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हिन्दी साहित्य सार्वभौमिक?

प्रिय मित्रो,

गत सोमवार को पंजाबी की एक साहित्यिक संस्था ने, जिसमें स्व. डॉ. महीप सिंह जी के सपुत्र जयदीप सिंह जी सक्रिय सदस्य हैं, हिन्दी राइटर्स गिल्ड के संस्थापक निदेशकों यानी डॉ. शैलजा सक्सेना, विजय विक्रान्त और मुझे आमन्त्रित किया। डॉ. महीप सिंह जी से हिन्दी राइटर्स गिल्ड का संबंध संयोगवश बना। संस्था के उद्घाटन से एक सप्ताह पूर्व हमें पता चला कि वह कैनेडा में अपने पुत्र जयदीप के पास ओटवा में आये हुए हैं। हम लोगों ने उन्हें उद्घाटन के लिए आमन्त्रित किया और उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। अपनी वयोवृद्ध और अस्वस्थ अवस्था के रहते भी वह यहाँ आए और उन्होंने अपने आशीर्वाद से हम साहित्यप्रेमियों को अभिभूत किया। अपने संबोधन में कहानी लेखन के सूक्ष्म तत्वों को बताते हुए अपनी एक कहानी का पाठ भी किया था। हिन्दी राइटर्स गिल्ड को स्थापित हुए आठ वर्ष से अधिक हो चुके हैं। उनके साथ संबंध वहीं पर समाप्त नहीं हुआ बल्कि भारत लौटने के बाद अंत तक भी वह अपने खर्चे से अपनी पत्रिका "संरचना" की तीन प्रतियाँ हमें भेजते रहे। गिल्ड के सदस्य जसबीर कालरवि के पंजाबी के उपन्यास के हिन्दी अनुवाद "अमृत" की भूमिका भी उन्होंने लिखी। अमृत का हिन्दी अनुवाद मैंने ही किया था।

जयदीप सिंह भी समय-समय पर हमारी मासिक गोष्ठियों में आते रहते हैं। सोमवार की शाम को पंजाबी के स्व. कवि शिव कुमार बटालवी की स्मृति में कार्यक्रम आयोजित किया गया था। शिव के गीत, ग़ज़लें गायी गईं। उनकी कविताओं का पाठ हुआ और पंजाबी विद्वानों ने उनके साहित्य के बारे मे अपने आलेख पढ़े। बाद में एक गायक श्री हरदीप बख़्शी ने संगीत का कार्यक्रम प्रस्तुत किया।

जाने से पहले हम तीनों को थोड़ा आश्चर्य हो रहा था कि कार्यक्रम सोमवार को शाम को छह बजे क्यों? प्रायः यहाँ पर सभी कार्यक्रम शनिवार या रविवार को ही होते हैं और अगर बहुत हुआ तो शुक्रवार को भी हो जाता है। शाम को छह बजे पहुँचने के लिए शाम के "रश" समय ट्रैफिक में फँसने की सम्भावना ही नहीं बल्कि अनिवार्यता भी है। अनुभव की कमी के कारण हम तीनों थोड़ी देर से पहुँचे परन्तु विस्मय तो तब हुआ जब देखा की चालीस से अधिक लोग उपस्थित हैं कार्यक्रम ठीक छह बजे शुरू हो चुका है। बाद में पूछने पर सोमवार की शाम का तर्क भी समझ आया कि "वीकेंड को सभी अपने व्यक्तिगत कार्यक्रमों में व्यस्त होते हैं"। अच्छा लगा कि यह लोग इतने समर्पित हैं कि साहित्य के लिए समय अपने काम वाले दिन शाम को निकालते हैं। भाग-दौड़ करके किसी तरह समय पर पहुँच कर रात के आठ बजे के बाद तक अपनी रचनाओं का पाठ करते हैं और सुनते हैं। साहित्यिक चर्चा भी होती है। अपनी ग़ज़लों और अपने मित्रों की ग़ज़लों को गाते भी हैं। पंजाबी के इन लेखकों के समर्पण से मन गद्गद हो गया। एक विशेष बात और, क्योंकि पंजाबी भारत और पाकिस्तान के पंजाब की भाषा है इसलिए दोनों ही देशों के लेखक इसमें शामिल होते हैं – कोई राजनैतिक विवाद नहीं। मुझे याद है कि यही बात मैंने अपनी एक कहानी "लाश" में लिखी थी कि "यहाँ कुछ समय के बाद देशों की सीमा रेखा धूमिल हो जाती है, अगर कोई बिरादरी होती है तो वह भाषा की और एक से खाने की"। शायद यही शब्द थे ठीक से याद नहीं, परन्तु जो एक बात याद है वह यह कि भारत के एक प्रसिद्ध समीक्षक को यह बात/वास्तविकता समझ नहीं आयी थी।

यहाँ पर एक नया विषय शुरू होता है। अब "विश्वग्राम" के काल में, जब अंतरजाल की सुविधा के कारण हिन्दी या कोई भी भाषा या उसमें रचा जा रहा साहित्य किसी भी देश की सीमाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका पटल अब सार्वभौमिक है। ऐसे में क्या विदेशों में हिन्दी के लेखकों के लेखन पर प्रवासी साहित्य की चिपकी लगा कर हाशिये पर कर देना उचित है। क्या उनके साहित्य की समीक्षा भारत में चल रहे विमर्शों के "फ्रेम" में "फिट" करते हुए की जाए। इस बात को मैं मानता हूँ कि कथानक की सामाजिक पृष्ठभूमि में अंतर हो सकता है, परन्तु महानगरीय अनुभव तो एक से हैं। मानवीय अनुभव एक से हैं। हाँ, ग्रामीण अनुभव बिलकुल अलग हैं। परन्तु वह साहित्य का एक अंशमात्र है। दूसरी ओर विदेश में साहित्य सृजन करने वालों से मेरा प्रश्न यह है कि आप अपने साहित्य की सफलता को भारत के समीक्षकों की स्वीकृति के मानदंड से क्यों तौलते हैं? उत्कृष्ट साहित्य तो उत्कृष्ट है ही चाहे वह कहीं भी लिखा जाए। उदाहरण में प्रायः अंग्रेज़ी के साहित्य की देता हूँ – क्या अमेरिका, कैनेडा, ऑस्ट्रेलिया या न्यूज़ीलैंड के लेखक इंग्लैंड के समीक्षकों की हामी की प्रतीक्षा करते हैं? तो फिर हम ही क्यों? क्या हिन्दी साहित्य सार्वभौमिक नहीं है?

आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

– सादर
सुमन कुमार घई

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