खचाखच भरी रेलगाड़ी
काव्य साहित्य | कविता निर्मल गुप्त4 May 2016
खचाखच भरे रेलगाड़ी के डिब्बे में
एक पैर पर अपना संतुलन बना
उसने कर लिया ख़ुद को स्थगित
अब उसके सिवा सभी को है
जल्द से जल्द घर वापसी की
आकुल आतुरता।
खचाखच भरे रेलगाड़ी के डिब्बे में
गमकता है पसीना नमक की तरह
द्रव अपने बहने के लिए
जबरन रास्ते ढूँढ लेता है
आदमी के पास नहीं होता
ऐसा कोई विकल्प।
खचाखच भरे रेलगाड़ी के डिब्बे में
सब पहचानते हैं एक दूसरे को
लेकिन बने रहते हैं अनजान
तकलीफ़ों की निजता के बीच
दूरियों का होता है
अपना तिलिस्म।
खचाखच भरे रेलगाड़ी के डिब्बे में
बजती है ढोलक झनझनाते हैं मजीरें
बँटते है प्रसाद के बताशे
मिलता है सिर्फ उन्हीं को
जो सबको धकिया देते हैं
अपनी आस्था के बाहुबल से।
खचाखच भरे रेलगाडी के डिब्बे में
कोई न कोई पा लेता है
छत पर टँगे पंखे की जाली पर
धूलभरी चप्पल को टिका
आलथी पालथी मारने की जगह
प्रजा जानती है पादुकासीन होना।
खचाखच भरे रेलगाड़ी के डिब्बे में
ज़िंदगी कभी नहीं थमती
लोहे की पटरियों पर घिसटती है निरंतर
कोई रोज़ पूछता है अपने आप से
क्या डिब्बा कल भी भरा होगा
आज की तरह खचाखच?
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