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आलोकवर्द्धन

हूँ विशिष्टतम!
गुण निज आकुंचन,
सतत परिवर्तित एकाग्र-चिंतन।

 

प्रार्थी प्रेम की
वृक्ष मनोहारी, आकर्षी
रूप-विजन छाँह सघन।

 

बैठ तू इस ठाँव
आ क्षणिक विश्राम कर
कि मैं उर-स्वन, शीतल-भुवन।

 

दे झकझोर
कुसुमित पल्लवित यह देह
मिटा ताप
सुन सुगम संकीर्तन।

 

तू पाताल, मैं आकाश
तू क्षर-अक्षर, मैं दिशाकाश
रच कविता, गाय मन उन्मन।

 

भू से आकाश तक मिलती रहूँ
रहे न पंथ अपरिचित, गान उन्मन
तन एकल, तान उन्मन।

 

मेरे ही स्वर साकार
सिंचित विश्व-उपवन
मैँ प्रेमोद्वेल्लित विशुद्ध- मन।

 

तू नील-कुसुम, मैं मग
तू सुमों का सुम, मैं खग
मिल एक बन

हो 'आलोकवर्द्धन।'

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