अपने हृदय की ओर
काव्य साहित्य | कविता सुशील कुमार7 Nov 2007
आओ, नफ़रत की आग में दहकता
अपनी ऊब और आत्महीनता का चेहरा
वर्त्तमान के किसी अंधे कोने में गाड़ दें
और वक़्त की खुली खिड़की से
एक लंबी छलाँग लगाएँ,
मगर यह समय ....
मुर्दा इतिहास की ढेर में
अपने सुख तलाशने का नहीं है,
न खुशफ़हम इरादों के बसंत बुनने का
और न आत्महंताओं से सीख लेने का है।
(उसकी हत्बुद्धि तो सौ कायरों की मौत से भी बेजा है।)
अपने होने और न होने के बीच
थोड़ी देर अपनी ही गुफाओं में कहीं ऐसी जगह
आओ गुप्त हो जाएँ निःशब्द, निर्विचार ...
कि समय भी न फटक पाये वहाँ
और दिमाग़ की शातिर नसों से बचकर
हृदय की अटूट नीरवता में कहीं बिछ जाएँ
जिसके वातायन से उठ रही
भव्य शांति की अजस्त्र लहरें
हमें फिर जगायेंगी
फिर हमें ओज से भर देंगी
और दोबारा उठने को प्रेरित करेंगी!
वहाँ न हमारे कानों में दुनियां फुसफुसायेंगी
न सन्नाटे ही शोर मचायेंगे
सदियों से आलिंगन की प्रतीक्षा में खड़ा
कोई दस्तक़ दे रहा होगा तुम्हारे भीतर
गौर से सुनो उसकी पुकार,
तुम्हारी ही आवाज़ है।
टुच्ची सुविधाओं के लालच से बनी
अपनी दुनियां को लात मार
(आओ थोड़ी देर के लिए ही सही)
उसकी बाँहों में भर जाएँ,
उसकी स्नेह-वर्षा में
इतना भींज जाएँ कि
युगों से विकल
हमारी आत्माएँ आनन्द-मगन हो उठें!
भाषा की साजिश के ख़िलाफ़
हृदय के एकान्त-निकेतन में
आओ अपना पहला क़दम रखें और
लोथ-लुंठित दुनियां के रचाव से बेहद दूर ...
स्निग्ध अंतःकरण को स्पर्श करती हुई
स्वयं की ओर एक यात्रा पर निकलें -
उछाह और उमंग से स्फुरित
इस अन्तर्यात्रा में
हम फिर जी उठें
उतने ही तरंगायित और भावप्रवण होकर
जितने माँ की कोख ने जने थे!
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