जिल्द
काव्य साहित्य | कविता पंखुरी सिन्हा31 Dec 2016
पहले हम जिल्द लगाया करते थे,
किताबों में,
किताबें बचीं रहती थीं,
उन भयानक बाहरी संघर्षों की बात करती,
जिसे हम समझते नहीं थे,
युद्धक्षेत्र से, युद्ध भूमि से आती हुईं,
घनघोर क़िस्म की कविताओं के बाद भी,
लगातार आती हुई सैनिकों की कविताओं के बाद भी,
बाद भी मोर्चे की कविताओं के,
और हमें अंक मिलते थे,
उनके विश्लेषण के।
फिर बच्चे बड़े हुए,
किताबें स्कूल कॉलेज की गलियों से निकलकर,
बाज़ारों तक पहुँची,
उनकी जिल्द उतरी,
और सरलीकरण होता चला गया,
बहुत ख़ौफ़नाक लड़ाईयों का,
बेहद अमानवीय संघर्षों का,
पहरों, पहरेदारों का,
दीवारों का क्या,
पैरों के नीचे की ज़मीन का,
लैंड माइंस के विस्फोट का।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं