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व्यथा एक जेबकतरे की

कोरोना से प्यारे अपना क्या हाल हो गया
जेबें ढीली पड़ गईं
और
पेट से पीठ का मिलन हो गया। 
 
पॉकेटमार नाम है अपना
और
राम नाम जपना पराया माल हो अपना। 
अच्छा धंधा था यह अपना
लोगों की भारी भारी जेबों को
'हाथ की सफाई' से हल्की करना
फिर चैन से खाना-पीना और सोना। 
अब कोरोनाकाल में
वही हाथ धो-धो के
ये 'कलाकार' निढाल हो गया। 
कोरोना से प्यारे अपना . . .
 
जब नगर में दिन प्रतिदिन
लगते थे कई कई ठेले मेले
ख़ुशी-ख़ुशी उनमें हमने
कई कई बार हैं धक्के झेले
लोगों की जेबों पर अपनी
उँगलियों की कृपा बरसाई
इन हाथों, न जाने कितने
बटुओं और नोटों की 
जान है बचाई। 
एक अरसा हो चुका है यहाँ
हरियाली देखे हुए
हरा-भरा मैदान अब रेगिस्तान हो गया
कोरोना से प्यारे . . .
 
हाथों की कसरत नहीं हुई है
कलाइयांँ व उँगलियाँ अकड़ गईं हैं
लोगों की रेलमपेल देखने को
अखियाँ तरस गई हैं
फाका द्वार पीट रहा है
धंधा खटिया पकड़े हुए हैं
अच्छा ख़ासा सुखी जीवन
बदहाल हो गया। 
कोरोना से प्यारे . . . 
 
सूने हैं मस्जिद, मन्दिर
और गिरजाघर, गुरुद्वारे
भटक रहे हैं ब्लेड सहित
गली-मोहल्ले द्वारे द्वारे
ख़ाली हाथ लौट-लौटकर
हम मरीज़ और कमरा अपना
आज अस्पताल हो गया। 
कोरोना से प्यारे . . .
 
किसको सुनाएँ दुखड़ा अपना
किसे पढ़ाएंँ यह अफ़साना
हम मेहनतकश बंदों की
इतनी अच्छी कला का
बंटाधार हो गया। 
कोरोना से प्यारे अपना
क्या हाल हो गया। 

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