अभिलाषाएँ
काव्य साहित्य | कविता डॉ. हृदय नारायण उपाध्याय31 May 2008
चाहूँगा मैं फूलों से बन पराग बिछ जाना
कलियों से थिरकन को लेकर पत्तों सा हिल जाना
उड़ता जाऊँ नील गगन में मन की यह अभिलाषा
माटी से जुड़कर बुझ पाए मन की गहन पिपासा
पतझड़ और तपन आकर भी गीत ऐसा गा जाए
स्वर कोयल का राग भ्रमर का जीवन गीत सुनाए
काँटे समझ भले ही अपने अन्त समय तज जायें
फिर भी सबके रक्षा की अभिलाषाएँ मिट ना पायें।
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pratik walunj 2019/08/01 04:58 AM
bahut khub man khush kar diya