अभिशप्त
काव्य साहित्य | कविता डॉ. प्रतिभा सक्सेना14 Feb 2013
रात का धुँधलका, सिर्फ़ तारों की छाँह,
मैंने देखा --
मन्दिर से निकल कर एक छायामूर्ति
चली जा रही है विजन वन की ओर!
आश्चर्य-चकित मैंने पूछा,
'देवि, आप कौन हैं ?
रात्रि के इस सुनसान प्रहर में,
अकेली कहाँ जा रही हैं ?'
वह चौंक गई,कुछ रुकी बोली,
'मैं जा रही हूँ राम के वामांग से उठ कर,
चिर दिन के लिए,
क्योंकि विश्वास और सत्य प्रमाण - सापेक्ष नहीं होते!
चेतनामयी नारी का स्थान
जहाँ ले ले सोने की मूरत,
मर्यादा का यह आचार,
मैं, वैदेही की चेतना- छाया,
जड़ -सी देखती रह गई!
अब मैं जा रही हूँ सदा-सदा के लिये!
'अब ?इतने समय बाद ? आज ?"
मेरे मुँह से निकल पड़ा!
वह उदास सी मुस्कराई -
'तुम आज देख पाई हो!
मैं तो जा चुकी शताब्दियों पहले,
सरयू अपार जल-राशि बहा चुकी है तब से,
श्री-हत अयोध्या अभिशप्त है तभी से!'
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