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विकास बिश्नोई की कहानियों में बदलते वर्तमान परिदृश्य

पुस्तक का नाम: आओ चलें उन राहों पर
लेखक: विकास बिश्नोई
विधा: बाल कहानी संग्रह। 
मूल्य: 300 रुपये। 
प्रकाशक: शब्दाहुति प्रकाशन, फरीदाबाद। 
ख़रीदने हेतु संपर्क करें: विकास बिश्नोई, (7015184834) 

प्रारंभ से ही साहित्य एवं समाज में एक अटूट सम्बन्ध रहा है। साहित्य में समसामयिक घटक सदैव उजागर होते हैं। बाल साहित्य अभिव्यक्ति की एक समर्थ विधा है, जो कि जीवन के समकालीन यथार्थ को सामने लाने में सक्षम है। इसे मानव मन की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति माना गया है। बाल कहानियाँ बालकों के अंतर्मन का प्रतिबिंब होती हैं। बालक उस कच्ची मिट्टी के समान होते हैं जिन्हें जिस आकार में ढालने का प्रयास किया जाए वे वैसे ही आकार का रूप ले लेते हैं। बच्चे हमारा भविष्य हैं, इसलिए बाल्यावस्था रूपी कच्ची किन्तु उर्वर मिट्टी में संस्कारों के बीज डाल दिए जाने चाहिए तभी वह समय आने पर अंकुरित, पल्लवित होकर कल के अनुशासित, संवेदनशील और सभ्य नागरिक के रूप में पुष्पित होंगे। बाल साहित्य की रचना को लेकर डॉ. नागेश पांडेय संजय के विचार द्रष्टव्य है “ऐसा बाल साहित्य जिसे पढ़कर बच्चे आनंदित हों, उनका सम्यक विकास हो और वह आत्म सुधार तथा जीवन के संघर्षों से जूझने की दिशा में क्रियाशील हो सके, सही मायने में वही बाल साहित्य है। भले ही उसकी रचना बाल साहित्य के रूप में नहीं हुई हो। वस्तुतः बाल साहित्य का प्रणयन अत्यंत कठिन कार्य है। बच्चों द्वारा स्वयं अपने लिए लिखा जाना कठिन है और बड़े सभी बाल मानसिकता से ऊपर उठ चुके होते हैं। बाल साहित्य लेखन को इसलिए परकाया प्रवेश की संज्ञा दी गई है। बाल अनुभूतियों को आत्मसात कर उसे उन्हीं की भाषा में प्रस्तुत करने वाला ही वास्तविक बाल साहित्यकार है।”1

युवा लेखक विकास बिश्नोई नए युग के लेखक हैं। वे समय सापेक्ष लेखन में पारंगत हैं। उनकी बाल कहानियाँ बच्चों की दुनिया को समृद्ध बनाने का प्रमुख स्रोत हैं। यह कहानियाँ बच्चों में सही ग़लत की समझ विकसित करती हैं। उनमें आत्मविश्वास, सजगता के गुण निर्मित करती हैं। उनकी कहानियों के सशक्त पात्र मानवीय गुणों को ग्रहण करते हुए बिना किसी उपदेश के बच्चों में अच्छे बुरे की समझ पैदा करते हैं। यह बाल कहानियाँ बच्चों की मनःस्थिति के साथ सामंजस्य बिठाकर उन्हें सहज ही संस्कारों की ओर उन्मुख करने की विशिष्टता रखती हैं। लेखक ने अपनी बाल कहानियों के विषय बालकों के इर्द-गिर्द परिवेश से ही आत्मसात किये हैं। जिनको पढ़कर बच्चे कल्पना लोक की अपेक्षा यथार्थ के धरातल पर वस्तुओं की परख करते हैं। जिससे बच्चों में नैतिक मूल्यों के विकास से व्यवहारगत परिवर्तन परिलक्षित होने लगता है। बालक अपने परिवेश को, रिश्तों को सूक्ष्मता से जाँचने लगते हैं। कहानीकार विकास बिश्नोई के बाल कहानी संग्रह ‘आओ चलें उन राहों पर’ की कहानियाँ रोचक होने के साथ-साथ बच्चों को ज़िन्दगी की छोटी से छोटी सीख बहुत ही सरल एवं सहज ढंग से देती हैं। इनमें समसामयिक परिवेश को भी बड़ी शिद्दत के साथ प्रसंगानुकूल उजागर किया है। यह कहानियाँ ग्रामीण एवं महानगरीय भाव बोध को उजागर करने में सफल रही है। 
विकास बिश्नोई की कहानियों में बदलते वर्तमान परिदृश्यों को हम निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत देख सकते हैं:

उपेक्षित आत्मीय सम्बन्ध एवं पारिवारिक विघटन:

पिछले एक दो दशकों में परिवार प्रणाली में कुछ महत्त्वपूर्ण बदलाव अनुभव किए गए हैं। आधुनिक भोगवादी युवा पीढ़ी अतिशय सुख-सुविधाओं की तलाश में स्वार्थी होती जा रही है। संयुक्त परिवारों का स्थान एकल परिवार लेते जा रहे हैं। भौतिक चकाचौंध एवं अर्थोपार्जन की उत्कृष्ट पिपासा ने जीवन शैली को तो बदल दिया है परन्तु समाज में हर तरफ़ मूल्य का संक्रमण दिखाई पड़ता है, जिससे तनाव, असंतुष्टता एवं द्वन्द्वों में बढ़ोतरी हुई है। पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित आधुनिक पीढ़ी में व्यक्तिवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है, जिसके परिणाम स्वरूप वे संयुक्त परिवारों में रहना पसंद नहीं करते। आधुनिक पीढ़ी सुख सुविधाओं से संपन्न होने के बाद अपने माता-पिता को फ़ालतू सामान समझती है। आज हमें कई हृदय विदारक कहानियाँ सुनने को मिल जाएँगी जहाँ बच्चों ने अपने माता-पिता के साथ अमानवीय व्यवहार करते हुए उन्हें घर से निकाल दिया या वृद्ध आश्रम भेज दिया। विकास बिश्नोई की कहानी ‘श्राद्ध’ के प्रमुख पात्र रमेश को भी अपनी वृद्धावस्था में अपने पारिवारिक सदस्यों की ओर से उपेक्षा एवं अपमान झेलना पड़ा। वृद्धावस्था में व्यक्ति को भावनात्मक सहारे की आवश्यकता होती है परन्तु रमेश के बेटों ने पिता के साथ दुर्व्यवहार करते हुए पहले उसे घर पर ही नज़रबंद किया और फिर वृद्धाश्रम छोड़ आए। आधुनिकता की अंधी दौड़ में भागते हुए युवा अपने कर्त्तव्यों व संस्कारों को भूलते जा रहे हैं। जिन माता-पिता ने उनके जीवन के हर अच्छे बुरे वक़्त में उनको सँभाला आज उन्हें सँभालने के लिए संतान के पास ना तो समय है और ना ही सामर्थ्य। मरणोपरांत रमेश अपने मित्र जगदीश से अपने दिल की व्यथा इस प्रकार कहते हैं—“काश मेरे जीते जी यह दोनों बच्चे मुझे इसका आधा भी प्रेम कर लेते तो मैं यहाँ तुम्हारे साथ ना होता। मेरे बीमार होने पर मुझे घर के कोने में और बाद में वृद्धाश्रम में असहाय ना छोड़कर थोड़ा-सा ध्यान दिया होता। आज जितना समय दान आदि में लगा रहे हैं, उतना समय काश मेरे साथ बैठकर सुख-दुख की बात में लगा देते। मरने के बाद भी मुझे कंधा देने का समय उनके पास नहीं था। भला आज मेरे पीछे से यह श्राद्ध करने का क्या लाभ?”2

एक सुप्रसिद्ध कहावत है कि “पूत कपूत तो क्यों धन संचे, पूत सपूत तो क्यों धन संचे।” अर्थात् यदि पुत्र सपूत है तो धन संचय का लाभ नहीं क्योंकि वह अपने लिए स्वयं धन कमा लेगा और यदि पुत्र कपूत है तब भी धन संचय का कोई लाभ नहीं क्योंकि वह कमाया हुआ धन उड़ा देगा। अधिकतर माता-पिता भावुक होकर अपनी जायदाद अपने बच्चों के नाम कर देते हैं। फिर उन्हें अपने ही घर से निकाल दिया जाता है। आर्थिक स्वतंत्रता बुज़ुर्गों के लिए परम आवश्यक है। बुज़ुर्ग लोक-लाज के डर से अपने साथ हुए ग़लत व्यवहार के लिए अपने बच्चों के विरुद्ध क़ानूनी कार्रवाई नहीं कर पाते। यही ग़लती रमेश द्वारा भी की गई जब उसने अंधविश्वास करके अपना सारा कारोबार अपने बच्चों के हाथों में सौंप दिया और अपने दुर्भाग्य के द्वार स्वयं खोल दिए। 

आधुनिकीकरण एवं पर्यावरण चेतना:

आधुनिकीकरण की अवधारणा आधुनिक विकास की गतिशील प्रक्रिया से संबंधित है। वहीं पर्यावरणीय चेतना से अभिप्राय हमारे आसपास के वातावरण से संबंधित समस्याओं की जागरूकता से है और उनके समाधान की दिशा में किए जा रहे प्रयासों से है। आधुनिकीकरण की एक विडंबना है कि एक तरफ़ जहाँ विकास है तो दूसरी तरफ़ भारी विनाश भी है। लगातार तीव्र आधुनिकीकरण से प्रदूषण भी बढ़ा है, जिससे प्रकृति के लिए बहुत बड़ा ख़तरा बन रहा है। आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में हो रहे प्रयोगों से, रासायनिक क्रांति से, कई सूक्ष्म जीव और वायरस उत्पन्न हुए हैं, जिसका भयंकर परिणाम करोना वायरस के रूप में पूरे विश्व ने झेला है। आधुनिकीकरण की आड़ में मनुष्य ने अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए पर्यावरण का काफ़ी नुक़्सान किया है, जिससे पर्यावरण संकट बढ़ रहा है। विकास बिश्नोई की कहानी ‘आदत से मजबूर’ में लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि मानव की स्वार्थ लिप्सा से पर्यावरण का अस्तित्व ख़तरे में पड़ चुका है। मानव की वर्तमान जीवन शैली और शहरीकरण से जुड़ी योजनाएँ पर्यावरण के लिए बहुत ही घातक सिद्ध हुई है। अंधाधुंध शहरीकरण के कारण पेड़ काटे जा रहे हैं और पक्षियों का आश्रय समाप्त होता जा रहा है। कल कारख़ाने खुलने से पर्यावरण प्रदूषण में बहुत बढ़ोत्तरी हुई है। पक्षियों का पलायन भी पर्यावरण संतुलन की दृष्टि से एक गंभीर समस्या बन चुका है। हालाँकि जब करोना काल में जीवन की रफ़्तार काफ़ी धीमी पड़ गई थी ऐसे में प्रकृति ने स्वयं को पुनः सँवारना प्रारंभ किया था। “माँ: बेटा! आज इंसान कोरोना महामारी से जूझ रहा है, जो उसके ख़ुद के कर्मों का ही फल है। हम जैसे जीवों को मारकर वह खाता है, जिसकी वजह से यह वायरस फैला। इस मानव जाति ने प्रकृति को कई प्रकार से नुक़्सान पहुँचाया है। अपनी सुख सुविधाओं के लिए उसने पेड़ काट दिए, जीवों को मार डाला। हर ओर अपने कारख़ाने लगा दिए, नदियों को गंदा कर दिया और भी ना जाने क्या क्या, जिसका परिणाम तो उसे भुगतना ही पड़ेगा। अब प्रकृति का क़हर उस पर टूट रहा है।”3 ऐसे कठिन समय में प्रकृति प्रेम के समानांतर पर्यावरणीय चेतना जागृत करने की बहुत आवश्यकता है। 

संचार क्रांति का आधुनिक जीवन पर प्रभाव:

वर्तमान समय तकनीक व संचार की क्रांति का युग है। 21 वीं सदी में मोबाइल फोन ने संचार के क्षेत्र में एक नई उपलब्धि हासिल की है। प्रारंभ में मोबाइल केवल एक संचार माध्यम के तौर पर प्रयोग होता था परन्तु धीरे-धीरे मोबाइल व्यक्ति के जीवन का अहम हिस्सा बन गया है। बढ़िया स्मार्ट फोन, इंटरनेट नेटवर्क की सुविधा हमारी बुनियादी आवश्यकता बन गई है। आज बच्चों से लेकर बूढ़े तक सभी इसका प्रयोग कर रहे हैं। यदि सही ढंग से मोबाइल का प्रयोग किया जाए तो यह किसी वरदान से कम नहीं है। ‘मोबाइल है ना’ कहानी में लेखक ने जहाँ वित्तीय लेन-देन, ऑनलाइन बुकिंग, ख़रीदारी जैसे रोज़मर्रा के कार्यों में मोबाइल फोन को उपयोगिता सिद्ध की है, वहीं इसके दुष्परिणामों की ओर भी संकेत किया है, जैसे प्रत्येक आयु वर्ग के लोगों में फोन की लत लगने का भय, समय की बर्बादी, बच्चों के सर्वांगीण विकास में कमी, अवसाद, आत्मकेंद्रित एवं अकेलेपन की समस्या इत्यादि। कहानी में गाँव से आई सचिन की माँ के लिए सभी पारिवारिक सदस्यों का हर समय मोबाइल फोन में व्यस्त रहना एक गंभीर एवं चिंतनीय विषय है। बच्चों का सुबह स्कूल और शाम को खेलने के लिए बाहर ना जाना, उनमें संस्कार तथा मूल्यों के निर्माण के प्रति किसी का ध्यान ना होना, माँ को अच्छा नहीं लगता। “अरे माँ, आजकल सब ऑनलाइन मोबाइल से हो जाता है। कहीं आने जाने की ज़रूरत नहीं होती। दुनियादारी, संस्कार, मित्रता वग़ैरा सब क्या, माँ ने हैरानी से पूछा। लेकिन इस बार सचिन के पास कोई जवाब नहीं था। थी तो बस अपने बच्चों के भविष्य की चिंता।”4

आर्थिक स्वावलंबन एवं बचत की आदत:

आर्थिक स्वावलंबन अपने सामर्थ्य से आत्मनिर्भर होने की प्रक्रिया है। निसंदेह वर्तमान समय में मनुष्य के जीवन में धन का महत्त्व सबसे अधिक है, क्योंकि व्यक्ति की वित्तीय स्थिति के आधार पर ही उसकी सामाजिक स्थिति का आकलन किया जाता है। धन से हम अपनी सभी ज़रूरतों को पूरा कर सकते हैं। एक प्रसिद्ध लोकोक्ति है कि ‘बाप बड़ा ना भैया, सबसे बड़ा रुपया’। पश्चिमी देशों के प्रभावाधीन आज बहुत से लोग अपने वर्तमान के लिए तो सुख-सुविधाएँ जुटाते हैं परन्तु भविष्य के लिए संग्रह नहीं करते जिससे प्रतिकूल परिस्थितियाँ आते ही उन्हें क़र्ज़ उठना पड़ता है और बाद में समय पर क़र्ज़ न चुकाने के कारण अवसाद तनाव की स्थिति में रहते हैं। हमारे बड़े बुज़ुर्ग हमेशा अपनी आमदनी में से भविष्य के लिए कुछ बचत करने की सीख देते हैं और बच्चों को यह बचत की आदत प्रारंभ से ही सिखाई जानी चाहिए ताकि वे भविष्य की आर्थिक चुनौतियों के लिए तैयार रह सकें। ‘नानी से बचत की सीख’ कहानी में आशु अपनी नानी के आमदनी के सीमित स्रोतों के विषय में तो जानता था फिर भी उसे अचरज इस बात से होता था कि नानी अपनी और हम सभी ज़रूरतों को कैसे पूरा कर लेती है। “बेटा ज़िन्दगी में जो अपने पास आई लक्ष्मी को सोच समझ कर उपयोग में लाता है वह हमेशा ज़िन्दगी में सफल होता है।”5 आशु ने नानी की सिखाई यह बचत की सीख गाँठ बाँध ली और भाई के विवाह में ख़ुद के पैसों से उपहार देकर वह बहुत ख़ुश हुआ। जिस प्रकार बूँद-बूँद से सागर भरता है उसी प्रकार व्यक्ति को दुनियादारी में दिखावे के चक्कर में ना पड़ कर फ़ुज़ूलख़र्ची पर नियंत्रण करना चाहिए। 

लेखक विकास बिश्नोई एक प्रतिभाशाली रचनाकार हैं। उन्होंने अपनी कहानियों में शब्दों के द्वारा अपनी संवेदनाओं को बहुत ही बेहतरीन ढंग से सँजोया है। लेखक ने समय सापेक्ष विषयों को बदलते वर्तमान परिदृश्यों के संदर्भ में बख़ूबी प्र‌स्तुत किया है। उनकी कहानियों की विषय वस्तु जीवन मूल्यों से अनुप्राणित हैं जोकि बच्चों में ज्ञान संवर्धन के साथ-साथ नैतिक विकास की ओर भी उन्मुख हैं। 

संदर्भिका:

  1. बाल साहित्य के प्रतिमान, डॉ नागेश पपांडेय ’संजय’, पृष्ठ 10

  2. विकास बिश्नोई, आओ चले उन राहों पर, श्राद्ध, फरीदाबाद: शब्दाहुति प्रकाशन, पृष्ठ 82-83

  3. वही, आदत से मजबूर, पृष्ठ 64

  4. वही, मोबाइल है ना, पृष्ठ 19

  5. वही, नानी से बचत की सीख, पृष्ठ 16

डॉ. रश्मि शर्मा, 
सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग
पं. मोहन लाल एस.डी. कॉलेज फतेहगढ़ चूड़ियाँ,
ज़िला गुरदासपुर, पंजाब।
मो.नं. 9465564632
ई-मेल: sharmarashu4@gmail.com
 

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