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बचपन की वह रोमांचकारी घटना

लगभग 35-36 वर्ष पहले की बात है,जब मैं 10-12 वर्ष का बालक था। चैत का महीना था। खेतों और खलिहानों में समृद्धि के उत्सव गीत गाये जा रहे थे। गाँव (गर्रेही) लगभग पाँच कोस दूर (लगभग 12-13 कि.मी.) बेतवा (नदी) पार भेंड़ी -जलालपुर में प्रति वर्ष नव दुर्गों में मेला लगता था। यह क्षेत्र का प्रसिद्ध एवं बड़ा मेला था। समस्त क्षेत्र वासी इस मेले में बड़े उत्साह से भाग लेने जाते थे। 

गाँव में भी मेले में जाने की तैयारियाँ ज़ोरों पर थीं। बैलों की जोड़ियाँ तैयार की जा रही थीं। सग्गड़ (छोटी बैलगाड़ी) ठोक-ठाक कर तैयार किये जा रहे थे। एक विशेष प्रकार का उल्लास एवं उत्साह गाँव में छाया हुआ था। विशेष कर बच्चों में। 

मेले में जाते समय बैलगाड़ियों की दौड़ होती थी। लोग महीनों महले से बैलों को खिला-पिला कर तैयार करते थे। जहाँ रास्ता समतल, चौड़ा एवं मैदान की तरह होता, लोग अपनी-अपनी बैलगाड़ी परिचालन एवं बैलों की धावक क्षमता का परिचय देने लगते थे। हमारे छोटे दादा जी को (पिता जी के बड़े भाई, जिन्हें हम सब भाई-बहन छोटे दादा कहते थे, (क्योंकि वे बड़े दादा से छोटे थे) को अच्छे बैल रखना और बैलगाड़ी दौड़ाने का बहुत शौक़ था। तय यह हुआ कि सुबह चार बजे सभी लोग खलिहान में इकट्ठे होकर मेले के लिये चलेंगे। दादा तो खलिहान में लेटते ही थे, अतः हमें और भइया (श्री रामजी श्रीवास्तव) जो मुझसे दो वर्ष बड़े हैं को आदेश हुआ कि छाता लेकर सुबह घर से खलिहान पर आ जाना। 

एक दिन पहले से ही हम लोग कपड़े धोकर तैयार थे। मुझे याद है लाल चौखाने वाली वह शर्ट जिसे पहनने के लिये हम किसी विशेष उत्सव, समारोह एवं मौक़े की प्रतीक्षा किया करते थे।  शायद वह शर्ट जिसे पहन कर हम विशेष गर्व एवं ख़ुशी का अनुभव करते थे, मेरे जीवन की सबसे अच्छी शर्ट थी। जिसकी समानता आज तक महँगे से महँगे कपड़े नहीं कर सके। रात तो सोते-जागते किसी तरह निकल गई, किन्तु भुन्सारे (प्रातःकाल) से पहले ही अपनी लाल चौखाने वाली शर्ट और मक्खन जीन की खाकी रंग की पैण्ट पहन कर हम तैयार हो गये। 

घर से खलिहान कुछ दूर था। घर था बीत बस्ती में और खलिहान था गाँव से कुछ हट कर तालाब के किनारे। भइया छाता लेकर और मैं नाश्ते की पोटली लिये निकल पड़े खलिहान की ओर। 

साथ में यह भी बताते चलें कि छाता को साथ लेने का एक विशेष प्रयोजन था। दरअसल बैलगाड़ी दौड़ के समय छाते को ऊपर उठाकर तान देने से बैल अपनी पूरी ताक़त लगाकर दौड़ने लगते थे। भइया आगे-आगे और मैं पीछे-पीछे। धुँधलका होने के कारण दूर का दृश्य साफ़ महीं दिखाई दे रहा था। अपनी धुन में मस्त भइया आगे बढ़ते जा रहे थे। मैं कुछ पीछे था। भइया को सामने कुत्ते जैसी कोई आकृति दिखाई दी। किन्तु वे उसकी परवाह किये बिना आगे बढ़ते गये। इससे पहले कि भइया उसकी अजीब हरकतों को देख कुछ समझ पाते कि वह आकृति मुँह फाड़ कर उनकी ओर झपटी। उनके गले से एक तेज़ चीख़ निकल पड़ी, "दादा बचाओ...!"

मरता क्या न करता! भइया ने तेज़ी से घबराहट में छाते को उसके फैले हुये मुँह की ओर कर दिया और डर से अपना मुँह फेर लिया। 

खलिहान पास में ही था। भइया की चीख़ सुन कर आस-पास के लोग जो खलिहान में ही सोते थे, "मारो... मारो..." चिल्लाते हुये दौड़ पड़े। छाते के आगे की नोंक की चुभन से तिलमिला कर और लोगों को आते देख जिनौरा (भेड़िया) भाग खड़ा हुआ। 

रात के अंतिम प्रहर की नीरवता में भइया की हृदय विदारक चीख़ सम्पूर्ण गाँव में सिहरन दौड़ा गई। मौत को साक्षात मुँह फैलाए देख अपनी स्थिति का स्मरण कर आज भी मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं और शरीर में सिहरन दौड़ जाती है। 

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