अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

गुड़िया हूँ मैं

कहते हैं 
गुड़िया रोती नहीं 
सुबुकती नहीं 
गुड़िया सिर्फ़ मुस्काती है
पलकें झपकाती है

 

पर सिर्फ़ गुड़िया जानती है 
कैसे अम्मा के तानों को ख़ामोशी से सहती है
बापू के भरोसे को अपना गहना समझती है
कैसे छत के कोने में चुपचाप सुबुकती है
और आँसू पोंछकर फिर मुस्काने लगती है

 

कैसे रात रात भर जगती है
यही सोचती रहती है
किसको कैसे समझाए 
कैसे अपनी मूक व्यथा बतलाये

 

क्यों भइया की सारी बातें 
अपने आप सही हो जाती हैं 
क्यों उसकी छोटी सी गलती भी 
सबको असहनीय हो जाती है

 

जब वो हँसती है
सब कहते हैं 
लड़की होकर इतना क्यों हँसती है

 

जब-जब गुमसुम चुपचाप सी रहती है
सब कहते हैं 
इतना नखरा क्यों करती है

 

जब अपनी इच्छा से कुछ करती है
सब कहते हैं
गुड़िया किसी की नहीं सुनती
बस मनमानी करती है
गुड़िया बदल गई है
गुड़िया बिगड़ गई है

 

बापू तुम ही तो कहते थे 
हम अपनी प्यारी गुड़िया को
दुनिया की सारी खुशियाँ दे देंगे 
एक चाँद छोड़कर जो माँगेगी
सब लाकर तुझको देंगे

 

बापू कभी तो अपनी गुड़िया से आकर पूछो
किस हाल में अब वो रहती है
कैसे बाहर दुनिया उसे काटती है
कैसे घर में सबको चुभती है
किससे बोले कहाँ जाए
क्या कहे किसको सुनाए
कभी क्या ऐसा हो पायेगा 
कोई पढ़कर उसकी आँखों को 
उसकी बात उसी को बतलायेगा

 

आख़िर
उसकी जगती रातों को कब
कोई सपना मिल पायेगा
उसके अपने सपनों को 
कौन अपना बतायेगा

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

नज़्म

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं