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लाश

 

उसकी लाश सड़क के किनारे फ़ुटपाथ पर पड़ी मिली थी। 

उस लाश को पहले इन्हीं गलियों रहने वाले लोगों ने देखा था। इस इलाक़े के अधिकतर निवासी भारतीय या पाकिस्तानी हैं। अपने देशों से दूर रहते-रहते स्वदेश की राजनीतियों का रंग कब का पुराने कपड़े-सा हो गया है—फीका। मनों में देशों की सीमा रेखा कब की मिट चुकी है। अब इन गलियों में बस बिरादरी-भाईचारा है तो भाषा का, दैनिक रहन-सहन का। एक पुराने गाँव जैसा माहौल है इन गलियों में। सभी एक दूसरे को जानते हैं। युवा पीढ़ी के काम पर चले जाने के बाद पुरानी पीढ़ी के लोग रह जाते हैं तीसरी पीढ़ी की देख-भाल के लिए।तब तो एक दूसरे के घर जाने से पहले फोन करने की आवश्यकता भी समाप्त हो जाती है। तीनों पीढ़ियाँ अपने-अपने वृत्तों में जी रही हैं, सभी ख़ुश हैं। बड़े-बूढ़ों को अकेलापन नहीं सताता, युवा पीढ़ी को अपने बच्चों की देख-भाल की चिन्ता नहीं है और सबसे अधिक ख़ुश हैं बच्चे। जिस बात के लिए माँ-बाप मना करते हैं, वह दादा-दादी या नाना-नानी से मनवाने में कोई दिक़्क़त नहीं। एक संतुलन है सबके जीवन में। 

दिनचर्या सभी की नियमित है। सबसे पहले जागने वाली—पहली पीढ़ी है। पर वह घर में रहकर कोई सुबह-सुबह खटर-पटर नहीं करते। अपने बेटे, बेटियों, बहुओं, दामादों के जागने से पहले ही सुबह सैर के लिए निकल जाते हैं। ठीक ही है यह, नहीं तो माँ-बाप नाश्ते के लिए टोक ही देते हैं बच्चों को, जोकि युवा पीढ़ी को पसन्द नहीं और यह संतुलन बिगड़ने लगता है। जब बड़ी पीढ़ी के लोग सैर से लौटते हैं तो युवा लोग काम पर जाने के लिए निकल रहे होते हैं। फिर दिनचर्या का दूसरा सीन इस मंच पर खेला जाता है। बच्चों को जगाकर स्कूल के लिए तैयार करना और उन्हें स्कूल छोड़ना और वापिस लाना दादा-दादी, नाना-नानी का काम है। सभी अपना अपना दायित्व सँभाले हुए हैं—संतुलन बना हुआ है। 

उस दिन भी कुछ भी अटपटा नहीं था। रोज़ की तरह पहला जोड़ा अपने घर से निकला और साथ वाले घर के आगे जाकर खड़ा हो गया जब तक दूसरा जोड़ा बाहर नहीं आ गया। घंटी बजाने की अनुमति नहीं है सुबह-सुबह। रोज़ का यही क्रम है। चुपचाप गली के सिरे तक पहुँचते-पहुँचते सात-आठ जोड़े हो जाते हैं और तब तक औरतें अलग और आदमी अलग हो जाते हैं। औरतें अक़्सर आदमियों से पंद्रह-बीस क़दम आगे चलती हैं। पहला कारण सुबह-सुबह जो भी दुख-दर्द वो आपस में बाँटती हैं उसकी भनक वह आदमियों को नहीं होने देतीं। संतुलन का सवाल है। दूसरा इस पीढ़ी के आदमी हर बात पर औरतों को टोकते ही रहते हैं। इधर बीवी मुँह खोला नहीं या उसके मुँह खोलने से पहले ही पति की गर्दन नकारात्मक दिशा में डोलने लगती है। यह दूरी ही सुरक्षा या यूँ कहिए स्वतंत्रता कवच है। 

उसकी लाश को भी पहले औरतों ने ही देखा था। किसी ने कहा, “नी, ज़रा देख तो, लगता है कोई धुत्त होकर फ़ुटपाथ पर लेटा है।” 

“अभी तो दूर है, सड़क पार कर दूसरी तरफ़ हो लेते हैं। सुबह-सुबह क्यों बदबू सूँघें उसकी?” 

“नहीं मैं तो नहीं जाऊँगी उस पार। ज़रा बचकर निकल लेंगे–कौन सा ट्रैफ़िक है सड़क पर इस वक़्त।” 
तब तक औरतें उस लाश तक आ पहुँची थीं। 

“अरे देख तो! यह तो कोई औरत है!” एक ने हैरानी से कहा। 

“कोई आवारा होगी। लगती तो कनेडियन ही है। ब्लाँड है। देख तो औंधी लेटी है . . .” 

अचानक बदबू की बात भूल कर यह रोचक घटना बनती जा रही थी। सब औरतें एक घेरे में खड़ी उस औंधे लेटे शरीर को कौतूहल से देख रहीं थीं। मृत्यु का आभास किसी को भी नहीं था। अचानक औरतों को इस तरह घेरे में खड़ा देख आदमी भी चौकन्ने हो जल्दी-जल्दी क़दम बढ़ाने लगे। तभी एक ने लाश की पिंडली तक सरक आई जीन के नीचे से झलकती पायल को देखा। 

“अरे, यह तो कोई देसी है। देख तो पायल पहने है।” 

“हाय नी! देसी ब्लाँड! ज़रूर ही आवारा है।” 

“ऐंवे ई आवारा-आवारा की रट लगा रही है तू! कैसे जानती है तू कि यह आवारा है?” 

“देखती नहीं तू इसके ब्लाँड बालों को। देसी औरत और ब्लाँड बाल!”पहली ने अपना तर्क दिया। 

“तो क्या बाल रँगने से आवारा हो गयी वो . . . तू भी तो मेंहदी लगा कर लालो-परी बने घूमती है!” दूसरी ने अपने मन की रड़क को निकालने का अवसर नहीं गँवाया। अचानक ही बहस लड़ाई का रंग लेने लगी थी। अच्छा हुआ कि आदमियों की टोली आ पहुँची। 

“पीछे हटो! देखने तो दो क्या हो रहा है,” एक ने अधिकारपूर्वक कहा। 

“होना क्या है—तमाशा है! देसी ब्लाँड औंधी धुत्त होकर सड़क पर लेटी है,” वह अभी तक बालों के रंग पर ही अटकी थी; चटकारे लेते हुए उसने टिप्पणी कर डाली। आदमी ने झुककर पास से देखा। एक झटके से सीधा खड़ा होकर एक क़दम पीछे हट गया। 

“यह तो मरी हुई है!” 

“क्याऽऽऽ?” सामूहिक रूप से कई आवाज़ें उभरीं। 

“इसको सीधा करके देखें कौन है?” एक औरत ने सुझाव देते हुए पूछा। 

“पागल हुई है—पुलिस को बुलाना होगा . . . अभी . . .” पति ने घुड़का। 

“अरे रहने दो। चुपचाप निकल चलो यहाँ से। ऐसे ही पुलिस के पचड़े में पड़े तो कचहरियों के चक्कर लगेंगे और बेटे-बेटियाँ अलग से परेशान होंगे,” दूसरे ने कहा। 

“क्या बात करते हो! यह कोई अपना देश है कि पुलिस रिपोर्ट लिखवाने वाले को ही पीटना शुरू कर देगी।” 

अभी बात चल ही रही थी की शर्मा जी ने अपनी नेतागिरी सँभाली और तुरन्त अपने मोबाइल से पुलिस को फोन कर दिया। पुलिस ने धन्यवाद देते हुए हिदायत दी कि किसी भी चीज़ को छूएँ मत और पुलिस के आने तक वहीं रहें। कुछ ही मिनटों में पुलिस आ पहुँची और उनके पीछे ही एम्बुलेंस और फ़ायर-इन्जन। 

“नी अब एम्बुलेंस आकर क्या करेगी? वह बेचारी तो मरी पड़ी है,” स्पष्ट था वह विचलित हो चुकी थी। 

“बहन यह अपना मुल्क थोड़े ही है कि ज़िन्दे पर भी एम्बुलेंस नहीं आती। यहाँ तो मरों पर भी आती है,” दूसरी ने ठण्डी साँस भरी। 

पुलिस के अधिकारी ने शर्मा जी से कुछ सवाल पूछे और धन्यवाद देते हुए कहा, “अब आप सब लोग यहाँ से जा सकते हैं। अगर आवश्यकता पड़ी तो हम आपको फिर सम्पर्क करेंगे।” 

अब इस भीड़ को न चाहते हुए भी वहाँ से हटना था। इस घटना ने सब को अन्दर तक हिला दिया था। रोमांचित मन इस कहनी का अंत भी देखना चाहता था। टोली ने सड़क पार की और ठीक सामने चर्च के लॉन में लगे पिकनिक टेबलों पर अड्डा जमा लिया। अब वातावण कौतूहल से बदल कर, दया और जीवन के क्षण भँगुर होने की दिशा में पलट चुका था। पुलिस के अधिकारियों को मुस्तैदी से अपना-अपना काम करते देख सभी प्रशंसा कर रहे थे और साथ ही साथ स्वदेश की पुलिस की भर्त्सना भी करते जा रहे थे। देखते ही देखते फोटो ली गईं। कुछ लोग आस-पास की सड़क का बारीक़ी से निरीक्षण करने लगे। 

पौ फटने लगी थी। सड़क पर इक्का-दुक्का कार तेज़ी से निकल जाती। यह शहर का बहुत ही पुराना इलाक़ा था। लगभग तीस साल पहले भारतीयों और पाकिस्तानियों ने इस इलाक़े में इसलिए बसना शुरू किया था कि उजड़ा-सा होने के कारण घर, दुकानें और किराये बहुत सस्ते थे। बाज़ार की आधे से अधिक दुकानें बन्द पड़ी थीं। टूटे हुए शो-केसों के शीशों को ठीक करने की बजाय सेलो-पेपर से ढाँप दिया जाता था। चोरी का डर तो तब होता अगर दुकान में चोरी करने लायक़ कुछ बचा होता। धीरे-धीरे इन्हीं देसी लोगों ने इस इलाक़े की शक्ल ही बदल डाली। जीवंत दुकानें, जीवंत बाज़ार, चहकते पार्क और खिलखिलाते स्कूल। किसी को बताने पर भी तीस साल पहले वाली हालत पर विश्वास नहीं होता था। 

अब तक यातायात की सुगमता के लिए के अधिकारी तैनात हो गया था। लाश पर एक छोटा सा टैंट तान देने के कारण अब गतिविधियाँ इतनी रोचक नहीं रही थीं। अब अटकलों का बाज़ार गरम हो चुका था। समय का ध्यान आते ही सभी को अपने घरों की ज़िम्मेदारियों की भी चिन्ता हो रही थी पर यहाँ से हटने का भी मन नहीं था। शर्मा जी ने कमान फिर से सँभाली। कमलेश की ओर मुड़ते हुए बोले—

“कमलेश बहन, किसी को तो घर लौटना होगा बच्चों को स्कूल पहुँचाने के लिए और तुम न लौटी तो जानती ही हो कि तुम्हारी बहू बखेड़ा खड़ा कर देगी। बाक़ियों की तो भली-चलाई। यह काम तुम्हें ही करना होगा।” 

कमलेश भी जानती थी की शर्मा जी कोई ग़लत नहीं कह रहे। सभी को एक दूसरे के घरों का सब कुछ पता था। कमलेश अनमने से उठी और अपनी गली की तरफ़ चल दी। पीछे से शर्मा जी ने आवाज़ दी—

“बहन नाश्ते के लिए न रुकना। हम सबका इन्तज़ाम यहीं पर कर रहे हैं। जल्दी लौटना।” 

लग रहा था कि शर्मा जी ने फ़ैसला कर लिया था कि जब तक पुलिस यहाँ से नहीं जाती वह लोग भी वहीं टिकेंगे। 

♦    ♦     ♦

कमलेश लगभग भागते हुए मुहल्ले में पहुँची और एक सिरे से घरों के दरवाज़े खटखटाती हुई हिदायत देती गई कि बच्चों को तैयार कर दें और आज वह ही सभी को स्कूल ले जाएगी। युवा लोग कुछ हैरान और कुछ परेशान हुए कि उनकी दिनचर्या में अचानक यह कैसा रोड़ा अटक रहा है। पर अधिक तर्क-वितर्क का समय नहीं था। काम पर भी जाने की जल्दी थी। 

मुहल्ले के सभी बच्चों को लेकर कमलेश स्कूल पहुँची तो साथ के मुहल्ले से आई हुई सहेली मिल गई। कमलेश ने उसे तुरंत सुबह की घटना का बताया। लाश का हुलिया सुनते-सुनते सहेली के चेहरे का रंग उड़ने लगा। कमलेश ने भी देखा और बोली, “तुम्हारे चेहरे पर क्यों मुर्दानगी छा रही है। तू क्या जानती है उसे?”

“शायद, पर यहाँ कुछ नहीं कहूँगी। किसी के बारे में पूरा जाने बिना कैसे कह दूँ? तू मुझे जल्दी से वहाँ ले चल।” 

बच्चे स्कूल के अन्दर जा चुके थे। अब वहाँ पर रुक कर बतियाने का कोई तुक नहीं था। दोनों लगभग भागती हुई चर्च पहुँची। तब तक कोई जाकर कोने की कॉफ़ी-शॉप से नाश्ते का सामान ला चुका था और सभी लोग कॉफ़ी सुड़ुक रहे थे। मेज़ पर डोनट भी पड़े थे। दोनों को भागते आता देखकर सभी हैरान थे कि यह दूसरी कौन आ रही है कमलेश के साथ। पास से देखकर पहचाना तो सही पर हैरानी बढ़ती गई। दोनों की साँस फूल रही थी। दोनों के वहाँ पहुँचते ही किसी ने दोनों के हाथों में कॉफ़ी के गिलास थमा दिये थे और बैठने के लिए बेंच पर जगह बना दी थी। एक बोली, “चल कम्मो काफ़ी पी ले।” 

“काफ़ी नहीं भागवान, कॉफ़ी कहो,” आदत के अनुसार पति ने टोक दिया था। पर समय की गंभीरता और विस्मय में उसकी बात अनसुनी ही रही। जैसे ही कमलेश का हाँफना कुछ कम हुआ उसने बताया कि शायद उसकी सहेली कुछ जानती है लाश के बारे में। अब सभी की उत्सुकता बढ़ गई। अचानक सब कुछ व्यक्तिगत लगने लगा। सहेली ने भी देखा कि सभी की आँखें उसी पर टिकी हैं। 

“कैसी जैकेट पहने है वो?” सहेली ने प्रश्न किया। 

एकदम कई स्वर उत्तर में उभरे। शर्मा जी ने फिर डोर सँभाली और सहेली से कहने लगे, “बहन जो पूछना है मुझ से पूछो। मैली-सी शायद लाल रंग की जैकेट है।” 

“और नीली जीन है पहुँचे पर कढ़ाई भी है?”

“हाँ!” 

“पायल सिर्फ़ एक पैर में है?” 

अब तक सबका साँस लगभग रुक चुका था। 

“ठीक कहती हो,” अब शर्मा जी की आवाज़ में भी दम नहीं रहा था। 

सहेली एकदम निढाल-सी हो गई। स्वर गले में ही अटक रहा था। रुँधे गले से बोली, “इसी का डर था। मर गई बेचारी। कोई सुख नहीं देखा ज़िन्दगी भर!” 

अब लोगों की उत्सुकता पर शर्मा जी का नियन्त्रण नहीं रहा था। पर बोला कोई नहीं—बोलने की आवश्यकता ही कहाँ थी! अनपूछे सवालों से हवा भी भारी हो रही थी। उसने फिर से कहना शुरू किया, “यह नरेन्द्र की बीवी है।” 

“कौन नरेन्द्र?” शर्मा जी ने पूछा। 

“वही जो हर रविवार को मन्दिर के कीर्तन में पहले ढोलकी बजाता है और बाद में बाहर खड़ा होकर इंश्योरेंस बेचता है।” 

“पर उसकी बीवी तो दूसरी है, मैं तो जानती हूँ उसे, उसके बेटे को भी,” एक ने पहचानते हुए कहा। 

“हाँ, पर यह पहली थी और वह बेटा भी इसीका है।” 

“क्याऽऽ?” कई आवाज़ों में हैरानी थी। कहानी एक नया मोड़ ले रही थी। सहेली ने एक लम्बी साँस भरी। अपने भरे गले को सँभाला और कहानी कहनी शुरू की—

“यह लोग हमारी ही गली में रहते थे। माँ-बाप जब भारत से आए तो यह गोद में थी। यहीं पर पली-बढ़ी। बहुत सख़्ती की इस पर इसके माँ-बाप ने–शुरू से ही।” 

“क्यों?” 

“इकलौती सन्तान थी बेचारी। माँ-बाप के मन में डर था कि यहाँ के माहौल में रँगी गई तो उनसे टूट जाएगी। इसलिए शुरू से ही क़ाबू में रखने की ठान ली थी उन्होंने। कोई सहेली नहीं, कहीं अकेले आना-जाना नहीं। किसी हम-उम्र से बात-चीत नहीं।” 

“यह तो क़ैद से भी बदतर हुआ!” कमलेश अपने को नहीं रोक पाई। सभी नज़रों ने उसे घूरा। कहानी के प्रवाह में रुकावट किसी को भी सहन नहीं थी। उसने फिर तार पकड़ा, “हाँ, ठीक कहती हो बहन! बेचारी को हाई-स्कूल में भी छोड़ने और लेने के लिए माँ जाती थी। बेटी बेचारी अपने साथ पढ़ने वालों के आगे रोज़ शर्मिन्दा होती। इस पर फब्तियाँ कसी जातीं। कह किसी से भी कुछ नहीं पाती। मेरी बेटी भी इसी की क्लास में थी। पर उससे भी बात करने की इजाज़त नहीं थी इसे।” 

“पर नरेन्द्र से इसका सम्बन्ध कैसे?” कहानी की गति कुछ धीमी थी। सुनने वाले आज तक जल्दी पहुँचना चाहते थे। 

“नरेन्द्र इसका दूर का रिश्तेदार था।” 

“क्याऽऽ?” फिर से कहानी ने रोचक मोड़ ले लिया था। 

“हाँ, अस्सी के पंजाब के झगड़ों के समय रफ़्यूजी बनकर कैनेडा आ गया था और इन्हीं के यहाँ टिका। होनहार और बहुत ही शरीफ़ लड़का था। कई साल तक उसका इमिग्रेशन का केस लटका रहा। इस लड़की को बताया गया कि रिश्ते में तेरा भाई है। राखी बाँधती रही उसे।” 

“हाय-हाय! फिर भाई से ही शादी कर दी!” रंगे बालों वाली ने हैरानी व्यक्त की। शर्मा जी ने उसे घूरा। 

“हाँ, यही तो हुआ। लड़के का केस फेल हो गया। वापिस भेजने का नोटिस आ गया। इसके माँ-बाप को इन बरसों में नरेन्द्र में अपना सुखी बुढ़ापा दिखाई देने लगा था। जब नरेन्द्र के यहाँ रहने के सारे रास्ते बन्द हो गए तो अपनी ही बेटी से उसकी शादी कर दी। सोचा कि बेटी और जमाई दोनों ही पास रहेंगे। लड़का भारत से है, देखा-भाला है। रिश्ता भी दूर का ऐसा है कि शादी हो सकती है।” 

“इस लड़की ने कुछ नहीं कहा क्या?” शर्मा जी ने टोका। 

“कहा तो बहुत कुछ, पर दबा कर पाली थी माँ-बाप ने। इसकी मर्ज़ी को बचपन से ही मार दिया था माँ-बाप ने। बस कह दिया कि इस रिश्ते में शादी हो सकती है; कोई बुराई नहीं है। पर बेटी यह नहीं समझ पा रही थी कि कल तक जो मेरा भाई था और जिसे मैं राखी-टीका कर रही थी, उससे आज मेरा विवाह कैसे? यह तो पाप है—बस यही इस बेटी के मन में बैठ गया।” 

“फिर? यहाँ तक कैसे पहुँची?” 

“बता रही हूँ। अपराध-बोध में जीती रही बेचारी। एक ऑफ़िस में काम करती थी। वहाँ पर भी नहीं बता पाई अपनी शादी के बारे में। पेट से हो गई तो वहाँ पर भी पेट के साथ-साथ सवाल भी उभरने लगे। क्या कहती किसी से? बस अपने अन्दर ही अन्दर घुटती रही। अपनी ज़िन्दगी अपने जीने को ही पाप समझती रही। नौकरी छोड़ दी एक दिन। बेटा भी पैदा हो गया। उसके बाद तो अपराध-बोध और भी बढ़ गया। अपने ही बेटे को पाप की निशानी मान बैठी। माँ थी पर . . . ममता नहीं थी। जन्म तो दिया पर . . . प्यार से चूमा तक नहीं उसे कभी। नरेन्द्र और इसके माँ-बाप इसकी हालत देखकर और दुखी थे। पर अपना किया तो पलट नहीं सकते थे। बात बस वहीं अटकी हुई थी। सभी जी रहे थे एक ही छत के नीचे; एक दूसरे से टूटे हुए। कोई सम्बन्ध था तो बस दोष का उस परिवार में। कोई अपने को दोष देता तो कोई दूसरे को।” 

“आगे क्या हुआ?” 

“होना क्या था। एक दिन अपने बेटे को डॉक्टर के पास चैक-अप के लिए गई तो लौटी ही नहीं। दो दिन बाद पुलिस ने ढूँढ़ा—यँग स्ट्रीट पर दुकान के छज्जे के नीचे बैठी थी—भूखी प्यासी। बच्चा गोद में लिए। उसके बाद दिमाग़ी हालत बिगड़ती चली गई। कई बार ऐसा हुआ कि बच्चा गोद में लेकर निकल जाती। कभी झील के किनारे मिलती या कभी किसी पुल के नीचे। परिवार वाले बुरी तरह से घबरा चुके थे। डॉक्टर ने सलाह दी तो पागलखाने में भर्ती करा दिया। माँ-बाप ने चैन की साँस ली कि कम से कम बच्चा तो सुरक्षित है।” 

“हाँ, यह तो ठीक किया उन्होंने।” 

“पर अधिक देर ठीक रहा नहीं। यहाँ की सरकार बदली। बजट कम होने लगे अस्पतालों के। पागलखाने के जो मरीज़ ज़्यादा बुरे नहीं थे, उन्हें घर भेज दिया गया। यह भी घर लौट आई। पागलखाने में इसकी कुछ सहेलियाँ, दोस्त बन गए थे जो इसके साथ ही छूटे। अब यह माँ-बाप के हाथ से निकल चुकी थी। दबी हुई लड़की अचानक बदले लेने लगी गिन-गिन के। परिवार में रोज़ हाथा-पाई की नौबत आने लगी। कोई भी सुरक्षित नहीं था। बच्चा भी नहीं। घबराकर इसके माँ-बाप ने नरेन्द्र को तलाक़ लेने की सलाह दी।” 

“क्या? अपनी बेटी से तलाक़ दिलवा दिया माँ-बाप ने?” 

“क्या करते वह भी? नशे की लत लग चुकी थी इसे। कई बार तो बच्चे को भी बुरी तरह से पीट दिया इसने–पाप की औलाद कहते-कहते। तलाक़ हो गया। यह घर से भी बेघर हो गई।” 

“पर यह जीती कैसे थी? नशे की लत भी तो पैसे माँगती है। कहाँ से लाती थी पैसे?” रंगे बाल वाली के सारे सवाल ऐसे ही थे। अपनी सहेलियों की नज़र में ही उसे अपने सवाल का जवाब मिल गया—“ठीक है, आगे बताओ।” 

“नशीली गोलियों ने दिमाग़ और ख़राब कर दिया। पगला गई बेचारी। माँ-बाप ने शर्म के मारे और इसके बार-बार वापिस आकर दरवाज़े पर शोर-शराबा करने से बचने के लिए एक दिन चुपचाप घर बदल लिया। बच्चा अब तक स्कूल जाने लगा था। उसका स्कूल भी बदला गया। जब इसे पता चला तो बुरी तरह से बौरा गई। अपने परिवार को बेशक दुखी करती थी पर शायद इसके बदले में भी अपनापन छिपा था। इसकी हालत और बिगड़ गई। अक़्सर गली-मुहल्ले के घरों के दरवाज़े खटकाती पूछ्ती अपने बेटे के बारे में। घंटों स्कूल के प्ले-ग्राउंड के जंगले से चेहरा चिपकाए अपना बेटा पहचानने की कोशिश करती रहती। हताश होकर कभी वहीं फ़ुटपाथ पर घंटों बैठी रहती जब तक स्कूल वाले इसे वहाँ से भगा नहीं देते।” 

“बहुत बुरा हुआ बेचारी के साथ। सब माँ-बाप का किया धरा है। अपने स्वार्थ के लिए बेटी की ज़िन्दगी बरबाद कर दी!” एक से नहीं रहा गया। 

“सारा गली-मुहल्ला तंग आ चुका था इसकी हरकतों से,” सहेली ने बात को अनसुना करते हुए कहानी आगे बढ़ाई, “कभी यह महीनों ग़ायब हो जाती और फिर अचानक लौट आती। कई बार चेहरे पर मार-पीट के निशान दीखते। देखते-देखते कपड़े फटे-पुराने चीथड़ों में बदल गए, बाल का रंग भी बदल गया। बुरा हाल था बेचारी का। माँ-बाप और नरेन्द्र ने लौट कर सुध भी नहीं ली। बाद में सुनने में आया कि उन्होंने ही रिश्ता ढूँढ़ कर नरेन्द्र की फिर से शादी कर दी।” 

इस बार किसी को हैरानी नहीं हुई। कोई पश्न नहीं उछाला गया। कोई प्रतिक्रिया नहीं। बस एक चुप्पी सी छाई रही। सभी की आँखें भरी हुई थीं। आदमी भी अपनी कोरों को पोंछ रहे थे। समय रुक-सा गया था। सड़क पार पुलिस की गतिविधियाँ, सड़क, ट्रैफ़िक, पत्तों का हिलना सब कुछ, मानो वातावरण का भारीपन महसूस करते हुए थक से गए थे। गति धीमी हो चुकी थी। 

सहेली ने फिर बोलना शुरू किया। लगा कि आवाज़ किसी दूर कुएँ से आ रही हो। शब्द थे—अर्थ दिमाग़ तक पहुँच नहीं पा रहे थे। पीड़ा थी पर चोट दिखाई नहीं दे रही थी। 

“बेचारी बेटी होकर भी कभी बेटी न हुई, शादी हुई पर बीवी न बनी, जन्म तो दिया, माँ न बन सकी। ममता अगर मन में उठी तो मन के पाप ने उसे दबा लिया। मर तो बेचारी उसी दिन गई थी जिस दिन इसकी शादी हुई थी। लाश को कभी न कभी तो गिरना ही था। आज वह भी गिर गई।” कहते कहते वह फूट-फूट कर रोने लगी। अब कौन किस को सँभालता। शर्मा जी कुछ समय के बाद बोले, “उठ बहन, सड़क पार करते हैं।” 

“क्यों?” 

“पुलिस को बताना है कि लावारिस नहीं है यह लड़की। अपनी ही बेटी है।” 

यंत्रवत्‌ वह उठी और सड़क पार करने लगी। किसी के पास कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं था। 

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टिप्पणियाँ

डाॅ . भारती सिंह 2023/09/17 07:13 PM

जी सादर प्रणाम, इस कहानी में स्वार्थपरता चरम पर है । परिवार की आवश्यकता अपने स्वार्थ के लिए है , यही कारण है कि उचित-अनुचित के बारे में माता पिता भी नहीं सोच पाते हैं । उन्हें बेटी के भविष्य की जगह अपने भविष्य की ही चिंता परेशान करती है लेकिन बेटी बोझ बन जाती है तो वे उससे छुटकारा पाने में अपनी भलाई समझते हैं । बेटी के जीवन को उन्होंने समस्या बनाकर छोड़ दिया । बुरे वक्त में अपनी बेटी को ऐसे छोड़ना वैसे ही गलत है जैसे बच्चों द्वारा माता पिता को बुरे वक्त में छोड़ना । फिर परिवार कैसा ? परिवार की संरचना ही इसी उद्देश्य से की गई है । इस प्रकार परिवार के प्रति अविश्वास की भावना जन्म लेगी और समाज में भर्त्सना के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा । जीवन सत्य को नकारा नहीं जा सकता । यदि माता पिता ने बेटी के जीवन की पहली ईंट ही गलत रखी है तो आगे किसी भी प्रकार को समस्या आ सकती है जिसका उचित निदान आवश्यक है । ऐसे मा-बाप की भूमिका कभी भी रोल मॉडल नहीं हो सकती । कहानी बहुत यथार्थपरक परिस्थिति को उद्घाटित करने मे पूर्णतः सक्षम है । _ सादर

डॉ सुनीता जाजोदिया 2023/03/06 06:11 PM

स्वार्थ और संवेदनहीनता की पराकाष्ठा उकेरती मार्मिक कहानी

डॉ पदमावती 2023/03/06 09:23 AM

आदरणीय, कितना संवेदनशून्य व्यवहार ।मानवीयता की बलि चढ़ गई । बीभत्स मानसिकता की चरम सीमा को दर्शाता कथानक। रिश्ते सच्चाई की नींव पर ही टिक सकते है । माँ ,बाप ,भाई ,,बहन ,पति ,पत्नी ,का रिश्ता या कोई भी आत्मीय संबंध ही सही , आधार सच्चाई और विश्वास ही तो होता है । संबंधों का आधार ही भावना होता है और उस भावना से निर्मम खिलवाड़ ?कल तक जो भाई था आज वह पति बन जाए तो ,अगर उस लड़की का मानसिक संतुलन चरमरा गया तो क्या आश्चर्य? तथा कथित आधुनिकता का स्वाँग रचता जीवन चक्र । कृत्रिम औपचारिकता का जामा ओढ़े नैतिक ज़िम्मेदारी का “बोझ “ढोती मानवीयता को बिना किसी दुराव के चित्रित करती कहानी है “लाश” । स्वार्थ लोलुप विसंगतियों का दुर्दांत चित्र । संबंधों में संवेदनशून्यता का दोष किसे दें ? सुविधा भोगी जीवन के प्रति अति आसक्ति को या परिस्थितियों पर दोषारोपण कर स्वयं अपराध मुक्त हो कर औचित्य सिद्ध कर लेने की तुच्छ मानसिकता को? किसे? बहुत विचारोत्तेजक कहानी । हाँ यहीं एक बात और है , कि कहानी को पढ़ते समय कमलेश्वर की कहानी “ दिल्ली में एक मौत का स्मरण हो आया । कथानक में काफ़ी समानता न हो पर संवेदना में काफ़ी समानता दिखी जहां मनुष्य का मशीनीकरण किस हद तक हो सकता है, काफ़ी मार्मिक और प्रभावी लेखनी से उकेरा गया है । लेखक को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ ।

राजनन्दन सिंह 2023/03/06 08:42 AM

जीवन में जीते जी किसी भी कारणवश मुँह फेर लेनेवाले, घर बदलकर अपना पता छुपा लेनेवाले अपनों का दिल भी अंततः उस दिन स्वतः सामने आता है। जब जीवन शेष नहीं रहता। लाश के माता पिता ने स्वार्थ में एक ऐसी शादी करवा दी जिससे जीवित लाश के मन में अपराध बोध पैदा हुआ। जीवित लाश के माता-पिता ने उससे मुँह इसलिए फेरा कि वे किसी अर्धविक्षिप्ता का इलाज कराने में समर्थ नहीं थे तो उसके रक्त संबंधी भी नहीं दिखना चाहते थे। दूर के रिश्तेदार नरेंद्र को अपना इसलिए बनाया क्योंकि उसमें उनका अपना बुढापा सुरक्षित नजर आया। झूठी आत्म प्रतिष्ठा एवं स्वार्थअंधता की पोल खोलती व पराजय दिखाती हुई यह कहानी अत्यंत मार्मिक एवं परिवारिक रिश्तों के बारे में सोंचने पर विवश करती है। देश में विदेश में ऐसी न जाने कितनी लाशें सड़कों गलियों स्कूलों और उम्मीदों के अन्य ठिकानों पर दर दर भटक रही है। इस आशा में कि शायद कहीं उसका अपना मिल जाए। और दुसरी तरफ उसके अपने भी कुंडली मारे छुपे बैठे हैं। जब तक वह जीवित लाश बेजान बन कर किसी सड़क पर मिले तो वे बाहर आएंगे। यह कहने कि यह लाश लावारिस नहीं है।

सुनीता आदित्य 2023/03/04 01:08 AM

मन भर आया... मार्मिक। एक ग़लत फैसला... दोष किसका? हालात का? न बेटी न पत्नी न मां... कुछ भी तो नहीं बन सकी... वह तो पहले भी एक लाश थी.. जिंदा लाश...

सुनीता आदित्य 2023/03/04 01:02 AM

मन भर आया... बहुत मार्मिक। हालात या एक ग़लत फैसला ... उफ़.. न बेटी ,न पत्नी न मां... लाश थी पहले भी, जिंदा लाश ..

सरोजिनी पाण्डेय 2023/03/02 10:07 PM

हाय रे स्वार्थी मन, हाय रे संस्कार गहन!

पाण्डेय सरिता 2023/03/02 07:51 PM

मानवीय जीवन की संवेदनशील घटना ....

मधु 2023/03/02 06:27 PM

"लाश को कभी न कभी तो गिरना ही था। आज वह भी गिर गई।" सच के बाण से दिल को चीरती हुई कहानी।

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