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यूँ सियासत ने ग़रीबों को फसाया जाल में

 

बहर: रमल मुसम्मन महज़ूफ़
अरकान: फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाइलुन
तक़्ती'‌अ: 2122    2122    2122    212
 
यूँ सियासत ने ग़रीबों को फसाया जाल में
घर बनाने के लिए पट्टे दिये हैं ताल में
 
सच  कहें  तो  डर  लगे,  ख़ामोशी रक्खे घुट मरें
ज़िन्दगी  उलझी  हुई  है,  क़ैद  जैसे जाल  में।
 
ख़्वाब  आँखों  में  लिए  फिरते रहे हम दर-ब-दर,
रात  कटती  ही  नहीं  टूटी  हुई  उस चाल  में।
 
मंत्री बन बैठे वो जो फ़ेल थे नौवीं यहाँ
पिस रहा है कोई बी ए पास रोटी दाल में
 
बेच डाले हैं सियासत ने हवा पानी गगन
हम खड़े  तकते रहे, ख़ाली हुए इक  थाल में।
 
दौर बदला यूँ लगा इंसाफ़ होगा अब मिरा
ख़ुद खड़ा हूँ कटघरे में साज़िशों की चाल में
 
हर तरफ बस है ग़रीबी और हर सू भूख है
फिर भी जलसे हो रहे हैं जश्न के हर साल में।
 
मज़हबी नफ़रत उगी है प्यार की बुनियाद पर,
लो मुहब्बत भी सियासत बन गई हर हाल में।
 
हक़ के दावे तो किए पर कुछ दिया अब तक नहीं,
जनता सारी फाँस लेते वोट के इस जाल में।

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