दोराहे पर जीता मन
काव्य साहित्य | कविता सुदर्शन रत्नाकर16 May 2007
मैंने पक्षियों के कुछ पंख
इकट्ठे किए
और उनसे उड़ने लगी;
दूर-दूर तक उड़ते हुए
आकाश की ऊँचाइयाँ छूने लगी
नीचे धरती पर रहने वाले लोग
मुझे बौने - से दिखने लगे।
चाँद-सितारों की चकाचौंध में
मैं यह भूल गई कि
कब मौसम बदलते हैं
कब अवसाद की काली परछाइयाँ
सुखद क्षणों को घेरती हैं।
हर पेड़ अपने ही पत्तों को गिराकर
नए पत्तों को जन्म देता है
मनुष्य प्रवंचना किसी से नहीं
स्वयं से करता है;
इसी दोराहे पर जीता मन
भूल जाता है कि
उधार लिए पंखों से उड़ा तो जाता है
लेकिन
ऊँचाइयों को छूकर
उन कोमल पंखों की सीढ़ी बनाकर
उतरता नहीं मन;
वरन् तीरों से विद्ध कर दिया जाता है।
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