अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

वातायन-यूके प्रवासी संगोष्ठी-174


    टैगोर ने अपनी पहली कविता ब्रज भाषा में ही लिखी थी—अनिल शर्मा जोशी 

 

लंदन: 31 मार्च, 2024: ‘बोलियों की मिठास और उनकी अकूत संपदा’ विषय पर दिनांक 30 मार्च, 2024 को साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था वातायन-यूके (लंदन) के तत्त्वावधान में वातायन-यूके संगोष्ठी-174 का ऑनलाइन आयोजन हुआ। इस संगोष्ठी की अध्यक्षता की, सुप्रसिद्ध साहित्यकार और हिंदी प्रचारक श्री अनिल शर्मा जोशी ने जबकि वातायन संगोष्ठी की इस लोकगीत शृंखला-15 का सुविध और सुरुचिपूर्ण संचालन किया सिंगापुर साहित्य संगम की सुश्री आराधना झा श्रीवास्तव ने। 

इस कार्यक्रम के प्रतिभागी वार्ताकार थे—लोकसाहित्य और नवगीत के हस्ताक्षर डॉ. जगदीश व्योम तथा आकाशवाणी की सुप्रसिद्ध पूर्व-उद्घोषिका तथा साहित्यकार सुश्री अलका सिन्हा। लोक साहित्य, लोक गीत, लोक भाषा और लोक जीवन के परिप्रेक्ष्य में यह संगोष्ठी अत्यंत दिलचस्प और ज्ञानवर्धक रही तथा ज़ूम, यूट्यूब, फ़ेसबुक एवं अन्य सोशल मीडिया के ज़रिए बड़ी संख्या में श्रोता-दर्शक इस कार्यक्रम से आद्योपांत जुड़े रहे। इस संगोष्ठी में अवधी, ब्रज, मैथिली और भोजपुरी लोकभाषाओं के साहित्य, इनके गीति-काव्य और इनसे संबद्ध लोगों के बारे में उपयोगी चर्चा हुई। डॉ. व्योम और सुश्री सिन्हा इन लोक भाषाओं पर अंतरंग बातचीत करते हुए कई बार भावुक हो गए तथा अपने निजी जीवन से जुड़ी अनेक घटनाओं का भी उल्लेख किया। 

कार्यक्रम का संचालन करते हुए सुश्री आराधना झा श्रीवास्तव ने मिथिला के कवि विद्यापति की एक कविता की एक पंक्ति—‘देसी बैना सब जन मिट्ठा’ उद्धृत करते हुए कहा कि यह कार्यक्रम लोक बोलियों की मिठास और उनकी अकूत संपदा पर केंद्रित है। तदुपरांत, उन्होंने संगोष्ठी के अध्यक्ष, श्री अनिल जोशी, प्रतिभागी संवादकारों, लोक गायकों और लोक गीतकारों का अभिनंदन करते हुए उनका संक्षिप्त परिचय दिया। उन्होंने कुछ लोक भाषा के अध्येताओं यथा, ग्रियर्सन, सुनिधि कुमार चटर्जी, धीरेंद्र वर्मा आदि का उल्लेख किया। अलका सिन्हा ने कहा कि इन लोक भाषाओं में हम जितना उतरते जाते हैं, उनके प्रति हमारी पिपासा उतनी ही बढ़ती जाती है। लोक शब्दावलियाँ लोक जीवन के अनेकानेक इम्प्रेशनों और स्मृतियों से हमें संबद्ध करती हैं। शहर की भागम-भाग के चलते रोबोट बनी ज़िंदग़ी में ये बोलियाँ मिठास का परिपाक करती हैं। डॉ. व्योम ने बताया कि फ़िल्मों में या शहरों में लोक गीत के नाम पर जो गीत गाए-सुने जाते हैं, उनमें लोकगीत का तत्त्व कोई पाँच से दस प्रतिशत तक ही रह जाता है। फ़िल्मों में प्रोफ़ेशनल गायकों द्वारा गाए गए लोक गीतों की एक तरह से हत्या हो गई है। जहाँ तक विभिन्न क्षेत्रों में लोक गीतों का सम्बन्ध हैं, उनमें एक प्रकार की एकरूपता होती है क्योंकि हमारी संवेदनाएँ एक जैसी ही हैं। मूल संवेदनाओं में कृत्रिमता के आने से लोकगीत की मौलिकता का क्षरण होता जा रहा है। 

तदनंतर, सुश्री ऋतुप्रिया खरे ने अवधी में कुछ होरी गीत, जैसे ‘होरी खेलैं रघुबीरा अवध मा, होरी खेलैं रघुबीरा’ और ‘रंग लई के दौरे हनुमान जी, राम जी बच के भागे’ गाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। डॉ. व्योम ने कहा कि इन लोक गीतों में नारियों ने अपनी नानाविध भावनाएँ प्रकट की हैं; उदाहरण के लिए एक लोकप्रिय भोजपुरी लोक गीत ‘रेलिया बैरन पिया को लिए जाय रे’ नारी-मन की ऐसी ही भावना को व्यक्त करता है। विवाह के अवसर पर गाया जाने वाला ‘गाली’ लोक गीत मिठास से भरा होता है। 

लोकगीतों की फुलझड़ियों के बीच बघेलखंड और मिथिला में गाए जाने वाले लोक गीतों की चर्चा करते हुए आराधना झा श्रीवास्तव ने सूरदास जी द्वारा ब्रज भाषा में विरचित एक भजन ‘दधि मांगत और रोटी गोपाल, माई’ को गाकर मंच को गुंजायमान्‌ कर दिया। इसी क्रम में श्री मनोज कुमार सिन्हा ने विद्यापति की मैथिली में लिखी गई एक गंगा-स्तुति ‘बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे’ गाकर सुनाया। डॉ. व्योम ने बताया कि जो भी रचनाकार ने लोक भाषा का प्रयोग नहीं करता है, वह अच्छा साहित्यकार नहीं हो सकता। हम सभी को लोक शब्द-संपदा को बचाने की आवश्यकता है। श्री रत्नेश पांडे ने लोक गीतों को शाश्वत बताते हुए कहा कि इनके रचनाकार, रचनाकाल, रचना-क्षेत्र के बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं होता है। ‘चइता’ और ‘फगुवा’ लोकगीतों की चर्चा करते हुए उन्होंने एक छठ गीत ‘गुणवा ना सोहेला’ और जन्मोत्सव पर गाया जाने वाला एक ‘सोहर’—‘जुग-जुग जिय सू ललनवा, भवनवा के भाग जागल हो’ सुनाया। उन्होंने विवाहोत्सव के दौरान द्वारचार पर गाया जाने वाला एक ‘गाली’ लोक गीत भी सुनाया। 

संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे श्री अनिल जोशी जी ने अपने वक्तव्य में इस मंच के लोकगायकों को धन्यवाद देते हुए कहा कि इन्हें इस मंच पर और भी मौक़ा दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि लोक भाषाओं और बोलियों का इतिहास बहुत प्राचीन है। ये बेहद लोकप्रिय भी रही हैं जिसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बांग्ला कवि रवींद्रनाथ टैगोर ने अपनी पहली कविता ब्रज भाषा में ही लिखी थी। उन्होंने ब्रज भाषा के कवि भारतेंदु जी की चर्चा करते हुए कहा कि लोक भाषाओं की लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि अवधी में तुलसीदास द्वारा विरचित रामचरित मानस विश्व-प्रसिद्ध काव्य है। अवधी को मधुर भाषा बताते हुए उन्होंने भोजपुरी को अंतरराष्ट्रीय भाषा बताया जिसे मॉरीशस में बहुतायत से बोला जाता है। 

कार्यक्रम का समापन श्री अभिषेक त्रिपाठी द्वारा मंचासीन अध्यक्ष, प्रतिभागी संवादकारों और लोकगायकों को धन्यवाद-ज्ञापन से हुआ। उन्होंने कार्यक्रम को सुनने के लिए ज़ूम, यूट्यूब और फ़ेसबुक जुड़े श्रोता-दर्शकों के प्रति भी आभार प्रकट किया। ऐसे श्रोता-दर्शकों में उल्लेखनीय नाम इस प्रकार हैं: प्रो. ल्यूदमिला खोंखोलोव, प्रो. तोमिओ मिज़ोकामी, शैल अग्रवाल, डॉ. जयशंकर यादव, डॉ. रेनू, डॉ. रश्मि वार्ष्णेय, डॉ. वरुण कुमार, प्रो. तात्याना ओरंसकिया, अनूप भार्गव, शेख़ शाहज़ाद-उल्लाह उस्मानी, विजय विक्रांत, डॉ. मधु वर्मा, सुनीता पाहुजा, सुषमा मल्होत्रा, सिंगरवार पांडुरंग, अमिता शाह, गीतू गर्ग, दीपा, पूजा यादव आदि। 
संगोष्ठी में विशेष तकनीकी सहयोग देने के लिए कृष्ण कुमार जी के प्रति भी वातायन परिवार की ओर से आभार प्रकट किया गया। 

 (प्रेस विज्ञप्ति-डॉ. मनोज मोक्षेंद्र) 

वातायन-यूके प्रवासी संगोष्ठी-174

हाल ही में

अन्य समाचार