यह उजाला तो नहीं ‘तम’ को मिटाने वाला
शायरी | ग़ज़ल द्विजेन्द्र ’द्विज’4 Feb 2019
यह उजाला तो नहीं ‘तम’ को मिटाने वाला
यह उजाला तो उजाले को है खाने वाला
आग बस्ती में था जो शख़्स लगाने वाला
रहनुमा भी है वही आज कहाने वाला
रास्ता अपने ही घर का नहीं मालूम जिसे
सबको मंज़िल है वही आज दिखाने वाला
एक बंजर—सा ही रक़्बा जो लगे है सबको
वो हथेली पे भी सरसों है जमाने वाला
जिसकी मर्ज़ी ने तबाही के ये मंज़र बाँटे
था मसीहा वो यहाँ ख़ुद को बताने वाला
जबसे काँटों की तिजारत ही फली-फूली है
कोई मिलता ही नहीं फूल उगाने वाला
रतजगों के सिवा क्या ख़्वाब की सूरत देगा
हादिसा रोज़ कोई नींद उड़ाने वाला
उँगलियाँ फिर वो उठाएँगे हमारे ऊपर
फिर से इल्ज़ाम कोई उन पे है आने वाला
जा-ब-जा उसने छुपाए हैं कई फिर कछुए
फिर से ख़रगोश को कछुआ है हराने वाला
जिन किताबों ने अँधेरों के सिवा कुछ न दिया
है कोई उनको यहाँ आग लगाने वाला
क्यों भला शब की सियाही का बनेगा वारिस
धूप हर शख़्स के क़दमों में बिछाने वाला
ख़ुद ही जल-जल के उजाले हों जुटाए जिसने
वो अँधेरों का नहीं साथ निभाने वाला
आईना ख़ुद को समझते है बहुत लोग यहाँ
आईना कौन है ‘द्विज’, उनको दिखाने वाला।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
ग़ज़ल
- अश्क़ बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी
- आइने कितने यहाँ टूट चुके हैं अब तक
- कटे थे कल जो यहाँ जंगलों की भाषा में
- जाने कितने ही उजालों का दहन होता है
- जो पल कर आस्तीनों में हमारी हमको डसते हैं
- देख, ऐसे सवाल रहने दे
- न वापसी है जहाँ से वहाँ हैं सब के सब
- नये साल में
- पृष्ठ तो इतिहास के जन-जन को दिखलाए गए
- बेशक बचा हुआ कोई भी उसका पर न था
- यह उजाला तो नहीं ‘तम’ को मिटाने वाला
- ये कौन छोड़ गया इस पे ख़ामियाँ अपनी
- सामने काली अँधेरी रात गुर्राती रही
- हुज़ूर, आप तो जा पहुँचे आसमानों में
- ज़ेह्न में और कोई डर नहीं रहने देता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं