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हेमन्त कुमार शर्मा की उत्कृष्ट रचना: पार हाला है

 

पार हाला है - हेमन्त कुमार शर्मा | साहित्य कुंज 

कभी-कभी कोई रचना ऐसी पढ़ने के लिए मिल जाती है जिसकी आप अपेक्षा नहीं करते। हेमन्त शर्मा एक अच्छे कवि और कहानीकार हैं। उनकी कई स्तरीय रचना आप साहित्य कुञ्ज में पढ़ सकते हैं। परन्तु इस अंक में उनकी एक कविता मिली जिसको मैंने एक बार से अधिक बार पढ़ा। आप ग़लत मत समझें, रचना मैं पहली बार ही समझ गया था, बस दूसरी बार या तीसरी बार पढ़ कर आनंदित होना चाहता था। एक से अधिक बार पढ़ना कठिन भी नहीं था क्योंकि न तो शब्दों का जंजाल था और न थोपा हुआ बनावटीपन। लेखक जो कहना चाह रहा था कविता वह कह रही थी। कोई भ्रमजाल नहीं था—सब कुछ स्पष्ट! स्पष्ट से मेरा अभिप्राय अभिधा से नहीं है। 

कविता की भाषा क्लिष्ट नहीं थी। सहज शब्दावली परन्तु यह मत समझिए कि भावों में गहराई नहीं थी। भावों की गहराई का शब्दों की क्लिष्टता से कुछ लेना-देना नहीं है। बल्कि इससे विपरीत कई बार भारी-भरकम शब्द भाव को दबा देते हैं, उभरने नहीं देते। कविता एक सीधे वक्तव्य से आरम्भ होती है:

“इस फ़िक्र ने मार डाला है, 
एक ज़िक्र ने मार डाला है।”

यह पंक्तियाँ एक उत्सुकता पैदा करती हैं कि कवि ने क्या सहा क्या अनुभव किया कि फ़िक्र ने मार डाला और पुनः उसके ज़िक्र ने मार डाला।

कविता आगे बढ़ती है: 

“बस दिल तो हार डाला था, 
फिर दिल पे हार डाला है।” 

कवि ने किस तरह से “हार” को यमक अलंकार के रूप प्रयोग किया है। पहली पंक्ति में दिल का हारना है और दूसरा “हार” समझने के लिए पहले पद में लिखे “मार डाला” को समझना पड़ेगा। दिल हारने बाद दिल पर श्रद्धांजलि के लिए “हार” डाला गया है।

“उस सच को आज़माया है, 
सब सिर का भार डाला है।” 

सच का भार उठाना भी कठिन होता है।

अगली दो पंक्तियों में कवि की लेखकीय कुंठा है। संभवतः कवि को कम शब्दों में भावों की गुरुता को समेटने के लिए कई बार लिखना पड़ा होगा। तभी तो वह कह उठा:

“कुछ रचना फाड़ डाली थी, 
कुछ कचरा झाड़ डाला है।” 

इन पंक्तियों को पढ़ते हुए होंठों पर हल्की सी मुस्कान फैल गई। 

अगली दो पंक्तियों में परिस्थितियों पर कवि की टिप्पणी है:

“गुल मिलने का सहारा था, 
पर सब का सार छाला है।” 

कवि को फूलों की आशा थी परन्तु पूरे श्रम का परिणाम हाथों पर छाला ही मिला।

अंतिम दो पंक्तियाँ बिन कहे ही हरिवंशराय बच्चन जी की प्रसिद्ध कविता को याद करवाती हैं और मन कह उठता है: इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!:

“किस मन को पार तारा था, 
वह कहता पार हाला है।” 

कवि ने मन को वैतरणी पार करवा रहा है और मन कह रहा है कि उस पार हाला है। 

ऐसी सुन्दर, सरल कविता लिखने के लिए हेमन्त को बधाई! आशा है पाठक इस रचना को पढ़ेंगे और अपनी प्रतिक्रिया अवश्य देंगे।

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टिप्पणियाँ

मधु शर्मा 2024/11/12 01:11 AM

धन्यवाद सुमन जी, जो आपने हेमन्त जी की अन्य रचनाओं की ओर भी ध्यान आकर्षित करवाया। और तो और 'मधुशाला' भी अब मेरे बुकशैल्फ़ से उतर कर कॉफ़ी-टेबल पर स्थान ग्रहण कर चुकी है। 'किसे नहीं पीने से नाता, किसे नहीं भाता प्याला, इस जगती के मदिरालय में तरह-तरह की हाला।' (रुबाई न: 120)

हेमन्त 2024/11/01 09:22 PM

धन्यवाद सुमन जी। मेरी रचना पर समीक्षा करने के लिए।--हेमन्त।

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