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बाँसुरी वाला

प्रधानाध्यापक ने घड़ी की ओर दृष्टि उठायी। भोजनावकाश का समय हो चुका था किन्तु चपरासी ने अभी तक स्कूल की घंटी नहीं बजायी थी। वे चपरासी को आवाज़ देने जा ही रहे थे कि तभी बाँसुरी की लंबी तान सुनायी पड़ी।

इसी के साथ जैसे चपरासी की नींद टूट गयी। उसने दौड़ कर भोजनावकाश की घंटी बजा दी। सारे बच्चे शोर मचाते हुये बाँसुरी वाले की ओर दौड़ पड़े।

वो बाँसुरी वाला 12 वर्ष का एक लड़का था। छोटी सी बाँसुरी से ऐसी मधुर धुन निकालता कि बच्चे झूम उठते। पिछले कुछ महीनों से वो भोजनावकाश के समय स्कूल के बाहर आ जाता था। चपरासी भले ही घंटी बजाना भूल जाये लेकिन ठीक 11 बजे उसकी बाँसुरी बजने लगती थी। उसके बाद बच्चों को कक्षा में रोक पाना मुश्किल होता था।

बाँसुरी वाले ने स्कूल के बच्चों पर जैसे जादू सा कर दिया था। अपना-अपना टिफ़िन लेकर वे उसके पास पहुँच जाते और उसे घेर कर बैठ जाते। वो झूम-झूम कर बाँसुरी बजाने लगता तो समय का पता ही नहीं चलता। बाँसुरी की धुन पर कई बच्चे तो नाचने भी लगते थे। भोजनावकाश समाप्त होने के बाद वे बहुत मुश्किलों से स्कूल के भीतर वापस आते।

प्रतिदिन उस लड़के की दो-चार बाँसुरियाँ बिक भी जातीं थीं। बच्चे स्कूल के भीतर उन बाँसुरियों को बजाने की कोशिश करते जिसके कारण अक्सर उन्हें डाँट भी पड़ जाती थी। किन्तु बच्चों पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था। मौक़ा पाते ही वे फिर बाँसुरी बजाने के प्रयास में जुट जाते थे।

सारे बच्चे बाँसुरी वाले के ज़बरदस्त प्रसंशक थे किन्तु कक्षा 6 के कक्षाध्यापक शास्त्री जी उसके सबसे बड़े दुश्मन थे। उन्हें लगता था कि अपनी बाँसुरी बेचने के चक्कर में ये लड़का स्कूल के बच्चों को बर्बाद किये दे रहा है। उन्होंने कई बार उस लड़के को डाँटा-फटकारा था किन्तु वो जाने किस मिट्टी का बना हुआ था कि शास्त्री जी की डाँट खाने के बाद भी रोज़ स्कूल के बाहर आ डटता।

परेशान होकर शास्त्री जी ने प्रधानाध्यपक से शिकायत करनी शुरू की। पहले तो उन्होंने ध्यान नहीं दिया किन्तु एक दिन भोजनावकाश में शास्त्री जी के साथ स्कूल के बाहर पहुँच गये।

फटे-पुराने कपड़े पहले बाँसुरी वाला लड़का मगन हो कर बाँसुरी बजा रहा था और बच्चे उसे घेर कर नाच रहे थे। यह देख शास्त्री जी का पारा चढ़ गया। उन्होंने चीखते हुये कहा, "देख रहे हैं आप, ये छोकरा स्कूल के बच्चों को बर्बाद किये दे रहा है। पढ़ने-लिखने के बजाय सभी नचैय्या बने जा रहे हैं।"

शास्त्री जी की चीख सुन उस लड़के ने अपने होठों से बाँसुरी को अलग कर लिया और उनकी तरफ़ देखते हुये बोला, ”मैंने आपका क्या बिगाड़ा है जो आप रोज़ मुझे डाँटने चले आते हैं।"

"मुझसे ज़ुबान लड़ाता है। अभी बताता हूँ कि तूने क्या बिगाड़ा है,"शास्त्री जी अपनी बाँहें चढ़ाते हुये उसकी ओर लपके।

"शास्त्री जी, रुक जाईये। मुझे बात करने दीजये," प्रधानाध्यापक ने तेज़ स्वर में शास्त्री जी को टोका फिर उस लड़के के क़रीब आ शांत स्वर में बोले, "बेटा, मैं इस स्कूल का प्रधानाध्यापक हूँ। मैं चाहता हूँ कि कल से तुम यहाँ न आओ।"

यह सुन उस लड़के का चेहरा काँप उठा। उसने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों को उठा कर प्रधानाध्यापक की तरफ़ देखा। उसके होंठ कुछ कहने के लिये थरथराये फिर बिना कुछ कहे वो पीछे मुड़ा और तेज़ी से वहाँ से चला गया।

"देखा, आपको कैसे घूर रहा था। लग रहा था कि कच्चा ही चबा जायेगा," शास्त्री जी बड़बड़ाये।

शास्त्री जी कुछ और कहना चाह रहे थे किन्तु प्रधानाध्यापक ने उन्हें चुप रहने का इशारा किया और फिर अपने कार्यालय की ओर लौट पड़े। जाने क्यूँ उन्हें लग रहा था कि उस लड़के को यहाँ आने से मना कर के उन्होंने अच्छा नहीं किया है। उस लड़के की बड़ी-बड़ी आँखों में पता नहीं क्या था कि वे चाह कर भी उसे नहीं भूल पा रहे थे।

अगले दिन भोजनावकाश से पाँच मिनट पहले शास्त्री जी प्रधानाध्यापक के पास आते हुये बोले, "देख लीजयेगा, ठीक 11 बजे उसकी बाँसुरी फिर बजेगी।"

"मैंने उसे मना कर दिया है। अब वो नहीं आयेगा," प्रधानाध्यपक के मुँह से अनायास ही निकल गया।

"मना तो मैंने भी कई बार किया है परन्तु वह जाने किस मिट्टी का बना है। मानता ही नहीं। रोज़ आ धमकता है," शास्त्री जी ने मुँह बनाया।

प्रधानाध्यपक ने कोई उत्तर नहीं दिया। बस एक गहरी साँस भर कर मौन हो गये।

भोजनावकाश हुये काफ़ी देर हो गया था लेकिन आज बाँसुरी की तान नहीं सुनायी पड़ी। शास्त्री जी का चेहरा प्रसन्नता से खिला जा रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे उस बच्चे को भगा कर उन्होंने बहुत बड़ी सफलता पा ली है।

धीरे-धीरे 15 दिन बीत गये बाँसुरी वाला दोबारा नहीं आया। स्कूल के बच्चे 4-5 दिन तो बहुत परेशान रहे। सूनी सड़क पर टकटकी बाँध कर उसकी प्रतीक्षा करते रहे फिर धीरे-धीर सब सामान्य हो गया।

आज अचानक इतने दिनों बाद ठीक 11 बजे बाँसुरी की तान सुनायी पड़ी थी। इससे पहले कि प्रधानाध्यपक कोई निर्णय ले पाते शास्त्री जी तमतमाते हुये आये और बोले, "मैं जानता था कि ये छोकरा बहुत बेशर्म है। देखिये फिर आ गया। अपनी बाँसुरी बेचने के चक्कर में ये स्कूल के बच्चों को बर्बाद कर डालेगा।"

प्रधानाध्यपक ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे अनिर्णय की स्थित में थे। तभी शास्त्री जी ने अपने तेवर तेज़ करते हुये कहा, "मैं अपने छात्रों को नाच-गाने में समय बर्बाद नहीं करने दूँगा। अगर आप कुछ नहीं करना चाहते तो मुझे बता दीजये। मैं आज इस छोकरे की टाँगें तोड़ देता हूँ। फिर दोबारा इधर कभी नहीं झाँकेगा।"

शास्त्री जी की बात सुन प्रधानाध्यापक के चेहरा सख़्त हो गया। मेज़ पर रखा बेंत लेकर वे तेज़ क़दमों से बाहर निकल पड़े। अपनी धोती सँभालते हुये शास्त्री जी भी पीछे-पीछे दौड़ रहे थे।

स्कूल के गेट के पास वो लड़का झूम-झूम कर बाँसुरी बजा रहा था और सारे बच्चे उसे घेरे हुये थे। प्रधानाध्यपक को आता देख वो लड़का सहम कर रुक गया। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में भय के चिह्न उभर आये।

"मैंने तुमको मना किया था फिर क्यूँ आ गया यहा। क्या बाँसुरी बेचने के लिये तुम्हें कोई दूसरी जगह नहीं मिलती," कहते हुये प्रधानाध्यपक ने एक बेंत उसे जड़ दिया।

उसने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से प्रधानाध्यपक के चेहरे की तरफ़ देखा। उन आँखों में पानी भर आया था। ऐसा लग रहा था कि चोट शरीर से ज़्यादा उसके मन पर लगी है। कुछ कहने के लिये उसके होंठ थरथराये किन्तु आज फिर उसने उन्हें सिल लिया।

आस-पास खड़े बच्चों पर एक दृष्टि डालने के बाद उसने अपनी पलकों को पोंछा और बिना कुछ कहे वापस जाने के लिये मुड़ पड़ा। भयभीत हिरण जैसी उसकी आँखों को देख कर जाने क्यूँ प्रधानाध्यपक को लगा कि उस दिन की तरह आज भी ये लड़का कुछ कहना चाह रहा है किन्तु कह नहीं पा रहा है।

किसी अनजान भावना के वशीभूत होकर उन्होंने उसके कंधों पर हाथ रख कर पूछा, "तुम कुछ कहना चाह रहे हो।"

स्नेह का हल्का सा स्पर्श पाते ही सप्रयास रोक कर रखे गये आँसू बाहर छलक आये। प्रधानाध्यपक ने ध्यान से देखा कि 15 दिनों में वो लड़का काफ़ी दुबला हो गया था और चेहरे की चमक खो सी गयी थी। उसके कपड़े तार-तार हो रहे थे। उन्हें उसकी हालत पर दया और अपनी कठोरता पर शर्म आने लगी। छोटे से बच्चे की रोज़ी पर लात मारना उन्हें बहुत ग़लत काम लगा।

कुछ सोच कर उन्होंने अपनी जेब में हाथ डाल कर कुछ रुपये निकाले और उसकी ओर बढ़ाते हुये बोले, "लो इन्हें रख लो।"

"सर, मैं भिखारी नहीं हूँ," वो लड़का फफक कर रो पड़ा। उसके सब्र का बांध टूट गया था।

प्रधानाध्यपक का मन अपराध बोध से भर उठा। उन्हें लगा कि उस लड़के के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचा कर उन्होंने अच्छा नहीं किया है। अतः बात बनाते हुये बोले, "तुम मुझे ग़लत समझ रहे हो। दरअसल मैने तुम्हें यहाँ आने से मना किया है उससे तुम्हारा जो नुकसान होगा ये उसके बदले में है। रख लो तुम्हारे काम आयेंगे।"

"सर, क्या आप भी समझते हैं कि मैं यहाँ बाँसुरी बेच कर पैसा कमाने आता हूँ," उस लड़के ने डबडबायी आँखों से प्रधानाध्यपक की ओर देखा।

उन आँखों में एक ऐसी कसक थी कि प्रधानाध्यपक को कोई जवाब नहीं सूझा। तभी उस लड़के ने कहा, "मैं कक्षा पाँच में पढ़ता था। हमेशा अपनी कक्षा में प्रथम आता था तभी मेरे ग़रीब माँ-बाप अपना पेट काट कर मुझे पढ़ाते थे। छह महीने पहले अचानक एक दुर्घटना में उन दोनों की मौत हो गयी। उसके बाद मेरी पढ़ाई छूट गयी। पेट पालने के लिये मैंने बाँसुरी बेचने का धंधा शुरू कर दिया। एक दिन घूमता-फिरता इस स्कूल की तरफ़ आ गया। इन बच्चों को देख मैं अपना दुख-दर्द भूल गया। उनके बीच आकर मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं एक बार फिर स्कूल में आ गया हूँ। इनके सानिध्य में मेरे अकेलेपान का एहसास कुछ कम हो जाता है बस इसी लिये यहाँ आ जाता था।"

इतना कह कर वो लड़का क्षण भर के लिये रुका फिर हिचकियाँ भरते हुये बोला, "जिस दिन से आपने मुझे यहाँ आने से मना किया है मैं न तो ठीक से खा पाया हूँ और न सो पाया हूँ। ऐसा लग रहा है कि मैं एक बार फिर अनाथ हो गया हूँ।"

उस लड़के के मुँह से निकला एक-एक शब्द हथौड़े की भाँति प्रधानाध्यपक के अन्तर्मन पर पड़ रहा था। समय के थपेड़ों ने छोटे से बच्चे को कितना समझदार बना दिया था। उस की मदद करने के बजाय उन्होंने आज उसे मारा था। अपनी करनी पर प्रधानाध्यपक का चेहरा शर्म से झुक गया।

उन्होंने शास्त्री जी की ओर देखा। उनका चेहरा भी आँसुओं से भीगा हुआ था। उस लड़के की कहानी ने उनकी आत्मा तक को झकझोर दिया था। उन्होंने काँपते स्वर में कहा, "सर, अगर आप अनुमति दें तो इस लड़के को मैं अपनी कक्षा में भर्ती कर लूँ। इसकी फ़ीस मैं भर दिया करूँगा।"

"इसकी फ़ीस आप नहीं भर सकते," प्रधानाध्यपक ने सख़्त स्वर में कहा।

"क्यों?" शास्त्री जी अचकचा उठे।

"क्योंकि इसकी फ़ीस मैंने माफ़ कर दी है," प्रधानाध्यपक मुस्कराये।

"आप महान हैं सर", हमेशा तना रहने वाला शास्त्री जी का चेहरा किसी बच्चे की भाँति प्रसन्नता से खिल उठा।

प्रधानाध्यपक ने शास्त्री जी बात का कोई उत्तर नहीं दिया और उस लड़के की तरफ़ मुड़ते हुये बोले, "फ़ीस माफ़ करने के अलावा मैं तुम्हें किताबें भी दिलवा दूँगा लेकिन इसके बदले में तुम्हें एक काम करना पड़ेगा।"

"आप आज्ञा दीजये। मैं पढ़ाई के लिये कोई भी काम करने के लिये तैयार हूँ ," उस लड़के की आँखों से गंगा-जमुना निकल पड़ीं।

"प्रतिदिन सुबह प्रार्थना सभा में बाँसुरी की धुन पर तुम्हें पूरे स्कूल को प्रार्थनायें सुनानी पड़ेंगी," प्रधानाचार्य ने बताया।

यह सुन वो लड़का प्रधानाचार्य के पैरों की तरफ़ झुक पड़ा लेकिन उन्होंने उसे रोक कर उसे अपने सीने से लगा लिया। उसकी पीठ थपथपाने के बाद वे उसका हाथ पकड़ कर स्कूल के भीतर चल पड़े।

शास्त्री जी और अन्य बच्चे पीछे-पीछे आ रहे थे। सभी की आँखों में प्रधानाध्यपक और बाँसुरी वाले लड़के के प्रति सम्मान का भाव था।

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