दहेज़ की कुरीति
काव्य साहित्य | कविता चतुरानन झा ’मनोज’16 Jan 2009
ग्राम-ग्राम और शहर-शहर से,
अबलायें करती चीत्कार।
अग्नि दहेज़ की धधक रही है,
दूल्हों का है गरम बाज़ार॥
बापू यह चिंता करते कि
क्यों जन्मी घर में बेटी ?
उसका विवाह कराने के हित,
घर बेचें, बेचें खेती।
बेटी अपने भाग्य को कोसे,
पूजे पीपल हर सोमवार।
अग्नि दहेज़ की धधक रही है,
दूल्हों का है गरम बाज़ार॥
कितने सास-ननद ने मिलकर,
बहुओं को जलाकर मार दिया।
मर जाएँ ऐसे पापी लोग,
जिन्होंने बेटों का व्यापार किया।
औरत जलकर मर जाती,
जो सबके हित करती व्रत-त्यौहार।
अग्नि दहेज़ की धधक रही है,
दूल्हों का है गरम बाज़ार॥
अरे, इक्कीसवीं सदी की सीढ़ी से
तुम देख रहे हो अत्याचार।
अरे, खाओ कसम, लो प्रतिज्ञा कि
दहेज़ हो माँ की खून की धार।
चतुरानन कहता, लोभ-मोह सब
छोड़-छाड़ कर तुम सुशीला बहुएँ लाओ।
इस कुरीति को त्यागकर
सब भारतवासी, नया समाज बनाओ॥
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