ओ हिम धीरे से गिर
काव्य साहित्य | कविता सुमन कुमार घई5 Mar 2012
ओ हिम धीरे से गिर
अभी ही वह सोई है,
फूल से होंठों पर खिंची
स्मिति रेखा कहती - देख,
वह सुखद स्वप्नों में खोई है
ओ हिम धीमे से गिर
अभी ही वह सोई है
कभी माँ, कभी पत्नी बन
सब निभाती रही वो,
कभी बेटी बन, कभी बन सखी -
दुखी मन सहलाती,
हँसती हँसाती रही वो,
कामों का अम्बार लगा था
फिर भी गुनगुनाती रही वो,
बरसों से यही दिनचर्या उसने,
धर्म - सी ढोयी है
ओ हिम धीरे से गिर
अभी ही वह सोई है
चौथे पहर में थक हारी
जीवन से कुछ पलों को
निज के लिए चुराया,
पुस्तक ले जब बैठी बिस्तर में
पति की मनुहारों ने उत्त्पात मचाया,
प्रीत-रीत भी निभाई उसने
बिसरी पुस्तक, थी शिथिल काया,
अभी आँख लगी तो
तुमने हिम, ले पवन संग
खिड़की के शीशों पर झंझावात उठाया,
मित्र - देख उसके मुख पर
फूल से होंठों पर खिंची
स्मिति रेखा कहती - देख
वह सुखद स्वप्नों में खोई है
ओ हिम धीमे से गिर
अभी ही वह सोई है
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