किन्तु विवश हूँ
काव्य साहित्य | कविता हर्यंक 'प्रांजल'18 Jan 2019
हृदय प्रफुल्ल्ति इस अवसर पर, किन्तु वेदना, मैं परवश हूँ
आज तुम्हारे जन्मदिवस पर, पुलकित हूँ मैं, किन्तु विवश हूँ॥
यूँ लगता है जैसे मैंने देर करी जग जाने में
हीरों का इक हार खो दिया है जाने अनजाने में
साँसों की माला भी मुझको भार सरीखी लगती है
आँसू के सागर में मेरे छवि तेरी ही नभ सी है
तुम तो नभ पर हो प्रकाश सी…
तुम तो नभ पर हो प्रकाश सी तुम बिन मैं अज्ञान तमस हूँ
आज तुम्हारे जन्मदिवस पर, पुलकित हूँ मैं, किन्तु विवश हूँ॥
अनायास अनजाने मेरी आँखें नम हो जाती हैं
अनियंत्रित सी हृदय पटल पर छवियाँ तेरी आती हैं
अधरों पर मुस्कान ले आना मेरे हाथ नहीं रहता
बोलो बिन स्वाति के जल के क्या कोई चातक चहका
किसी जन्म तुम होगी मेरी…
किसी जन्म तुम होगी मेरी यही सोच के आज सरस हूँ
आज तुम्हारे जन्मदिवस पर, पुलकित हूँ मैं, किन्तु विवश हूँ॥
चन्दन सी यूँ महक महक कर तुम मदहोश नहीं करना
छम छम छम पाजेब बजाकर मेरा चैन नहीं हरना
कबिरा के दोहों जैसी तुम सीख निराली बन जाना
भक्ति के छंदों जैसी तुम प्रेम पियाली बन जाना
तुम यदि हो धरती जैसी…
तुम यदि हो धरती जैसी तो मैं तेरे आकाश सदृश हूँ
आज तुम्हारे जन्मदिवस पर, पुलकित हूँ मैं, किन्तु विवश हूँ॥
रवि भी शक्तिहीन हो जाये मैंने ऐसा तम देखा है
मेरी कटी हृदय रेखा का जीवन मैंने कम देखा है
भवसागर से बिना तुम्हारे अब मैं ना जा पाऊँगा
कृष्ण तुम्हारी अनुमति लेकर पुनर्जन्म ले आऊँगा
तेरी प्रार्थनाओं के बल पर...
तेरी प्रार्थनाओं के बल पर अज्ञानी हूँ किन्तु सुयश हूँ
आज तुम्हारे जन्मदिवस पर, पुलकित हूँ मैं, किन्तु विवश हूँ॥
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