर्फ़ सिंधी में बतिया लिया करती थी। पर शायद कुछ क़र्ज़ बाक़ी था मेरी मातृभूमि का जो मैंने 60 साल की उम्र में अपने तीन बच्चों की शादी के बाद अपनी भाषा सीखी और जैसे जैसे मैं सिंध के साहित्यकारों से जुड़ती रही, मैंने सिंधी से हिंदी में अनुवाद की ओर पहल क़दम उठाया। जिसमें सौ कहानियाँ हिन्द व् सिंध के कथाकारों की २०१२-२०१६ के बीच हुई और संग्रह रूप में प्रकाशित हुईं। उस समय के दौरान मेरा अपना लेखन विराम पा चुका था। बस एक जूनून की तहत एक लघुकथा संग्रह, दो काव्य संग्रह हिंदी से सिन्धी में अनुवाद किये। कहने का तात्पर्य यह है कि कोई जज़्बा ऐसा था जो मुझे अनुवाद करने पर सुकून देता था। शायद सिन्धी को हिंदी की फ़िज़ाओं में ले आने की उमंग थी कि भूले-भटके कोई मुझ-सा कभी हिंदी में अपने सिंधी साहित्यकारों के नाम देखकर, पढ़कर अपने वतन से उसी सौंधी मिट्टी से जुड़ जाए, जैसे मैं जुड़ी हूँ। 

अब तो वे कहानियाँ voice और text में यूट्यूब पर प्रस्तुत हैं। अब मैं लौट आई हूँ अपने लेखन की ओर जिसमें ग़ज़ल है, कहानी है, लघुकथा है। दो कहानियाँ विस्थापन के दर्द भरे मंज़रों की लिखी हैं, ‘कमली’ व् ‘गुलशन कौर’ और एक नावेल जिसका आग़ाज़ ‘गुलबानो’ के नाम से किया है। कब संपन्न होगा यह वक़्त बताएगा। उसकी पृष्ट भूमि भी विभाजन के समय भारत पाक के बीच फैली कटुता की सरज़मीन की नींव पर है, जब हज़ारों लोग मारे गए थे और हरसू अँधेरा सा पसर गया था। उस वक़्त अँधेरे से उजाले ले आने वाली सुरंगें भी हर दिशा में दिखाई दीं—जहाँ घृणा, कटुता और क्रूरता से दूर प्रेम, अपनत्व और भाई-चारा रहा। बस कुछ सुखद स्मृतियों से आग़ाज़ करती मन की वेदना कभी नावेल तो कभी कहानी का स्वरूप ले लेती है। 

विभाजन के बाद जहाँ पनाह मिली वहीं भाई-चारे के साथ शरणार्थी रहने लगे। अब तो नफ़रतों के लिए वक़्त ही नहीं . . .। प्रेम की आशा और आश्वस्ति से भरी जोत झिलमिलाती रहे जब तक हैं हम, वो भी इस संकट काल में अपने इस नए शत्रु से सामना करते हुए जी रहे हैं। आशा है इस पर भी हम एक जुट हो विजय पा लेंगे। 

जयहिंद!

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