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आदमी और इंसान  

आदमियों के बीच
खोजती हूँ इंसानों को,
पास पहुँचते ही
हो जाते हैं दूर,
मृगतृष्णा छोड़ती नहीं
मुझ को
ढूँढ़ती रहती हूँ
फिर भी बार बार।
 
मुझे एहसास होता है
वह है बिखरा हुआ,
शायद, पड़ा हुआ,
इधर किधर
हमारे ही क़दमों के नीचे।
 
पर झुकती नहीं नज़रें हमारी
क्योंकि
हम ख़ुद भी तो
आदमी हैं, इंसान नहीं।
ज़िंदगी को मरुस्थल बना,
आत्मकेंद्रित बन
एक लोलुप्ता लिए हुए 
चलते चले जाते हैं,
और धँसते चले जाते हैं,
अपनी ही तृष्णा में।
 
कुछ झुकते तो हैं,
इंसान को बचाने के लिए
पर पीछे का सैलाब
उन्हें अपने पैरों तले रौंद देता है।
 
और फिर
दफ़न हो जाता है
बार बार
बेचारा इंसान।
 
अवशेष रह जाते हैं,
खोखले खंडहरों में,
गूँजती, घुटती आहें
अनसुना होती हैं
और फिर अपनी अंतर्ध्वनि में ही
चुपचाप सो जाती है
फिर बार बार।
 
कोशिशें होती हैं
होती रहेंगी
क्योंकि हम सभी
सिर्फ़ आदमी हैं
इन्सान नहीं। 

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